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Monday, 23 December, 2024
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अगर सही राजनीतिक फैसला न किया तो डूब जाएंगी अनुप्रिया पटेल

अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल की छवि एक ऐसे नेता ही है, जिन्होंने केंद्र सरकार में मंत्री रहते हुए भी सामाजिक न्याय के मुद्दे पर सरकार के गलत कामों की खिंचाई करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी.

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उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनाव की विसात बिछ रही है. सभी दल अपनी विचारधारा और नफा-नुकसान के मुताबिक अपनी गोटियां फिट कर रहे हैं. वहीं अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल ऊहापोह में हैं. कभी उनके नाराज़ होने की खबरें आती हैं, कभी मान जाने की. ताज़ा सूचना यह है कि अनुप्रिया ने कांग्रेस के यूपी प्रभारियों प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया से मुलाकात की है, हालांकि इस खबर की न तो पुष्टि हुई है और न ही खंडन.

अनुप्रिया युवाओं में लोकप्रिय हैं. उन्हें सामाजिक न्याय की विचारधारा विरासत में मिली है. उच्च शिक्षा प्राप्त सोनेलाल पटेल ने सामाजिक न्याय की लंबी लड़ाई लड़ी. उस दौर में अनुप्रिया पटेल बहुत छोटी थीं, जब सोनेलाल पटेल बनारस के डीएलडब्ल्यू चौराहे पर पार्टी कार्यालय का उद्घाटन करने आए थे और ज़िले के अंधरा पुल के पास बने पटेल भवन में उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं के सम्मेलन हुआ करते थे. उस समय अनुप्रिया को जानने वाले कम थे. लेकिन सामाजिक न्याय किसे कहते हैं, वह चूल्हे चौके से लेकर विभिन्न सड़कों, चौराहों पर पिता के साथ घूमते हुए सीख रही थीं.

वे 2012 में वाराणसी की रोहनिया सीट से अपना दल के टिकट पर विधायक चुनी गईं. 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने त्रिस्तरीय आरक्षण को लेकर समाजवादी पार्टी की सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला. इलाहाबाद में इसके लिए संघर्ष कर रहे पिछड़े वर्ग के युवा, जिनमे ज़्यादातर यादव थे, जब पुलिस की लाठियां खा रहे थे तो विधायक अनुप्रिया उनके साथ धरने पर बैठती थीं. उस दौर में यूपी सरकार द्वारा दायर कराए गए मुकदमे अभी भी अनुप्रिया पर चल रहे हैं.

2014 का लोकसभा चुनाव अनुप्रिया के खुद के आगे बढ़ने और पार्टी को बढ़ाने के लिए एक अवसर के रूप में सामने आया. खुद को नीची जाति का बताकर चुनाव लड़ रहे नरेंद्र मोदी को अपना नेता मानते हुए अनुप्रिया पटेल ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से समझौता कर लिया. चुनाव में उन्हें सफलता मिली और पार्टी 2 लोकसभा जीतने में सफल रही.

अनुप्रिया केंद्र सरकार में स्वास्थ्य राज्य मंत्री का महकमा भी पा गईं और सरकार में सबसे कम उम्र की मंत्री बनीं. लेकिन उनका तेवर नहीं बदला. वह संसद में सामाजिक न्याय और पिछड़े वर्ग की आवाज़ बनी रहीं, भले ही उनके भाषणों से लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के चेहरे का कड़वापन कैमरों में कैद हो जाता था. उन्होंने वंचितों का मसला उठाते हुए संसद में कहा, ‘सरकारी विभाग में ओबीसी के नोडल अधिकारी तक नहीं हैं. शैक्षणिक संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण का पालन नहीं हो रहा है. केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति में आरक्षण का पालन नहीं हो रहा है. उच्च न्यायपालिका से ओबीसी, एसटी, एसटी नदारद हैं. जातीय जनगणना 2011 के आंकड़े जारी न हो पाने के कारण यह साफ नहीं है कि ओबीसी की जनसंख्या कितनी है. ओबीसी की अनुमानित आबादी 60 प्रतिशत है, लेकिन उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण तक समेट दिया गया है.’


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सरकार में रहते हुए संसद में यह कहना साहस की बात है. सामाजिक न्याय का झंडा उठाने वाली पार्टियों के नेता विपक्ष में होते हुए भी अक्सर इतनी खरी-खरी बात नहीं कहते. सरकार की तारीफ करते हुए भी अनुप्रिया अक्सर ये दर्ज करा देती हैं कि सामाजिक न्याय को लेकर सरकार से वे खुश नहीं हैं.

केंद्र सरकार ने सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देते हुए संविधान की मूल आत्मा की हत्या कर दी. 72 घंटे के भीतर संविधान के मूल अधिकार के प्रावधानों को बदल दिया गया, जिसे डॉ. भीमराव अंबेडकर, सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू जैसे कानून के वैश्विक जानकारों ने कई महीने की कवायद के बाद और राष्ट्र के भविष्य को ध्यान में रखकर तैयार किया था. अनुप्रिया पटेल इस मसले पर खुलकर नहीं बोल पाईं. स्वाभाविक है कि सरकार के इस फैसले से उनके मन में घुटन होना स्वाभाविक है.

यूपी में सामान्य अवधारणा है कि किसान जातियां धर्मभीरु, राजनीति से विरत और अपने काम काज में लगी रहने वाली हैं.

अनुप्रिया पटेल भी कुर्मी जाति से आती हैं, जो राज्य में भूमिधर ज़मींदार से लेकर राजे रजवाड़े और भूमिहीन किसान के रूप में खेती-बाड़ी से जुड़े हैं. भाजपा ने जब लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा उपज के दाम देने का वादा किया तो किसान जातियां उसके साथ चली गईं और कुर्मियों ने भी बड़े पैमाने पर भाजपा को वोट किया.

अब किसानों में निराशा है. देश भर में किसान सबसे ज़्यादा असंतुष्ट नज़र आ रहे हैं. उनकी बदहाली इससे समझी जा सकती है कि खुद को धरती का राजा समझने वाले किसान अब नौकरियों में आरक्षण मांग रहे हैं. लंबे किसान मार्च निकल रहे हैं. मुंबई से लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान तक की रैलियां इस आक्रोश का गवाह बन रही हैं. स्वाभाविक है कि राजनीति की खिलाड़ी के रूप में अनुप्रिया की भी इन पर नज़र है.

अनुप्रिया बेचैन नज़र आ रही हैं. यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक साथ आ चुकी हैं, जिसे एक मजबूत गठजोड़ माना जा रहा है. वहीं भाजपा ने 2017 के चुनाव में यूपी में एकतरफा जीत हासिल करके अपनी ताकत दिखा दी है. तीसरी तरफ, यूपी में कांग्रेस बहुत तेजी से पिछड़े वर्ग को पार्टी से जोड़ने की कवायद में लगी है और वह स्वतंत्रता के पहले वाली ‘हर जाति, हर धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस’ बनने की फिराक में है. किसान उसके एजेंडे में हैं. पार्टी अपने युवा नेता तरुण पटेल से पूरे प्रदेश की यात्रा करवा चुकी है. पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने भूमि अधिग्रहण कानून को पहले जैसा सख्त करने के लिए राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सरकारों को पत्र लिख दिया है, जिसमें भाजपा सरकारों ने उद्योगपतियों को सहूलियत देने के लिए राज्य स्तर पर फेरबदल किए थे.


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पार्टी ज़मीनी स्तर पर भी यूपी की किसान जातियों को जोड़ने में ज़बरदस्त सक्रिय है. महान दल को पार्टी से जोड़ा. बसपा के प्रदेश अध्यक्ष और विधायक रहे केके सचान को अपने पाले में खींच लिया. सामाजिक कार्यकर्ताओं व किसी दल में आस्था नहीं रखने वाले लोगों को भी कांग्रेस अपनी ओर खींच रही है. पिछड़े वर्ग से आने वाली और लखनऊ से निर्दलीय मेयर का चुनाव लड़ चुकीं साधना सचान कांग्रेस में शामिल हो गईं.

ऐसे में अनुप्रिया के सामने सही फैसला करने की चुनौती है. एक तरफ ओबीसी के हितों के लिए किसी से भी टकरा जाने वाली उनकी छवि है, दूसरी तरफ चुनावी राजनीति में जगह बनाने की मजबूरी. ओबीसी तबका अनुप्रिया पटेल की चालों पर नज़र बनाए हुए है. उन्हें सत्ता में रहते हुए, शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली नेता के रूप में देखा जाता रहा है. वह वाक्पटु हैं. हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं पर मज़बूत पकड़ है. इन वजहों से उन्हें भविष्य की बड़ी नेता के रूप में देखा जाता रहा है. विश्वविद्यालयों में रोस्टर, सवर्ण आरक्षण, आदिवासियों की हकमारी जैसी स्थिति में अगर भाजपा के साथ जुड़ी रहती हैं तो उनकी छवि उन वर्गों के प्रतिकूल जा सकती है, जिनके लिए वह अब तक संघर्ष करती रही हैं. 2019 का राजनीतिक फैसला उनके अस्तित्व से जुड़ गया है.

(प्रीति सिंह राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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