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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतगांधी किसी मूर्ति और कंठी-माला का नहीं अन्याय की पहचान और प्रतिरोध का नाम है

गांधी किसी मूर्ति और कंठी-माला का नहीं अन्याय की पहचान और प्रतिरोध का नाम है

गांधी के कर्म और चिन्तन को अगर आगे के वक्तों के लिए जिन्दा रहना है तो फिर ये काम उनके पदचिन्हों से अपने कदम मिलाकर चलने वाले अनुयायियों से नहीं बल्कि गांधी को अपने युग की मांग के हिसाब से बरतने वाले ‘कुजात’ गांधीवादियों से ही हो सकता है.

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गांधी की राजनीति के सबसे काबिल व्याख्याकार राममनोहर लोहिया ने उनकी जन्मशती के कुछ बरस पहले गांधीवादियों को तीन श्रेणी में बांटा था. पहली श्रेणी में थे सरकारी गांधीवादी और इस कोटि में लोहिया ने उन कांग्रेसियों को रखा जो महात्मा गांधी के नाम की माला जपते गये और सत्ता की सीढ़ियां चढ़ते गये. एक श्रेणी उन्होंने मठाधीश गांधीवादियों की बनायी और इस कोटि में उन लोगों को रखा जो गांधी के नाम पर कायम संस्थानों के मुखिया बने थे. लोहिया ने इन दो श्रेणियों का प्रतिनिधि नेहरु और विनोबा भावे को माना और हाथ के हाथ दोनों से अपनी दूरी भी जाहिर कर दी.

गांधीवादियों की इन दो श्रेणियों के बरक्स लोहिया ने एक तीसरी श्रेणी ‘कुजात’ गांधीवादियों की बनायी और इस कोटि में उन लोगों को रखा जो गांधी के कहे-सोचे पर आंख मूंदकर नहीं चलते बल्कि उसे तौल-परखकर अपने तईं समझते और अपने वक्त के हिसाब से सूझ निकालकर बरतते हैं. लोहिया ने तर्क दिया कि गांधी के किये-कहे को जो लोग ब्रह्मलेख मानकर बरतते हैं, दरअसल वे गांधी की विरासत के सही हकदार नहीं हैं. गांधी के कर्म और चिन्तन को अगर आगे के वक्तों के लिए जिन्दा रहना है तो फिर ये काम उनके पदचिन्हों से अपने कदम मिलाकर चलने वाले अनुयायियों से नहीं बल्कि गांधी को अपने युग की मांग के हिसाब से बरतने वाले ‘कुजात’ गांधीवादियों से ही हो सकता है. जाहिर है, लोहिया ने अपने को तीसरी श्रेणी यानि ‘कुजात’ गांधीवादियों में रखा था. गांधी के प्रति किसी पूजा-भाव से नहीं बल्कि गहरे सम्मान और जिम्मेदारी के भाव से भरे लोहिया ने उनके कुछ बुनियादी विचार-सूत्रों को बगैर गांधी के बोल-वचन का तोतारंटत लगाये अपने अंदाज में विकसित किया.


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आज जब गांधी की 150वीं जयंति का सरकारी ढोल चहुंदिश बज रहा है तो हमें महात्मा की विश्वदृष्टि से एकदम ही उलट विचारधारा के हाथों उस महामानव की कथनी-करनी को हथियाये जाने से रोकने के रास्ते हर हाल में तलाशने चाहिए. लोहिया को आशंका थी कि ऐसा हो सकता है और इसी आशंका के मद्देनजर उन्होंने 1963 में आगाह किया था कि : ‘ जब से भारत एक आजाद मुल्क बना है तभी से मठाधीशी गांधीवाद के खूंटे से सरकारी गांधीवाद का पगहा बंध गया है.’ ऐसा कहकर लोहिया याद दिला रहे थे कि अध्यात्म की मीठी-लुभावनी बातें कहने वाले गांधीवादियों और कांग्रेस पार्टी में मौजूद सत्ता के दलालों के बीच एक गठजोड़ चल रहा है. गांधी समय की अनंत शिला पर एक दंतहीन महामूर्ति बनाकर प्रतिष्ठित कर दिये गये, उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा सरकारी टकसाल से निकले करेंसी नोट पर सजा दिया गया और इस चक्कर में असली गांधी लोगों की याद्दाश्त की स्लेट से मिटते चले गये. आपातकाल के दौरान और उससे तनिक पहले के सालों में मठाधीश गांधीवादियों और सत्तासीनों के बीच रिश्तों में कुछ ऐसी चाशनी घुली हुई थी कि गांधी के विचार की सारी धार और नई पीढ़ी से उसका जुड़ाव एकदम ही कुंद होकर रह गया था.

और, ठीक इसी कारण गांधी के हत्यारे के वारिसों की बन आयी, उन्होंने महात्मा की विरासत पर अपना रंग चढ़ाया. महात्मा की विरासत पर चढ़ाये गये इसी रंग का नतीजा था कि साल 2002 के दंगे में साबरमती आश्रम के दरवाजे दंगा-पीड़ितों के लिए बंद हो गये थे- यह एक संकेत था कि महात्मा गांधी की विरासत अब उनके हत्यारों के वारिसों के हाथ में चली गई है. फिर बीजेपी ज्यों-ज्यों पहले गुजरात और फिर केंद्र में सत्ता पर काबिज होते गई, उसके लिए गांधीवादी संस्थानों को अपनी मुट्ठी में करना चुटकी बजाने सरीखा आसान होता गया. गांधी शांति प्रतिष्ठान और सर्वसेवा संघ जैसे चंद संस्थानों को अपवादस्वरुप छोड़ दें तो फिर नजर आता है कि गांधीवादी संस्थानों का विशाल नेटवर्क या तो ढहता चला गया या फिर वह सत्ता का मुखापेक्षी बनकर रह गया है. गांधी अब अपने चश्मे के शीशे और एक गंजे सिर में तब्दील होकर रह गये हैं, अब वे एक मुखौटा भर हैं जिसे जो चाहे अपने चेहरे पर लगा ले, जब चाहे उस मुखौटे के सहारे कैसा भी मजमा लगा ले. आज आप गांधी के मुखौटे का उपयोग शाकाहार को बढ़ावा देने के लिए सबसे हिंसक तरीके से कर सकते हैं. वे अब निहायत ही मासूम और सतही पर्यावरणवाद के इष्टदेव बनकर रह गये हैं. हां, अब गांधी स्वच्छ भारत मिशन के ब्रांड एम्बेस्डर भर हैं!

गांधी को बचाने का एकमात्र रास्ता: कुजात गांधीवाद

गांधी की जन्मशती का साल अगर उनके जीवन से सीख लेने का साल था तो फिर 150वीं जयंति का साल उनकी रूढ़ छवियों से खुद को मुक्त करने का साल होना चाहिए. बीसवीं सदी में एक-दूसरे की काट में खड़ी विचारधाराएं चाहे वो मार्क्वसवादी हों या आंबेडकरवादी अथवा ‘हिन्दुत्व’ की हुंकार भरने वाले —इन सबों ने गांधी की रुढ़छवियों का निर्माण किया है. गांधी के प्रशंसकों और उनके विरोधियों दोनों ही ने गांधी की छवि एक आशीर्वादी संत की बनायी है —गांधी की छवि कुछ ऐसी बना दी गई है कि उनकी तरफ जब देखो तब ही वे एक परंपराजीवी और पहले से खींची हुई लकीर पर चलने वाले रुढ़िपरस्त हिन्दू जान पड़ते हैं यानि एक ऐसा नायक जो हमारे वक्त की हकीकतों और भविष्य को संवारने के लिए हो रहे संघर्षों से एकदम ही अलग हो.


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गांधी की 150वीं जयंति मनाने का सबसे अच्छा तरीका है कि हम उनकी ऐसी छवि को तोड़ने की कोशिश करें. बेशक, गांधीजी शांतिवादी थे लेकिन अन्याय को सहन करते जाने की कीमत पर नहीं. उन्होंने लगातार कहा कि उत्पीड़न को घुटने टेक कर सहते जाने या कायरता दिखाने से कहीं बेहतर है हिंसा का सहारा लेना. गांधी के संदेशों का निरालापन इस बात में नहीं कि उन्होंने अहिंसा की पैरोकारी की बल्कि उनके संदेशों का निरालापन इस बात में है कि उन्होंने सकर्मक प्रतिरोध के एक साधन के तौर पर अहिंसा को बरता. वे शाकाहारी थे लेकिन ये भी सच है कि उनकी रसोई में खान अब्दुल गफ्फार खान के लिए मांस पका था. वे प्रकृति की रक्षा के हामी तो थे लेकिन उनका पर्यावरणवाद सिर्फ प्रतीक-पूजा तक सीमित ना था. वे आधुनिक सभ्यता के स्वभाव को बदलना चाहते थे जो असल में पर्यावरण के विनाश के मूल में है. उन्होंने पूर्व-आधुनिक सभ्यता की तरफ लौटने की हिमायत की लेकिन वे किसी भी अर्थ में परंपरावादी नहीं थे. गांधी की संवेदना, उनके तरीके और उनका संदेश हरचंद आधुनिक भावबोध से भरा था.

गांधी आखिरी दम तक हिन्दू ही थे लेकिन किसी रुढ़िपरस्त हिन्दू-धर्म से उतने ही दूर जितना कि कोई हो सकता है. उन्होंने किसी एक धर्मग्रंथ की हदों के भीतर बंधे रहना पसंद नहीं था, चाहे वह धर्मग्रंथ उनकी पसंदीदा गीता ही क्यों ना हो. छुआछूत को जायज ठहराने वाले धर्मग्रंथों के हजारों श्लोकों को वे एक किनारे करते हुए कह सकते थे कि इनमें वो हिन्दू धर्म तो है ही नहीं जो मेरी मां ने मुझे सिखाया था. उनका हिन्दू-धर्म निरंतर विकसनशील था. एक ऐसा व्यक्ति जो कभी वर्ण-व्यवस्था का समर्थक था, वही व्यक्ति सोच की अपने सरहदों पर पहुंचकर जाति-व्यवस्था की आलोचना करने वाला ऐसा गांधी बना कि दलित और गैर-दलित के बीच हो रही शादी के अलावा किसी अन्य विवाह-समारोह में जाना उसे गवारा ना था. गांधी हिन्दुओं में मौजूद श्रेष्ठता-ग्रंथि के विरोध में तो थे लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक-परस्त सेक्युलर राजनीतिज्ञों की जमात में शामिल होने से समान रुप से इनकार था. एक बड़े दंगे में हिंसा के जिम्मेदार समुदाय के रुप में मुसलमानों का नाम लेने के कारण उन्होंने अली बंधुओं से अपनी गहरी दोस्ती गंवाने का जोखिम उठाया. बाईबिल से उन्हें मोहब्बत थी लेकिन धर्म-परिवर्तन की कोशिशों की उन्होंने पुरजोर मुखालफत की थी.

गांधी के जीवन को संदेश के रूप में पढ़ें

गांधी की 150वीं जयंति के समारोहों के शोर के बीच उनके संदेश को बचाने और सुनने का शायद बेहतर तरीका यही है कि हम गांधी के जीवन को उनके संदेश के रूप में पढ़ें. बीते कुछ दशकों में जिन्होंने गांधी को गंभीरता से जानने-समझने की कोशिश की है, उन लोगों ने गांधी को एक लेखक के रुप में तब्दील कर दिया है लेकिन गांधी सिर्फ ‘लेखक’ भर ना थे. गांधी का लेखन उनके प्राथमिक लक्ष्य यानि राजनीतिक कर्म का सहयोगी उपकरण मात्र था. संभव है, गांधी अपने राजनीतिक कर्मों की बेहतर व्याख्या ना कर पाये हों. ऐसे में हमारा जिम्मा बनता है कि हम गांधी को उनके जीवन के भीतर खोजें और उन लोगों में तलाशें जो गांधी का बारंबर नाम चाहे ना लेते हों, जो चाहे गांधी से सहमत ना हों लेकिन जब कुछ करना होता है तो वही करते हैं जो गांधी अपने जीवित रहते आज करते.

अगर गांधी को ढूंढ़ना है तो हमें उन्हें शंकर गुहा नियोगी में ढूंढ़ना चाहिए जिन्होंने गांधी की शिक्षा को मार्क्स के सोच से जोड़ा था. गांधी के जीवन के मर्म को खोजना है तो हमें देवानूर महादेव के काम की तरफ देखना होगा जिन्होंने गांधी और आंबेडकर के बीच किसी एक को चुनने से मना कर दिया था. गांधी को खोजना है तो हमें कई दफे भारत की सरहदों के बाहर भी उन्हें खोजना होगा, वहां जाकर तलाशना होगा जहां किसी ने उनका नाम भी नहीं सुना.


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और इससे भी बढ़कर एक बात ये कही जायेगी कि हम गांधी के संदेशों को अपने देशकाल के हिसाब से बरतें. गांधी की बात करते हुए हम कश्मीर-घाटी में सांसत झेल रहे लाखों की कश्मीरियों के प्रति मूक दर्शक बनकर नहीं रह सकते. हम गांधी के नाम पर अहिंसा का उपदेश दें लेकिन भीड़-हत्या और नफरत की बुनियाद पर पलते ऐसे अन्य अपराधों के प्रति आंख मूंदे रहें, ये नहीं चल सकता. सत्य के महा-प्रतीक गांधी को याद करने के इस राष्ट्रीय समारोह में शामिल होकर अगर हम इस बात की अनदेखी करते हैं कि जो समारोह के मंच पर बैठे हैं दरअसल वे ही लोग झूठ और छल के सबसे बड़े उस्ताद हैं तो फिर समझिए हमसे गांधी के जीवन और उनके संदेश को अपने युग के हिसाब से बरतना ना आया.

लेकिन ये सब कर पाना आसान नहीं. गांधी-नाम की माला जपना आसान है लेकिन उनके पदचिन्हों पर गांधी-भाव से चलना बहुत मुश्किल. लोहिया ने हमें आगाह किया था कि :’ज्यादा जवाबदेही लीक पर घसीटने वालों की नहीं बल्कि लीक को तोड़कर चलने वालों की बनती है.’

(लेखकराजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

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