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Monday, 23 December, 2024
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बिहार में मायावती के 40 सीटों पर ताल ठोकने से बदल सकती है चुनावी तस्वीर

राजद नेता तेजस्वी यादव को कभी जीतन राम माझी, तो कभी कांग्रेस झटके दे रही है. लेकिन सबसे अप्रत्याशित झटका बसपा प्रमुख मायावती ने बिहार की सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला करके दिया है.

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एक कॉमेडी फिल्म में चरित्र अभिनेता सतीश कौशिक का डायलॉग है कि ‘मैं एक परेशान डायरेक्टर हूं, हीरो टाइम पर नहीं आता, प्रोड्यूसर के पास पैसे नहीं हैं और हीरोइन कहती है कि मैं पूरे कपडे़ पहनूंगी’ कुछ यही हाल आजकल बिहार महागठबंधन के सूत्रधार और उसके मुख्य कर्ता-धर्ता तेजस्वी यादव का है. राजद नेता तेजस्वी यादव को कभी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) सुप्रीमो जीतन राम माझी तो कभी कांग्रेस झटके दे रही है, लेकिन अभी हाल में उन्हें सबसे अप्रत्याशित झटका बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने यह कहकर दिया कि बसपा बिहार की सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

और फिर क्या था सोशल मीडिया से लेकर टेलीविजन तक सभी जगह तेजस्वी की मायावती का पैर छूते तस्वीर दोबारा से वायरल होने लगी. इसी उम्र में जबर्दस्त राजनीतिक परिपक्वता पा लेने वाले इस नेता ने बड़ी परिश्रम और व्यवहार कुशलता से महागठबंधन के सभी दलों को इकठ्ठा कर लिया है, जिसको बिहार में मजबूत भी माना जा रहा है, लेकिन मायावती ने उनके अरमानों पर कठोर बर्फीली चादर डाल दी है जिसे पिघलाना उनके लिए कुछ मुश्किल हो रहा है.


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लेकिन बिहार में राजनीति करने वाले नेताओं और समीक्षकों की राय अलग–अलग है. वर्तमान गोपालगंज भाजपा सांसद और बिहार में पूर्व बसपा उपाध्यक्ष रह चुके जनक राम मायावती के बारे में कहते हैं कि ‘बिहार के अनुसूचित जाति वर्ग पर अपना एकाधिकार जो समझती थीं वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आने से टूट गया है, पहले यहां बसपा को लगभग 5 प्रतिशत के करीब वोट मिलता था, लेकिन दलित वर्ग की आस्था अब नरेन्द्र भाई मोदी में हो गई है, कांशीराम की विचारधारा को दरकिनार करते बहन जी कांग्रेस से गलबहियां करती रहीं हैं, लेकिन जब देश के दलितों को लगा की मान्यवर कांशीराम की सोच को बहन जी नहीं, बल्कि मोदी जी पूरा कर रहे हैं तो दलित अब मोदी जी के साथ हैं.’

दूसरे राज्य से होने के बावजूद पहले बसपा की राजनीतिक गति बिहार में संतोषजनक थी, लेकिन 2010 के बाद से स्थिति बदली है, फिर मायावती की अपनी कार्यप्रणाली भी पार्टी के लिए घातक साबित हुई है. बिहार में दलितों पर अपना एकाधिकार समझने वाली पार्टी लोजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता अजय कुमार कहते हैं ‘दलितों के नाम पर न केवल सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार और ठगी मायावती द्वारा होती रही है बल्कि दलित हितों पर सबसे ज्यादा प्रहार भी मायावती स्वयं करती हैं तो साथ में संवैधानिक संस्थाओं की हत्या भी करती हैं, और बिहार के सन्दर्भ में तो वो पहले ही क्लीन बोल्ड हो चुकी हैं, अभी 12वें नम्बर की भी खिलाड़ी नहीं हैं.

उन्हें समझना चाहिए कि बिहार की जनता भोली जरूर है पर बेवकूफ नहीं है.’ महागठबंधन में इससे कुछ घबराहट हो सकती है, लेकिन भाजपा बिलकुल निश्चिंत है, बिहार भाजपा उपाध्यक्ष डॉ संजय जायसवाल का कहना है कि ‘बिहार में इस बार सेंधमारी कहीं नहीं होगी. हमलोग 51 प्रतिशत से ऊपर की राजनीति कर रहे हैं. सामने एक दल हो या 10 हमारी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा.’ भारतीय राजनीति में सबसे ज्यादा सम्मान पाने की चाहत होती है तो भला बसपा कैसे इससे अलग रहेगी.

बिहार बसपा अध्यक्ष भरत बिन्द और लोजपा के अजय कुमार और भाजपा के जनक राम से अलग राय रखते हुए कहते हैं कि बिहार की जनता पहले भी बसपा में विश्वास जताती रही है. हमारा वोट प्रतिशत बेहतर रहा है, लेकिन महागठबंधन से उस तरह का सम्मान नहीं मिल पाया है, जिसकी आकांक्षा रही है. ऊपरी स्तर पर बिना किसी बातचीत के मीडिया में एक सीट की बात आ रही है जो स्वीकार्य नहीं है.

तेजस्वी यादव जी ने बहन जी से आशिर्वाद जरूर लिया है लेकिन सीटों के मामले में वह सम्मान नहीं दिखा, जिसकी आशा थी वैसे राजनीति संभावनाओं का खेल है, जिसमे अंतिम कुछ भी नहीं होता.’ मायावती की नजर बिहार में लगभग डेढ़ करोड़ दलित जनसंख्या की 18 प्रतिशत वोटरों पर है, साथ ही अपनी पार्टी को पुनः राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा करना चाहती हैं कि शायद महागठबंधन में किसी कारण कोई लॉटरी लगे और वो प्रधानमंत्री बन सकें.

अखिलेश यादव भी कई बार कह चुके हैं कि इस बार प्रधानमंत्री नया होगा. इसलिए यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि शायद मायावती संभवतः स्वयं को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर सकती हैं. कुछ विशेष कारण हैं, जिसकी बदौलत मायावती बिहार पर फोकस कर रही हैं. 1995 से 2005 तक विधानसभा में उन्हें सीटें मिलती रही हैं: 1995 में बसपा को बिहार में जहां 2 सीटें मिली थीं तो 2000 में 5 सीटें मिल चुकी हैं. फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में उसे 2 सीटें मिलीं तो फिर से अक्टूबर 2005 के चुनाव में 4 सीटें मिली. लेकिन उत्तोरत्तर बसपा की स्थिति वहां कमजोर होती गयी. बिहार विधानसभा चुनाव 2010 में पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया था जबकि उसने कुल 243 सीटों में से 239 पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. वोटों में भी उसकी हिस्सेदारी घटकर 3.21 प्रतिशत रह गई थी, लेकिन राज्य की छठी सबसे बड़ी पार्टी भी बनी थी. वैसे किसी भी पार्टी का चुनावी गणित बनाने-बिगाड़ने में तीन प्रतिशत वोट की अहम भूमिका हो सकती है.

जनाधार सीटें दोनों बढ़ाने पर जोर: बिहार की राजनीति बदल रही है. नए दल और नए जमातों का प्रवेश हो रहा है. बिहार में वामपंथी पार्टियां भी सिमट रही हैं, जिसमें निचले स्तर पर पार्टी को पैदल सेना उपलब्द्ध कराने का काम दलित और महादलित ही करते थे, उस स्थान को भरना भी बसपा का एक उद्देश्य है. जिसका लाभ बसपा को राष्ट्रीय फलक पर स्वयं को फैलाने में मिल सकेगा. बसपा का प्रभाव कैमूर, बक्सर, सासाराम, बेतिया, बगहा और गोपालगंज जैसे क्षेत्रों में तथा अधिक दलित वोटों वाले चुनावी क्षेत्रों पर रहा है, जहां उसे लगभग 50 हजार से डेढ़ लाख तक वोट आते रहे हैं.

महागठबंधन और एनडीए दोनों के वोटों में सेंधमारी होगी: बिहार में दलित वोटों की दरकार न केवल महागठबंधन में, बल्कि एनडीए को भी समान रूप से हैं, अगर महागठबंधन में दलितों की भारी आबादी वाली जीतनराम माझी की हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा और ‘सन ऑफ़ मल्लाह’ मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी है तो भाजपा के साथ लोजपा भी है. बसपा आरक्षित सीटों के अलावा सामान्य सीटों पर भी संगठन को मजबूत कर रही है. ब्लॉक स्तर से लेकर जिला स्तर तक कार्यकर्ताओं की मजबूत टीम तैयार हो रही है, जिससे महागठबंधन के सदस्यों में कुछ उदासीनता तो है ही.

असंतुष्ट उम्मीदवारों को जगह दे सकती है बसपा: राजनीतिक दलों के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता पांच साल तक चुनाव का इंतजार करते हैं, लेकिन कई बार अंतिम समय में टिकट किसी और दल से आये पैरासूटर व्यक्ति को मिल जाता है. ऐसे में बसपा की नजर असंतुष्टों पर होगी. क्योंकि महागठबंधन और एनडीए दोनों जगह टिकटों के लिए घमासान है. ऐसे में मजबूत असंतुष्टों को बसपा टिकट दे सकती है. वैसे महागठबंधन के नेताओं की आस अब भी बसपा सुप्रीमो से लगी है कि वो अपने निर्णय पर विचार करें. उन्हें अपनी मजबूत स्थिति का भान है, लेकिन बसपा के इस कदम से उनके कुछ प्रतिशत वोट बिगड़ सकते हैं जो हितकर नहीं होगा.

वीआईपी पार्टी के मुकेश सहनी का कहना है कि ‘हमारा प्रयास होगा कि बहन जी गठबंधन में आयें, जब देश में दलित, महादलित, पिछड़ा अति पिछड़ा वर्गों के सम्मान के लिए लडाई लड़ी जा रही है तो उनके अकेले लड़ने से कुछ प्रतिशत वोटों का नुकसान होगा, लेकिन अगर वो हमारे साथ आती हैं तो हम लोग भी यूपी में बिना किसी शर्त उनकी मदद करेंगे, क्योंकि सभी का कुछ न कुछ वोट वहां भी है. बाकी निर्णय उन्हें करना है’


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चुनाव की इस घड़ी में एक-एक वोट को अपने पाले में करने के लिए राजद तो प्रार्थना की मुद्रा में है. राजद के राज्य सभा सांसद मनोज झा ने अपनी पार्टी और महागठबंधन की ओर से कहा कि ‘अगर यह सत्य है तो हम बहन जी से आग्रह करेंगे कि इस चुनाव की गंभीरता जहां सामजिक न्याय लगातार हमले का शिकार हो रहा है वहां सबको साथ रहने की जरूरत है. हमारी अपील होगी एक बार पुनर्विचार करें और चुकीं राजद बिहार में सामजिक न्याय की लड़ाई की केन्द्रीय भूमिका में है इसलिए हमे आशिर्वाद और शुभकामनायें दें. बिहार महागठबंधन के तर्ज पर पूरे देश में विभिन्न पार्टियों में गठबंधन हो रहे हैं, लेकिन अगर बिखराव यहीं से शुरू होता है तो सभी जगह इसका संदेश जाना अपरिहार्य है जो कथित रूप से ‘संविधान बचाओ मोर्चा’ और सेक्युलर पार्टी वालों के लिए अस्वास्थ्यकर होगा.’

(लेखक पत्रकार और मीडिया प्रशिक्षक हैं)

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