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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतसोनम वांगचुक की बात में दम है पर क्या भारत के पास चीन को आर्थिक चोट पहुंचा पाने की क्षमता है

सोनम वांगचुक की बात में दम है पर क्या भारत के पास चीन को आर्थिक चोट पहुंचा पाने की क्षमता है

अब समय आ गया है कि क्विट इंडिया पार्ट टू अपनाया जाए और मेड इन इंडिया की कोशिश की जाये. कोविड ने देश की जनता को स्वावलंबन का एक और मौका दिया है- क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

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इंजीनियर से इनोवेटर बने सोनम वांगचुक ने हाल ही में एक पते की बात कही है. उन्होंने कहा कि चीन से निपटना है तो उसकी अर्थव्यवस्था पर हमला बोलना पड़ेगा. चीन पैसे की भाषा को अच्छे से समझता है. साथ ही उनका कहना था कि लद्दाख में चीन की घुसपैठ की कोशिश से तो सेना निपट लेगी पर भारत में जो वो घुसपैठ कर रहा है उससे आम जनता के सहयोग से निपटा जा सकता है.

उनका कहना है कि सेना बुलेट से जवाब देगी और हम वालेट से. उन्होंने कहा कि भारत वासियों को स्वदेशी अपनाना चाहिए.

सोनम वांगचुक, आमिर खान की फिल्म थ्री इडियट्स  में रैन्चों के किरदार का इंस्पीरेशन थे. वे लगातार ट्वीट कर चीन को जवाब देने की बात कर रहे हैं और कुछ सेलिब्रिटीज जैसे मिलिंद सोमन ने उनकी बात का समर्थन भी किया है.

ये बात तय है कि इसके मूल में जो भावना है वो चीन के प्रशासन के रवैये के कारण बार-बार भारत में उठती रहती है. पहले भी डोकलाम विवाद के वक्त देश में चीन के खिलाफ एक माहौल बना था. बाबा रामदेव ने चीनी सामान के बॉयकॉट की बात कही थी. पर किसी भी लत से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं है. भारत को भी चीन के सामान की लत पड़ गई है. भारत ही नहीं बल्कि दुनिया का शायद ही कोई मुल्क होगा जहां मेड इन चाइना का बोलबाला न हो. सुई से लेकर कपड़े तक, मोबाईल से लेकर फ्रिज टीवी तक, हर घर में चीन ने अपनी जगह बनाई है. और सस्ते चीनी सामान का नशा देश की जेब खाली कर रहा है और ड्रेगन की इतनी ताकत बढ़ा रहा है कि वो आंखे तरेर सके.


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चीन के बढ़ते दबदबे का कारण

चीन के बढ़ते प्रभाव के लिए उसकी उर्जा, उसकी दूरदर्शिता, उसके लोगों के परिश्रम के अलावा वहां के प्रशासन व्यवस्था की भी भूमिका को मानना पड़ेगा. चीन में सोच रही है कि अगर पेट भरा हो और जेब में पैसा हो तो जनता को क्रांति की सुध नहीं रहती. लोकतंत्र वहां है नहीं इसलिए नियम कायदे बिना जनता की राय के बन भी सकते हैं और लागू भी हो सकते हैं.

याद रहे कि चीन में तियानमेन स्क्वेयर में चार जून को ही 1989 में छात्र आंदोलन को कुचला गया था जिसके बाद से वहां किसी बड़े विरोध के स्वर नहीं उभरे या दुनिया ने उसकी फिक्र नहीं पाली क्योंकि चीन की शक्ति और प्रभाव क्षेत्र उसकी आर्थिक संपन्नता के साथ बढ़ा ही है.

चीन ने कम कीमत में माल बनाने का गुर अपनाया है जो किसी भी देश का उद्योग नहीं कर पा रहा है. बाज़ार में किस चीज़ की मांग है उसपर नज़र रखना, उसको बड़ी संख्या में बहुत जल्दी और बहुत सस्ते में पहुंचाना- ये चीन का हुनर बन गया है. चाहे वो दिवाली की लाइट हो या आपके घर के मंदिर में गणेश जी की मूर्ति.

जरा सोचिए क्या इन चीनी उत्पादों के बिना आपका जीवन चल नहीं सकता. क्या आपकी पीतल की पिचकारी और मिट्टी के दीयों की लौ में त्यौहारों का मजा कुछ कम था. क्या आपके देश में बने पंखों की हवा और कूलर आपको कम ठंडक दे रहे थे.

इन सारे रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाले सामान के बाजार को चीन के कब्जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण वहां की सरकार के उसके उद्योग को पूरी सहूलियत देना रहा. श्रम कानून हो या सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं- न केवल वहां का उद्योग पनपा बल्कि भारत की कई कंपनियां भी वहां अपना सामान बनाने पहुंच गईं. उषा के पंखे हो या डॉ रेड्डीज की दवाईंयां… ये लिस्ट बहुत लंबी है.

जो भारतीय कंपनिया चीन के शंघाई जैसे शहरों में पहुंची उनका मानना है कि क्वॉलिटी, स्थानीय प्रशासन से संबंध और स्थानीय कर्मचारियों की योग्यता को वे चीन में अपनी सफलता की सबसे अहम कुंजी मानते हैं.

भारत की बड़ी कंपनियां जो चीन में है उनमें फार्मा से लेकर, आईटी, उर्जा, सीमेंट, पैकेजिंग सभी तरह के उद्योग शामिल हैं. क्या हम मेड इन चाइना को इसी फार्मूले से पछाड़ नहीं सकते? देश में ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर बनाए कि किसी टाटा, महिंद्रा, डॉ रेड्डीज़, रिलायंस को चीन की राह न पकड़नी पड़े?


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कहां पिछड़ा भारत

पर भारत में सरकारे आईं और गईं- विकास एजेंडे पर नहीं रहा और जब से थोड़ी बहुत विकास की बात शुरू हुई तो मेक इन इंडिया पर जोर दिया गया पर ये भी भारत की पंचवर्षीय योजना के माइंडसेट की मार खा गया. मोदी ने वोकल अबाउट लोकल पर जोर दिया तो सेना के कैंटीन में स्वदेशी सप्लाई की बात उठी. 1000 से ज्यादा आइटम की लिस्ट आई पर उसे वापस लेना पड़ा. लिस्ट में कई भारतीय कंपनियां भी शामिल थी. वे विदेशी माल को बस भारत में पैकेज कर लेबल कर रहे थे! और ये भी एक इशारा था कि भारत में मैनुफैक्चरिंग किस हाल में है.

भारत ने विशेष आर्थिक ज़ोन बनाए पर वहां भी बिजली-पानी की दरों, स्थानीय सरकारों के नियम कायदों ने उनको उतना पनपने नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए. भूमि अधिग्रहण करना, पर्यावरण क्लियरेंस लेना, सरकारी लाल फीताशाही से जूझना और कनेक्टिविटी और क्वॉलिटी इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी के साथ-साथ हमारी समाजवादी सोच ने भारत में श्रम कानून सुधार को रोक कर रखा.

सरकारें कभी कड़े फैसले नहीं ले सकीं क्योंकि ये मजदूर हितों के खिलाफ रहे और श्रम सुधार की कोशिशों को अदालती दावपेंच का सामना करना पड़ा. सिंगल विंडो क्लियरेंस जैसे वादे जमीन पर कभी कारगर नहीं दिखे. भारत की इज ऑफ डूइंग बिजनेस की रैंकिग ही देख लीजिए जिसमें सुधार तो आया है पर आज भी भारत इस टेबल में बहुत नीचे है.

चीन के सामान से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं

अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां जो कोविड-19 के बाद चीन से बाहर निकलना चाहती हैं भारत उनको अपने देश में आकर्षित करना चाहता है. हालांकि नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को शक है कि ये फायदे का सौदा होगा. उनका तर्क है कि चीन की जेब इतनी गहरी है कि वो अपने उत्पादों की कीमत को कम कर देगा और फिर उससे प्रतिद्वंदिता कर पाना मुश्किल होगा. पर एक बात सोचने की है कि दुनिया भर में इस समय जो सेंटिमेंट चीन के खिलाफ है उसका फायदा उठा कर कंपनियों को मेक इन इंडिया की ओर आकर्षित करने का समय आ गया है. और जब लोहा गर्म है तो वार किया जाना चाहिए. कम से कम कोशिश तो की ही जानी चाहिए.

वैसे भी देश के स्तर पर कंपनियों पर रोक लगाना या आयात पर प्रतिबंध मुश्किल होता है क्योंकि दुनिया वैश्विक व्यापार संधियों के तहत काम करती है. अगर चीन को पछाड़ना है तो सस्ते की जुगत और लत दोनों को छोड़ना होगा. उसकी जेब को निशाना बनाना होगा. अपने साबुन और टूथपेस्ट से शुरू कर अपने बिस्तर गद्दों पर सोने से पहले सोचना होगा कि इसमें से कौन से मेड इन चाइना के बिना हम रह सकते हैं. कुछ-कुछ वैसे जेसे लोग फेयर ट्रेड का, या ऑर्गेनिक का या गोइंग लोकल का अनुपालन कर के करते हैं.

जिस लैपटॉप पर आप काम करते हैं और जिस मोबाइल पर आप बात करते हैं, क्या उनको छोड़ना संभव है. क्या समय आ गया है कि आप धीरे-धीरे अपने जीवन को स्वदेशी की ओर ले जाए और एक देश पर निर्भर होना छोड़े ताकि चीन की इस चुनौती से निपट सकें.

बाकी ड्रेगन से भारत का व्यापार घाटा 2019 के जनवरी-नवंबर के बीच 51.68 बिलियन डॉलर था. ये अपने आप में सोचने लायक बात है कि कैसे इस व्यापार असंतुलन को पाटा जाये.


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चीन का विरोध नहीं, चीनी सामान का विरोध हो जो चीन को ताकत देता है कि वो किसी भी देश की भूमि हथियाए, या नव उपनिवेशवाद (नियो कोलोनियलिज्म) फैलाए. भारत तो जेब पर मार कर ब्रिटिश शासन को भी पाठ पढ़ा चुका है तो फिर वही तरीका आज क्यों न अपनाया जाए ताकि देश कोरोना काल में आहत हुई अर्थव्यवस्था को फिर स्वस्थ कर सके.

सोनम वांगचुक ने मन में विचार का बीज बोया है पर इस विचार को हर भारतीय को सींचना होगा ताकि रोज़गार और स्वावलंबन दोनों बचाए रखे जा सकें. जो प्रवासी मज़दूर अपने गांव देहात गए हैं उनके जीवन को पटरी पर लाना है और उनके कमाने खाने में मदद करनी है तो वो देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत किए बिना हो नहीं पायेगा. अब समय आ गया है कि क्विट इंडिया पार्ट टू अपनाया जाए और मेड इन इंडिया की कोशिश की जाये. कोविड ने देश की जनता को स्वावलंबन का एक और मौका दिया है- क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

(व्यक्त विचार निजी हैं)

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