देश के छोटे हथियार निर्माण उद्योगों के बीच ‘आत्मनिर्भरता’ को बढ़ावा देने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी दशकों पुरानी 9 एमएम ब्रिटिश स्टर्लिंग 1ए1 सबमशीन गन को बदलने के लिए कार्बाइन खरीदने की प्रक्रिया नए सिरे से शुरू की है—जो प्रोजेक्ट इससे पहले 2008 में शुरू हुआ था. रक्षा मंत्रालय ने करीब चार लाख हथियारों की खरीद के लिए एक्सेप्टेंस ऑफ नेसेसिटी (एओएन)—जिसे किसी भी रक्षा खरीद प्रक्रिया में पहला कदम माना जाता है—जारी किया है. यह रक्षा उद्योग के लिए बड़ा सौदा है और सुनिश्चित करेगा कि भारतीय कंपनियों को इसका लाभ मिले.
हालांकि रक्षा मंत्रालय इस पर चुप्पी साधे है कि यह खरीद बाय इंडियन श्रेणी के तहत से होगी या स्वदेशी रूप से डिजाइन, विकसित और निर्मित (आईडीडीएम) श्रेणी के रास्ते से. लेकिन रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि यह बाय इंडियन श्रेणी के तहत होगी. आईडीईएम के तहत प्रतिस्पर्द्धा केवल तीन फर्मों के बीच होती है जिसमें शामिल होने वाली एकमात्र निजी फर्म बेंगलुरु स्थित एसएसएस डिफेंस होगी जो एम 72 नाम के स्वदेशी कार्बाइन के साथ सामने आई थी. दो अन्य प्रतिस्पर्द्धी रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और ऑर्डनेंस फैक्टरी बोर्ड होते हैं.
लेकिन भारतीय उत्पाद खरीदें यानी बाय इंडियन श्रेणी में अच्छी बात यह है कि यह उन कंपनियों को प्रतिस्पर्द्धा में शामिल होने का मौका देती है जिन्होंने अपने प्लांट भारत में स्थापित कर रखे हैं या मूल रूप से किसी विदेशी उपकरण निर्माता (ओईएम) के सहयोग से ऐसा करने की प्रक्रिया में हैं. उदाहरण के तौर पर, पीएलआर सिस्टम्स, जो अब अडानी समूह का हिस्सा है और जिसका इजरायली वीपन इंडस्ट्री (आईडब्ल्यूआई) के साथ करार है और इसमें ‘मेड इन इंडिया’ टैग के साथ छोटे हथियारों का निर्माण किया जा रहा है.
ऐसी अन्य कंपनियां भी हैं, जो पहले ही किसी विदेशी ओईएम के साथ करार कर चुकी हैं और देश में संयंत्र स्थापित कर चुकी हैं या ऐसा करने की प्रक्रिया में हैं. इसमें कल्याणी समूह भी शामिल है जिसका फ्रांसीसी फर्म थेल्स के साथ टाई-अप है लेकिन उसकी डीआरडीओ के साथ भी बातचीत चल रही है; जिंदल समूह, जिसका ब्राजील की एक फर्म टॉरस एंड नेको डेजर्ट टेक के साथ करार है जो भारतीय और अमेरिकी फर्मों के बीच एक ज्वाइंट वेंचर है.
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प्रक्रिया मायने रखती है
यहीं पर भारत के लिए एक रेखा खींचना जरूरी होगा. रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल (आरएफपी), जिसे निविदा भी कहा जाता है, में इस बात का उल्लेख होना चाहिए कि ऐसी कंपनियों को वरीयता मिलेगी. यह कोई ग्लोबल आरएफपी नहीं हो सकता जिसमें दुनियाभर की कई कंपनियां अपने उत्पादों की पेशकश करती हैं और साथ ही प्रतिबद्धता जताती हैं कि करार होने के बाद वे भारत में निवेश करेंगी. ग्लोबल आरएफपी उन फर्मों के साथ पक्षपात होगा जो पहले ही विनिर्माण सुविधा स्थापित करने के लिए अपना काफी पैसा और समय लगा चुकी हैं और ऑर्डर का इंतजार कर रही हैं.
एसएसएस डिफेंस ऐसा ही एक उदाहरण है. इसके पास छोटे, स्वदेशी हथियार उत्पादों की एक बड़ी श्रृंखला है, लेकिन अभी तक सैन्य या पुलिस बलों की तरफ से कोई ऑर्डर नहीं मिला है. यह प्रक्रिया आगे बढ़नी ही है क्योंकि तमाम पुलिस बलों की तरफ सिस्टम को आजमाए जाने के साथ वे बोली और प्रतिस्पर्धा में हिस्सा ले रहे हैं. उम्मीद है कि अपने हथियारों को और बेहतर बनाने के लिए भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के साथ मिलकर काम करने वाली यह स्वदेशी फर्म वास्तव में कोई कांट्रैक्ट हासिल कर पाएगी.
एक अन्य उदाहरण पीएलआर सिस्टम्स है, जो स्थानीय रूप से भारत में सबसे अच्छे इजरायली हथियारों का निर्माण कर रही है. इनका उपयोग सशस्त्र बल और यहां तक कि राज्य पुलिस बल भी करते हैं. इन हथियारों को तब खरीदा गया था जब ज्वाइंट वेंचर नहीं बना था लेकिन सेना की तरफ से पूर्व में किए गए किसी भी करार के तहत जारी कोई भी ऑर्डर जारी करने का मतलब होगा, इसका इजरायली कंपनी के पास जाना.
जैसा पहले बताया जा चुका है, ऐसा इसलिए क्योंकि अगर पीएलआर सिस्टम्स को कोई ऑर्डर दिया जाता है तो कंपनी का नाम बदल जाएगा और इसका मतलब होगा कि एक नई खरीद प्रक्रिया. इसलिए सशस्त्र बल सीधे आईडब्ल्यू को नया ऑर्डर देते हैं, जो इजरायल में हथियारों का निर्माण करती है और उन्हें भारत भेजती है.
सेना तो आईडब्ल्यूआई की तरफ से आपूर्ति वाली एलएमजी को शामिल कर रही है, वो भी तब जबकि ज्वाइंट वेंचर कई ‘मेड इन इंडिया’ एलीमेंट के साथ स्वदेशी हथियार बनाने में सक्षम है. तो फिर आखिर पीएलआर सिस्टम्स क्या कर रही है? जाहिर है, ये फर्म नई निविदाओं में हिस्सा ले रही है और ऑर्डर मिलने का इंतजार कर रही है.
पीएलआर सिस्टम्स की तरफ से गैलिल ऐस 21 कार्बाइन उतारने की संभावना है जो अब भारत में निर्मित हो रही है. दिलचस्प बात यह है कि ऐस 21 को सेना ने कार्बाइन खरीदने के पिछले प्रयास (2013-14) के दौरान चुना था, लेकिन भारतीय रक्षा खरीद नियमों के तहत एकल विक्रेता की स्थिति ने सौदा नहीं होने दिया. सिंगल वेंडर की स्थिति सौदे को आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं देती. ऐसे में उन कंपनियों को भी प्रोत्साहित करना जरूरी है जो पहले ही कार्बाइन सौदे के लिए भारत में निवेश कर चुकी हैं.
जैसा स्वाभाविक भी है, भारत की करीब चार लाख कार्बाइन खरीदने की योजना की खबर लगते ही कई विदेशी और घरेलू कंपनियां टाई-अप की कोशिश तेज कर सकती हैं. लेकिन उनका वास्तविक निवेश और काम इस पर निर्भर करेगा कि उन्हें कांट्रैक्ट मिलता है या नहीं. इसलिए यह उन कंपनियों के साथ पक्षपातपूर्ण होगा जो पहले ही निवेश कर चुकी हैं और उन ग्लोबल प्लेयर के विपरीत यहां हथियार निर्माण कर रही हैं जिन्होंने अभी तक यहां कोई निवेश नहीं किया है.
व्यक्त विचार निजी हैं.
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