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Sunday, 22 December, 2024
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कोविड प्रभावित दुनिया में आम होगा रोज़गार और व्यापार का नुक़सान, लेकिन भारत के लिए ये बस एक और तूफ़ान जैसा

आर्थिक गिरावट में विकासशील देशों पर ज़्यादा बुरा असर हो सकता है. लेकिन पीएम मोदी की अगुवाई की स्थिरता और लचीलापन, यक़ीनन हमें इस तूफान से निकालकर शांत पानी की ओर ले जाएगा.

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कोरोनावायरस वैश्विक महामारी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बिल्कुल सही तूफान है, लेकिन ऐसे तूफानों से निपटने में भारत का रिकॉर्ड अनुकरणीय रहा है. पिछले तीन दशकों में, हमने 1997 के एशियाई वित्तीय संकट, पोखरण के बाद की न्यूक्लियर पाबंदियों, डॉट-कॉम बबल व नाइन-इलेवन, और 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट को संभाला है. इन कठिनाई भरे हालात में भारत ने अपनी वृहत आर्थिक स्थिरता, और विकास की गति दोनों को बनाए रखा.

अब, जबकि महामारी रफ्तार पकड़ रही है, तो वो हानिकारक आर्थिक प्रवृत्तियां जो पहले ही शुरू हो गईं थीं, जैसे कि स्थिर वैश्विक विकास और बेरोज़गारी, उन्हें आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के उदय, और अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध ने, और ख़राब कर दिया है. ऐसे में भारत एक बार फिर साबित करेगा, कि वो किसी भी वैश्विक संकट से उबर सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई की स्थिरता और लचीलापन, यक़ीनन हमें इस तूफान से निकालकर शांत पानी की ओर ले जाएगा.

वैश्विक आर्थिक विकास की दर पिछले तीन साल से धीमी पड़ रही है, और 2017 में 3.2 प्रतिशत से गिरकर, 2018 में 3 प्रतिशत, और 2019 में 2.3 प्रतिशत आ गई है. लेकिन कोरोनावायरस वैश्विक महामारी की वजह से, 1930 के दशक की ‘महामंदी के बाद से, आर्थिक विकास में अब तक की सबसे ख़राब गिरावट’ देखी जा रही है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने पूर्वानुमान लगाया है, कि 2020 में विश्व अर्थव्यवस्था में 3 प्रतिशत की कमी आएगी, और आर्थिक उत्पादन में 9 ट्रिलियन डॉलर्स का नुक़सान होगा, और इसका कारण वो होगा, जिसे आईएमएफ ‘महा ल़ॉकडाउन’ कहता है. इस आर्थिक गिरावट का असर विकासशील देशों पर और भी बुरा असर हो सकता है, क्योंकि उनके यहां जीवन और जीविका, दोनों का नुक़सान ज़्यादा होने की संभावना है.


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सेक्युलर ठहराव का साया

इस ‘महा-लॉकडाउन’ में होने वाला रोज़गार का नुक़सान, आर्थिक गिरावट की गति को और तेज़ कर सकता है. काफी शोध हुआ है जो बताता है, कि अगर कामगार ज़्यादा लम्बे समय तक बेरोज़गार रहें, तो उनकी बेरोज़गारी स्थायी आर्थिक क्षति पहुंचा सकती है. उनका कौशल हल्का पड़ जाता है, काम करने की प्रेरणा कम हो जाती है, और आख़िरकार वो कामगारों की जमात से पूरी तरह बाहर हो जाते हैं.

दुनियाभर में बेरोज़गारी का स्तर चकरा देने वाले स्तर पर पहुंच गया है. अमेरिका में 4 करोड़ जॉब ख़त्म हुए हैं, और बेरोज़गारी दर पहले ही 20 प्रतिशत के क़रीब पहुंच गई है; यूके में बेरोज़गारी दर 10 प्रतिशत तक पहुंच सकती है; यूरोपियन यूनियन देशों में जॉब सपोर्ट प्रोग्राम्स की वजह से बेरोज़गारी कम है, लेकिन नतीजा ये है कि तीन करोड़ से अधिक वर्कर्स को, सरकार के वेतन सपोर्ट कार्यक्रमों के ज़रिए पैसा दिया जा रहा है.

नई कंप्यूटर तकनीकों का उदय, जैसे कि आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस व मशीन लर्निंग (एआई/एमएल) और रोबोटिक्स, पहले ही नौकरियां ख़त्म कर रहे थे. कोरोनावायरस महामारी ने इन प्रवृतियों को सिर्फ तेज़ किया है, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान कम्पनियों को, अपनी पूरी वर्कफोर्स के बिना अपना काम चलाना पड़ा.

ग्राहक सेवा के बहुत से कामों के लिए इंसानी एजेंट्स की जगह, एआई चैटबॉट्स इस्तेमाल किए जा रहे हैं. कोरोनावायरस के खिलाफ कारगर होने के लिए, ड्रग्स को नई एआई तकनीकों से स्क्रीन किया गया है. सर्वर फार्म्स की निगरानी एआई/एमएल ट्रैकिंग सिस्टम्स की मदद से की जा रही है.

हवाई अड्डों और अस्पतालों की सफ़ाई और उन्हें सैनिटाइज़ करने के लिए, रोबोट्स सामान्य रूप से प्रयोग किए जा रहे हैं, और वो जल्द ही भारत में भी आने वाले हैं. उनका इस्तेमाल किराना का बिल बनाने, अस्पताल में मरीज़ों का स्वागत करने, और बुज़ुर्गों की देखरेख में भी किया जा रहा है.

दुनिया भर में व्यवसायों को टेक्नोलॉजी की इस हानिकारक प्रवृत्ति के साथ काम करना सीखना होगा, और जो जल्दी से इसे नहीं अपना पाएंगे, वो शायद ग़ायब हो जाएंगे.

विश्व स्तर पर ये बेरोज़गारी बरसों तक मांग को दबाए रखेगी, जिससे बचत बढ़ जाएंगी, निवेश घट जाएंगे, और वैश्विक विकास धीमा पड़ जाएगा- संक्षेप में, सेक्युलर स्थिरता आ जाएगी.


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युद्धरत अमेरिका-चीन

अमेरिका और चीन के बीच एक नया शीत युद्ध, जो महामारी आने से पहले ही शुरू हो गया था, हर दिन बढ़ता दिख रहा है. वैश्वीकरण के अपने क़दम पीछे खींच लेने के साथ ही, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर इसका बहुत बुरा असर पड़ने वाला है. कम्पनियों ने अपने निर्माण चीन से बाहर ले जाने शुरू कर दिए हैं, जिससे सप्लाई चेन्स टूटने लगी हैं. अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन को पहले ही बहुत हद तक निष्क्रिय कर दिया है, और इसकी संभावना बहुत कम है, कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इसे फिर से जीवित करेंगे.

अमेरिका की ओर से निवेश बाधाएं भी खड़ी की जा रही हैं, जबकि बीजिंग हॉन्ग कॉन्ग पर अपना नियंत्रण जता रहा है, चीन के निवेश द्वार के रूप में, इसकी भूमिका को कम कर रहा है. वॉशिंगटन और बीजिंग दोनों की ओर से भड़काऊ बयानबाज़ी लगातार जारी है.

जलवायु परिवर्तन भी विश्व व्यापार को तबाह कर रहा है. जलवायु परिवर्तन की वजह से फॉसिल फ्यूल्स से रुझान हटने लगा है; और महामारी इसकी मांग और घटा रही है, जिसके नतीजे में तेल उत्पादक देशों को राजस्व का भारी नुक़सान हो रहा है. बैटरी स्टोरेज के साथ मिलकर सौर ऊर्जा, कोयले पर आधारित प्लांट्स की अपेक्षा सस्ती हो गई है, क्योंकि उसके अंदर पूंजी की लागत बहुत कम हो गई है.

इसी तरह बिजली चालित वाहन, जिनकी जीवन चक्र लागत कम होती है, उससे भी ज़्यादा तेज़ी से फॉसिल फ़्यूल वाहनों की जगह ले रहे हैं. फ़ॉसिल फ्यूल्स से दूर होने वाला ये परिवर्तन, यक़ीनन खाड़ी देशों के साथ साथ, मेक्सिको, रूस, और वेनिज़ुएला जैसे प्रमुख तेल सप्लायर्स के बीच खलबली पैदा करेगा.


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भारत के लिए बस एक और तूफान

भारत दुनिया भर में उठ रहे इस तूफान में, अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति के साथ दाख़िल हो रहा है. एक जवान और स्वस्थ आबादी होने की वजह से, कोरोनावायरस बीमारी का हमारा बोझ संभवत: कम रहेगा. हमारी वृहत आर्थिक स्थिति हमारे मध्यम आय वाले प्रतिद्वंदियों, जैसे मेक्सिको, इंडोनेशिया और ब्राज़ील के मुक़ाबले कहीं अधिक स्थिर है. अपने तकनीकी कौशल और उन्नत आईटी स्किल्स के मामले में भी, हम अच्छी स्थिति में हैं.

फिर भी, वैश्विक तूफान हमारे विकास के लिए भी, भयानक विपरीत हालात पैदा करेगा. पहला, हमारे माल निर्यात में भारी कमी देखी जा सकती है, जो 2018 में क़रीब 320 बिलियन डॉलर था. पहले ही मार्च में, भारत के उत्पाद व्यापार में पिछले साल के मुक़ाबले, 34.6 प्रतिशत की गिरावट देखी गई, जो 2015 के बाद सबसे तेज़ थी. हम पेट्रोलियम उत्पाद, जवाहरात, टेक्सटाइल्स, और ऑटोमोटिव गुड्स के बड़े निर्यातक हैं-और इन सब की मांग दुनिया भर में कम होती देखी जा रही है. हमारी सेवाओं के निर्यात की अगुआई आईटी/बीपी सेवाएं करती हैं, और क़ीमत और वॉल्यूम्स को लेकर, वो पहले ही दबाव का अनुभव करने लगी हैं.

दूसरा, पूंजी का प्रवाह, जिसमें पोर्टफोलियो और सीधा निवेश दोनों शामिल है, कम हो जाएगा चूंकि निवेशक पर अपने क्लायंट्स की ओर से, जोखिम से बचने का दबाव होगा.

अंत में, हमारे यहां बाहर से आने वाला पैसा, जो साल में कुल 83 बिलियन डॉलर हो जाता है, यक़ीनन कम हो जाएगा, चूंकि भारतीय बाहर से अपने घर वापस आएंगे.

लेकिन पिछले संकटों ने अगर हमें कुछ सिखाया है, तो वो ये कि उनका असर लम्बे समय तक बने रहने से पहले ही, उनसे किस तरह निपटा जाए. पीएम मोदी की सरकार और ‘आत्मनिर्भर’ भारतीय साबित कर देंगे, कि जब भी दुनिया में कोई आर्थिक संकट आता है, तो भारत कैसे उससे अलग बना रहता है.

(जयंत सिन्हा संसद की वित्तीय मामलों की स्थाई समिति के अध्यक्ष, और झारखंड के हज़ारीबाग़ से लोकसभा सांसद हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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2 टिप्पणी

  1. भारत की बेरोजगारी के आंकड़े आप क्यों नहीं दिखाते ? किसान आत्महत्या के आंकड़े क्यों छुपाये बैठे हो ? अपनी विकास दर बताने में शर्म आती हैं क्या, जो सात तिमाही से लगातार गिर रही हैं, cmie के बेरोजगारी के आंकड़े 27% से ज्यादा दिखा रहे हैं अमेरिका और ब्रिटेन के आंकड़े तो दिख गए , अपने घर के आंकड़े दिखाने में शर्म आती हैं क्या ?

  2. जिन दो देशों की बात कर रहे हो , उन्होंने अपना यहाँ कितना राजकोषीय पैकेज दिया हैं , आपकी तरह लोन मेले नहीं लगाये हैं कर्जे देने को ,

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