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Wednesday, 20 November, 2024
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महागठबंधन एक भीड़ भरी ट्रेन है, जिसमें पासवान के लिए जगह नहीं है

रामविलास पासवान के कदमों से लगता है कि वे अपने विकल्प खुले रखना चाहते हैं. लेकिन क्या उनके सामने मौजूद दूसरे विकल्प के दरवाजे उनके लिए खुलेंगे?

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रामविलास पासवान सत्ता की दिशा में जा रही ट्रेन में सवारी करने के लिए जाने जाते हैं. आम तौर पर वे हर लोकसभा चुनाव से पहले सही फैसला कर पाते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में ठीक समय पर सरकार से वे अलग हो गए. गुजरात हिंसा जैसा वाजिब मुद्दा सामने आया तो उन्होंने सेकुलरिज्म का पक्ष लिया और अगली मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री बन गए. यूपीए-2 से भी वे समय पर अलग हो गए और नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री बन गए. पिछले तीन दशक में केंद्र की ज्यादातर सरकारों में वे मंत्री रहे हैं.

इसलिए भी सबकी निगाहें इस बात पर हैं कि वे 2019 से पहले रामविलास पासवान किस गाड़ी में सवार होते हैं.

मोदी सरकार में वे पिछले साढ़े चार साल से मंत्री हैं. उनके पास उपभोक्ता मामला और फूड का विभाग है. कहने को वे केंद्रीय मंत्री हैं, लेकिन जिस तरह से केंद्र में सत्ता का केंद्रीकरण प्रधानमंत्री कार्यालय में हो गया है, उसकी वजह से वे किसी बड़ी भूमिका में नहीं हैं. एक समय जिस आदमी के प्रधानमंत्री बनने की अटकलें लगाई जाती थीं. उनके लिए यह काफी नीचे उतर आने वाली बात है. प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह या एचडी देवगौड़ा के समय में रामविलास पासवान सबसे प्रभावशाली मंत्रियों में हुआ करते थे.


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मौजूदा सरकार में बीजेपी के अपार बहुमत के कारण वे मन मसोस कर किसी तरह मंत्रालय में टिके रहे. अपनी दलित राजनीति के लिए भी वे खास कुछ नहीं कर पाए. मंत्रालय में लिए गए उनके किसी भी एक फैसले की आज देश में चर्चा नहीं है. राजनीतिक दृष्टि से वे अपने मंत्रालय में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं कर पाए.

जब कभी उन्हें सरकार से नाराजगी दिखाने का मौका मिला, वे चूके नहीं. मिसाल के तौर पर मंत्री रहते हुए भी उन्होंने एससी-एसटी के प्रमोशन में आरक्षण का समर्थन किया. एससी-एसटी एक्ट में जब न्यायालय ने फेरबदल किया तो वे झंडा लेकर खड़े हो गए और आखिरकार सरकार को एक्ट को पुराने रूप में बहाल करना पड़ा. आरक्षण का सवाल हो या न्यायपालिका में कोलेजियम सिस्टम का विरोध, रामविलास पासवान ने अपनी आवाज कमजोर नहीं पड़ने दी.

जब एससी-एसटी एक्ट पर फैसला देने वाले जज आदर्श कुमार गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का चेयरमैन बनाया गया, तो रामविलास पासवान ने सरकार का खुलेआम विरोध कर दिया. अब उनके पुत्र चिराग पासवान ने सरकार से पूछ लिया है कि नोटबंदी के फायदों के बारे में उन्हें बताया जाए. साथ ही उन्होंने राममंदिर मुद्दे से सरकार को दूर रहने और विकास के एजेंडे पर बने रहने की नसीहत भी दे डाली है.

इन कदमों से ऐसा लगता है कि रामविलास पासवान अपने विकल्प खुले रखना चाहते हैं. लेकिन क्या उनके सामने मौजूद दूसरे विकल्प के दरवाजे उनके लिए खुलेंगे.

अभी बिहार में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के खिलाफ जो महागठबंधन शक्ल ले रहा है, उसमें आरजेडी, कांग्रेस, उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, शरद यादव, जीतन राम मांझी की हम पार्टी, सीपीआई, सीपीएम और भाकपा माले हैं.


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इसमें से कम से कम आधी सीट तो आरजेडी अपने लिए चाहेगी क्योंकि वह महागठबंधन की धुरी है. इसके बाद कांग्रेस को भी अच्छी संख्या में सीट चाहिए. उपेंद्र कुशवाहा और शरद यादव मिलकर छह से कम सीट के लिए तैयार नहीं होगे क्योंकि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने पिछले चुनाव में तीन लोकसभा सीटें जीती थीं. ऐसे में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में महागठबंधन के पास रामविलास पासवान को देने के लिए शायद ही कोई सीट बचे.

रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी ने 2014 में छह लोकसभा सीटें जीती थीं. इतनी सीटें उन्हें एनडीए में भी शायद ही मिले. कुल मिलाकर, उनके लिए 2019 की राह आसान नहीं है.

अब वे अपने पुराने शानदार दौर की परछाईं मात्र रह गए हैं. उनके नाम पर दलित समुदाय में पहले जैसी गोलबंदी भी नहीं होती. एनडीए के साथ रहने से उनका दलित राजनीति वाला पक्ष भी कमजोर पड़ा है. साथ ही उनकी उम्र भी हो चली है. लेकिन ये कोई पहला मौका नहीं है, जब रामविलास पासवान राजनीतिक उलझन में फंसे हैं. अब तक उन्होंने ऐसी उलझनों से निकलने का कोई न कोई रास्ता निकाल लिया है. 2019 उनकी अगली परीक्षा है.

रामविलास पासवान चौंकाने वाले फैसले लेने वाले राजनेता हैं. इसलिए नजर रखिए भारतीय राजनीति के इस महत्वपूर्ण किरदार पर.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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