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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतजज लोया मामले में जल्दबाज़ी में उठाया गया कोई भी कदम सिर्फ अमित शाह को मज़बूत करने का ही काम करेगा

जज लोया मामले में जल्दबाज़ी में उठाया गया कोई भी कदम सिर्फ अमित शाह को मज़बूत करने का ही काम करेगा

महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने जज लोया मामले को दोबारा खोलने के संकेत दिए हैं. पर कोई चूक होने पर ये कदम उलटा पड़ जाएगा – राजनीतिक और कानूनी दोनों ही दृष्टियों से.

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महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने पिछले सप्ताह कहा था कि यदि नए सबूत पेश किए जाते हैं, तो शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार जज बीएच लोया की रहस्मय मौत के मामले की फिर से जांच कराने पर विचार कर सकती है.

सीबीआई की विशेष अदालत के जज लोया सोहराबुद्दीन शेख़ फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें वर्तमान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह एक आरोपी थे.

इस दुस्साहसिक कदम से हो सकता है शिवसेना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह को चुनौती देने का एक अवसर मिल जाए लेकिन जज लोया के विवादास्पद मामले को फिर से खड़ा करने में उद्धव ठाकरे सरकार की जल्दबाज़ी उल्टी भी पड़ सकती है – राजनीतिक और कानूनी दोनों ही दृष्टियों से.

वैसे, मंत्री देशमुख लोया मामले को फिर से खोले जाने का संकेत देने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं. उनसे पहले, एनसीपी प्रमुख शरद पवार भी कह चुके हैं कि ‘नए सिरे से शिकायत दर्ज कराए जाने और पर्याप्त सबूत पेश किए जाने’ पर मामले की दोबारा तहकीकात की जा सकती है.

जज लोया की कथित तौर पर दिल का दौरा पड़ने से 1 दिसंबर 2014 को मौत हो गई थी, और उनके परिजनों समेत कइयों ने उनकी मौत के पीछे षड़यंत्र का संदेह व्यक्त किया था और इस बारे में निष्पक्ष जांच की मांग की थी.

तो क्या इस मामले की पूरी तरह से जांच होनी चाहिए? हां. पर इसे लेकर कई रुकावटें हैं जो महाराष्ट्र सरकार की मंशा के परविर्तनकारी साबित होने में बाधक बन सकती हैं.

सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट रुख

अप्रैल 2018 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ की खंडपीठ ने जज लोया की नागपुर में हुई मौत की स्वतंत्र जांच का आग्रह करने वाली विभिन्न जनहित याचिकाओं को खारिज कर दिया था. जज लोया अपने एक सहकर्मी की पुत्री की शादी में नागपुर गए हुए थे.

सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने याचिकाओं को खारिज करने के फैसले का मुख्य आधार चार वरिष्ठ न्यायिक अधिकारियों के बयान को बनाया था. इन चारों ने महाराष्ट्र के गृह मंत्रालय के आदेश पर मामले की जांच कर रहे अधिकारी को बताया था कि जज लोया को ‘न्यायिक बिरादरी के अपने सहयोगियों की उपस्थिति में दिल का दौरा पड़ा था.’ चारों अधिकारियों ने आगे ये भी कहा कि ‘उन्होंने उन्हें बचाने के लिए चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने के हरसंभव प्रयास किए थे’ और उनकी ‘मौत प्राकृतिक कारणों से हुई थी’.

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा था कि चार प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों पर संदेह करने की कोई वजह नहीं है.
महत्वपूर्ण बात ये है कि मामले को बंबई उच्च न्यायालय को सौंपते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘जहां तक जज लोया की मौत से जुड़ी परिस्थितियों की बात है, तो उस बारे में मौजूदा मामले में उठाए गए सारे मुद्दे इस कोर्ट द्वारा सुनाए गए फैसले के अधीन माने जाएंगे’, और ‘जज लोया की मौत से जुड़ी परिस्थितियों जैसे मुद्दे जिन पर कोर्ट आज का फैसला सुनाते वक्त विचार कर चुका है, अब निपटाए जा चुके माने जाने चाहिए.’ और फिर जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के खिलाफ पुनरीक्षण याचिकाओं को भी खारिज कर दिया.

इसलिए, मामले की नए सिरे से जांच के किसी भी फैसले का आधार ऐसे वास्तविक सबूत होने चाहिए जो स्पष्टतया गड़बड़ियों की ओर इशारा करते हों. वरना, इससे अमित शाह और उनकी कानूनी टीम को शोर मचाने और जांच प्रक्रिया के पटरी पर आने से पहले ही उसे खत्म करने के हरसंभव प्रयास करने का मौका मिल जाएगा.


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प्राकृतिक कारणों से मौत

अपने 19 अप्रैल 2018 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्यजनक तौर पर कहा था कि ‘कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों से संकेत मिलता है कि जज लोया की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई थी’, और ‘यह कोर्ट मौत के कारण या परिस्थितियों को लेकर पर्याप्त संदेह और उसकी आगे और जांच किए जाने की आवश्यकता का कोई आधार नहीं पाती है’. अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि फैसले में कई बड़ी खामियां थीं. सबसे अहम खामी ये कि सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई अदालत की शक्तियों को अपने हाथों में ले लिया और सिर्फ ऐसी मौखिक गवाही के आधार पर मामले का निपटारा कर दिया जिसे कोई बढ़िया वकील आसानी से चुनौती दे सकता था.

भले ही मामले को निपटाने के तरीके को लेकर सुप्रीम कोर्ट से गंभीर सवाल पूछे जा सकते हों, पर आखिरकार मामला इस बात पर आ जाता है: फैसला भारत की सर्वोच्च अदालत का है, और इसके फैसले से असंगत किसी भी कदम का बहुत मजबूत कानूनी आधार होना चाहिए.

नई शिकायत दर्ज कराए जाने की ज़रूरत

यहां तक कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने भी इशारा किया है कि मामले को दोबारा खोले जाने के लिए ‘नए’ सबूतों वाली नई शिकायत की ज़रूरत होगी.

ऐसे मामलों में, शिकायत दर्ज कराने का मुख्य अधिकार कथित पीड़ित के निकट परिजनों का होता है. साथ ही, ‘सबूत’ इतना पुष्ट होना चाहिए कि जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी जा सके.

नए सबूत से आगे और तहकीकात किए जाने की आवश्यकता बनती है. दोबारा जांच कानून सम्मत नहीं है, पर ‘आगे और तहकीकात’ की अनुमति होती है. पर इसके लिए कड़े परीक्षणों से गुजरना होगा. चूंकि आरंभ में कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं कराई गई थी, इसलिए अब होने वाली कोई भी जांच पहली औपचारिक जांच होगी.

पर, प्राथमिकी दर्ज करने का कोई भी फैसला शिकायत के साथ जमा कराए जाने वाले साक्ष्यों की गुणवत्ता पर निर्भर करेगा. यदि पुलिस पुराने साक्ष्यों के आधार पर मामला दर्ज करती है, तो अमित शाह और उनकी कानूनी टीम के लिए इसे ‘सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी’ बताते हुए चुनौती देना बेहद आसान होगा.

शाह और भाजपा को खुद को पीड़ित साबित करने का मौका

मामले को दोबारा खोलने का कोई भी अधकचरा प्रयास भाजपा अध्यक्ष को खुद को पीड़ित बताने और महाराष्ट्र सरकार पर ओछी राजनीति करने का आरोप लगाने का अवसर देने का ही काम करेगा.

इसीलिए उद्धव ठाकरे सरकार को पूरी तत्परता से छानबीन करने और गहन कानूनी समीक्षा के बाद ही जज लोया मामले में आगे कोई कदम उठाना चाहिए.

वरना, ऐसे किसी कदम का राज्य सरकार और उसके गठबंधन सहयोगियों को खामियाजा उठाना पड़ सकता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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