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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमत'मौनमोहन' पर तंज करने वाले मोदी खुद अकबर पर मौन हैं

‘मौनमोहन’ पर तंज करने वाले मोदी खुद अकबर पर मौन हैं

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जिन घटनाओं पर विवाद हुए और जनता में गुस्सा भड़का, मोदी ने उनपर चुप्पी साध ली, लेकिन वे उन मुद्दों पर ज़रूर बोलते हैं जो लोगों के दिमाग को उत्तेजित करें.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई, 2014 में जब पद संभाला था तब यह माना जा रहा था कि वे नई दिल्ली में नये हैं. लोग यह मानकर चल रहे थे कि सरकार कैसे चलती है, इसकी बारीकियां समझने में उन्हें एक या दो साल लग जाएंगे. लेकिन एक महीना प्रधानमंत्री आॅफिस में बिताने के बाद उन्होंने यह जता दिया कि उनके दिमाग में ऐसा कुछ नहीं था कि उन्हें केंद्रीय कुर्सी की बारीकियां समझने में समय लगना है. लुटियन दिल्ली में जो सांप-सीढ़ी का खेल चलता है, मोदी ने उसे समझने-सुलझाने में बिल्कुल समय नहीं लिया.

तबसे चार साल हो चुके हैं. मोदी इस खेल के ऐसे माहिर खिलाड़ी हैं कि यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि उनका अगला कदम क्या होगा. जो टीवी चैनल और अखबार एमजे अकबर का राजनीतिक स्मृतिशेष लिखने की हड़बड़ी में थे, उनके बारे में क्या कहा जाए!

ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि एमजे अकबर #मीटू आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता होंगे, लेकिन उन्होंने खुद पर लगे यौन उत्पीड़न के सभी आरोपों को खारिज कर दिया और कुछ महीने बाद लोकसभा चुनाव का हवाला देकर इसे राजनीतिक रंग दे दिया. इस मामले का निर्लज्जता से सामना करने के अकबर के फैसले, जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह का फैसला कहना चाहिए, से हैरानी नहीं होनी चाहिए. आखिरी बार यह कब हुआ जब मोदी और शाह ने विपक्ष के दबाव में अपने किसी भरोसेमंद की कुर्बानी दी हो?


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दिसबंर, 2005 में यूपीए-1 के समय तेल के बदले अनाज घोटाले में नटवर सिंह का नाम आने के बाद उनकी कुर्बानी देकर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने अपनी अतिसंवेदनशीलता दिखाई थी. इसके बाद मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी ने कांग्रेस को कई केंद्रीय मंत्रियों को हटाने पर मजबूर किया. जैसे शिवराज सिंह पाटिल, एआर अंतुले, अशोक चौहाण और ए राजा आदि. ऐसा कहा जा रहा है कि अब सोनिया गांधी को अपने उस निर्णयों पर पछतावा है. मोदी और शाह ने उनकी इन ‘गलतियों’ से सीख ले ली है. एनडीए सरकार और भाजपा में अब कोई गलती कर ही नहीं सकता.

यही बात नरेंद्र मोदी की खामोशी को परिभाषित करती है. उन्होंने #मीटू आंदोलन पर अब तक कुछ नहीं कहा है. यहां तक कि अकबर का बचाव भी नहीं किया.

वे तब भी खामोश थे जब जम्मू कश्मीर के कठुआ में भाजपा नेता और उनके समर्थक आठ साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या के बाद आरोपी के पक्ष में मार्च कर रहे थे. वे त​ब भी चुप थे जब उत्तर प्रदेश के उन्नाव में भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर बलात्कार का आरोप लगा. बलात्कार पीड़िता ने सीएम आवास के सामने आत्महत्या करने की कोशिश की और उसके पिता की कथित तौर पर हत्या भी कर दी गई. योगी आदित्यनाथ सरकार की ओर से फिर भी कोई कार्रवाई न करने पर देश भर में इसके खिलाफ गुस्सा देखने को मिला.

मोदी ने इन घटनाओं पर हफ्तों बाद मुंह खोला. यह कोई अनोखी बात नहीं है, बल्कि यह सामान्य है. वि​वादित घटनाएं, खासकर जो भाजपा और संघ के लोगों से जुड़ी होती हैं, मोदी उस पर बहुत देर से और अप्रत्यक्ष बयान देते हैं और टाइम बीतने के बाद उस मुद्दे को गोल कर जाते हैं.

जब भाजपा नेता और अभिनेता कोल्लम तुलसी ने कहा कि सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने वाली महिलाओं के दो टुकड़े कर देने चाहिए तो मोदी के साथ साथ भाजपा के प्रमुख नेताओं ने उसने नजरअंदाज किया. यही उन्होंने तब भी किया था जब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ट्विटर पर ट्रोल किया गया था. इन मामलों में सभी नेताओं ने मोदी का अनुसरण किया और चुप्पी साध ली.

विडंबना है कि जब मोदी प्रधानमंत्री बनने के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे तब चुप रहने के लिए अपने पूर्ववर्ती महमोहन सिंह को ‘मौनमोहन’ कहकर उनका मजाक उड़ाते थे. मनमोहन सिंह के राजनीतिक गुरु पीवी नरसिम्हाराव को इसके लिए जाना जाता है कि वे अपनी खामोशी के जरिये ही बोलते थे. मोदी के पार्टी सहयोगियों और मंत्रालय के करीबी लोगों से बातचीत करके पता चलता है कि उनकी यह खामोशी वैसी रणनीतिक नहीं है जैसी कि राव की होती थी. यह जानबूझ कर ओढ़ी गई बेरुखी भी नहीं है. इसका कारण कई तथ्यों का घमंजा है: मसलन उनके पुराने अनुभव, उनकी आत्मसंरक्षण की मजबूत प्रवृत्ति, उनका लड़ाकूपन और आत्मविश्वास अथवा झूठे अहंकार पर अंकुश लगाने का उनका विश्वास आदि.


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गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के करीब 20 हफ्तों बाद ही वहां पर दंगे शुरू हो गए. दंगों के बाद मीडिया, बुद्धिजीवी वर्ग, मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनीति​क विरोधियों की तरफ से लगातार उनपर हमले किए गए. अब मोदी ने इन हमलों के प्रति गहरी समझ विकसित कर ली है.

इस साल की शुरुआत में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हिंसा हुई तो भी मोदी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जबकि यह मामला अनुसूचित जातियों से जुड़ा हुआ था जिसे भगवा पार्टी आजकल बड़ी आक्रामकता से रिझाने की कोशिश कर रही है. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि सरकार के कुछ प्रमुख लोगों का मानना था कि भीमा कोरेगांव में आम लोग नहीं, बल्कि ‘जेएनयू के मुट्ठी भर लोग’ जनता को भड़का रहे थे. सरकार से नजदीकी
रखने वाले एक व्यक्ति ने यह बात इस लेखक से कही थी.

इसी तरह जब जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया तब भी मोदी ने अपनी चुप्पी बनाए रखी. उक्त व्यक्ति ने मुझसे कहा, ‘उस समय कुछ पत्रकारों ने कहा कि मोदी इस मामले में हस्तक्षेप क्यों नहीं करते. लेकिन यदि उन्होंने ​कुछ किया होता या कहा होता तो यही लोग कहते कि देखो, मोदी न्यायापालिका में हस्तक्षेप कर रहे हैं.’

उनके सहयोगी ने कहा, मीडिया, जेएनयू के लोग (व्यापक तौर पर बुद्धिजीवी वर्ग जो वाम रुझान रखता है), एनजीओ और विपक्षी दल, ये सभी अगर पूरी तरह से झूठे नहीं हैं तो भी झूठ और अफवाह के वाहक बन गए हैं. अगर मोदी उनके उठाए हर मुद्दे का जवाब देने लगेंगे तो वे उन्हीं के हाथों में खेलते रहेंगे.

मोदी की खामोशी में एक तारतम्यता है. जब वे खुद विपक्ष के निशाने पर होते हैं तब अपने मंत्रियों को लगा देते हैं जैसे राफेल या सहारा बिरला डायरी के मुद्दे पर. लेकिन जब भाजपा या उनका राजनीतिक लाभ दांव पर होता है तो तब वे खामोश हो जाते हैं, जैसे उन्नाव की घटना जिसमें उनका विधायक शामिल था या कठुआ की घटना जिसमें उनके नेता ने एक समुदाय के लोगों को संगठित किया. और जब वे ऐसे मसले पर कुछ कहते हैं तो सामान्यीकरण करके बोलते हैं, जैसे- ‘हमारी बेटियों को निश्चित तौर पर न्याय मिलेगा.’ भाजपा ने उन्नाव में बलात्कार के आरोपी कुलदीप सिंह सेंगर को अभी तक पार्टी से नहीं निकाला है.


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ऐसी तमाम घटनाएं जिनपर विवाद हुए और जनता में गुस्सा भड़का, मोदी ने उनपर अपनी चमड़ी मोटी कर ली. माहिर नेता शरद पवार शायद सही कह रहे होंगे कि राफेल सौदे को लेकर लोगों को उनकी मंशा पर शक नहीं है. दरअसल, विपक्ष ने अब तक मोदी पर जो भी आरोप लगाए हैं वे टिके नहीं हैं. सर्वेक्षणों में वे अब भी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं.

प्रधानमंत्री मोदी उन मुद्दों पर जरूर बोलते हैं जो लोगों के दिमाग को उत्तेजित करें. एयरकंडीशंड दफ्तरों और दस्तरखानों से परे, चाय की दुकानों, होटलों और मेट्रो की बातचीत में यह आम धारणा सुनने को मिलती है कि ‘मोदी अच्छे हैं, लेकिन वे बुरे लोगों से घिरे हैं.’ और यह छह महीने बाद आम चुनाव का सामना करने जा रही सरकार का चापलूसी भरा विश्लेषण नहीं है.

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