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Thursday, 31 October, 2024
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लोकपाल आंदोलन की 10वीं वर्षगांठ : अरविंद केजरीवाल ने कैसे देश को सपना दिखाकर निराश किया

अगर अरविंद केजरीवाल लोकपाल आंदोलन की केवल अपनी सफलता से ही सीख पाते हैं, तो आप के मुद्दे इस तरह अटके नहीं होते.

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5 अप्रैल 2011 को एक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने लोकपाल संस्था के गठन के लिए नया कानून बनाने की मांग को लेकर ‘आमरण अनशन’ शुरू किया था, जो भारत सरकार के अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों को एक स्वायत्त निकाय की तरह देखे.

अब आंदोलन की दसवीं वर्षगांठ पर हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो कह सकते हैं कि यह नाकाम रहा है. मनमोहन सिंह सरकार ने एक लोकपाल कानून पारित किया था, लेकिन भारत के पहले लोकपाल की नियुक्ति 2019 में जाकर हो पाई थी. नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी को नियुक्त करने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई. और हालांकि, लोकपाल पिनाकी चंद्रा को शिकायतें मिली हैं, लेकिन किसी में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई परिवर्तनकारी कार्रवाई होने जैसा नतीजा सामने नहीं आया है. इस तरह यह निकाय एक कागजी शेर ही बना हुआ है.

लोकपाल पर विचार दरअसल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को कार्यपालिका से स्वायत्तता प्रदान करने की मांग था. अगर कुछ हुआ तो यह, प्रवर्तन निदेशालय और अन्य निकायों की तरफ से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राजनीतिक विरोधियों को खुलकर निशाना बनाए जाने के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का पहले से कहीं अधिक राजनीतिकरण हो गया है. सूचना का अधिकार कानून बनने के बाद लोकपाल का विचार पारदर्शिता की दिशा में अगला कदम था. लेकिन हुआ तो बस यह कि आरटीआई कानून और उस पर अमल करने वाली एजेंसियां कमजोर होने के साथ भारत सरकार और भी कम पारदर्शी हो गई. मार्च 2020 में सरकार ने लोकपाल के लिए नए नियमों को अधिसूचित किया जिसके तहत किसी भी मौजूदा या पूर्व प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई भी जांच सार्वजनिक नहीं की जाएगी. और शिकायत को खारिज कर दिया जाता है तो किसी को भी उसका रिकॉर्ड मुहैया नहीं कराया जा सकता है!


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अपने उद्देश्यों से भटक जाना

हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकपाल आंदोलन यूपीए-2 सरकार को घुटनों पर ला देने वाली एक बड़ी राजनीतिक सफलता थी, जिसने निश्चित तौर पर उसे अलोकप्रिय बनाया और जैसी कई लोगों की दलील है, नरेंद्र मोदी के लिए रास्ता भी साफ किया. अपने ऐतिहासिक महत्व के कारण यह मंडल और मंदिर, जेपी और ‘निर्भया’ जैसे बड़े आंदोलनों की श्रेणी में खड़ा होता है.

लोकपाल आंदोलन एक राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी (आप) में भी बदला. इसके नेता अरविंद केजरीवाल तीसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं.

आश्चर्यजनक रूप से अरविंद केजरीवाल को 2014 के बाद से भ्रष्टाचार या लोकपाल के बारे में ज्यादा बात करते नहीं सुना गया है. (अन्ना हजारे जो भी कहते रहें, वह अप्रासंगिक है; केजरीवाल ने उन्हें उसी तरह दरकिनार कर दिया है जिसके लिए वह जाने जाते हैं, अन्ना मजाक बनकर रह गए हैं) लेकिन केजरीवाल ने लोकपाल की नियुक्ति में देरी या फिर नई संस्था कमजोर होने के बारे में कभी ज्यादा कुछ नहीं कहा.

सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि केंद्र ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार से दिल्ली के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो का नियंत्रण छीन लिया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर भी लगी है. यदि भ्रष्टाचार भारत में फिर कोई बड़ा सार्वजनिक मुद्दा बना तो अरविंद केजरीवाल इस पर अपनी जिम्मेदारी से बच जाएंगे. भ्रष्टाचार पर चिंता करना तो उन्होंने बहुत पहले ही छोड़ दिया था, यहां तक कि उन्होंने उन सभी लोगों से माफी भी मांग ली थी, जिन्होंने भ्रष्टाचार और अन्य आरोप लगाने के कारण उनके खिलाफ मानहानि के मुकदमे दायर किए थे.

उन लोगों का क्या होता है जो उस पॉलिटिकल नैरेटिव से पीछे हट जाते हैं जो खुद उन्होंने ही दिया होता है? फरवरी 2012 में मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के फूलपुर स्थित एक गांव में एक भाजपा कार्यकर्ता से पूछा था कि उनकी पार्टी राज्य में कमजोर क्यों हो गई है.

उसका कहना था, ‘हम जाति समीकरण के खेल में खरे नहीं उतरते. और राम मंदिर मुद्दा हमने छोड़ दिया है. इससे तमाम लोगों को लगता है कि सत्ता हासिल करने के लिए हमने मंदिर मुद्दे पर उन्हें ठगा है.’

पार्टियों में यही होता है जब वे मुख्यधारा में आने और वोट पाने के लिए जो कुछ कहती रही हैं, उससे पीछे हट जाती है. यह तो अरविंद केजरीवाल का पहला विश्वासघात है. सूची लंबी है. वह अपनी स्थिति और रवैया इतनी बार बदलते हैं कि हिसाब रखना मुश्किल है.

लोकपाल आंदोलन का खाका

अपनी असफलता के बावजूद लोकपाल आंदोलन किसी के लिए भी लिए भारत में राजनीतिक आंदोलन शुरू करने का एक शानदार खाका पीछे छोड़ गया है. यह दर्शाता है कि स्थापित व्यवस्था के बीच एक नई राजनीति संभव है, भारतीय राजनीति में किसी नवांगतुक के लिए जगह रहती है.

लोकपाल आंदोलन सफल हुआ क्योंकि इसने एक विश्वसनीय निष्पक्ष चेहरे (अन्ना हजारे) का इस्तेमाल किया, महीनों अच्छी तरह योजना बनाई गई, लोगों के सामने न केवल एक समस्या (भ्रष्टाचार) रखी गई, बल्कि इसका समाधान (लोकपाल) भी पेश किया. इसने वैचारिक अलगाव खत्म किया, और वाम और दक्षिण दोनों पक्षों से समान रूप से मुद्दा-आधारित समर्थन जुटाया. इसमें राष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया गया. मीडिया का पूरी सतर्कता से इस्तेमाल किया गया. इसने घोटालों और महंगाई को लेकर लोगों के आक्रोश में एकदम उबाल ला दिया—आंदोलन के दौरान मुझे मिले कई लोगों का कहना था कि उनका मानना है कि यह भ्रष्टाचार ही है जो खाद्य सामग्री और ईंधन की आसमान छूती कीमतों के लिए जिम्मेदार है.

एक इंसान जिसने इतने शानदार आंदोलन की योजना बनाई और उसे अंजाम दिया, मॉडर्न कैंपेन टूल और रणनीतियों का पूरी बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग किया, लेकिन वही केजरीवाल इसके बाद से अपने गलत राजनीतिक निर्णयों से हमें चौंकाते रहे हैं. वह 10 वर्षों से दिल्ली की सत्ता में होने के बावजूद इससे बाहर किसी राज्य में जीत हासिल नहीं कर पाए हैं. यह लेह से लक्ष्यद्वीप तक देशव्यापी स्तर पर गूंजने वाले एक आंदोलन की एक बड़ी नाकामी है. वह देश के सबसे कमजोर मुख्यमंत्री वाली छवि के कारण खुद ही अपना कद घटा चुके है, इसलिए लोकपाल आंदोलन के दौरान किए गए राष्ट्रीय वादे को भुना नहीं पा रहे हैं.


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वोट के लिए वी डायल करें

लोकपाल आंदोलन के बाद से ऐसा कुछ भी नहीं बचा है जिसके जरिये अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय भावनाओं में फिर जोश भर पाएं. यहां तक कि उनका कथित दिल्ली मॉडल ऑफ गवर्नेंस भी नहीं, जो कोविड के दौरान दिल्ली सरकार के अस्पतालों की सिर्फ पीआर कवायद के तौर पर उजागर हुआ है.

केजरीवाल ने भ्रष्टाचार विरोधी एजेंडे के साथ जो पीछे छोड़ दिया है, वह है एक कार्यकर्ता की राजनीतिक मासूमियत. जब उन्होंने लोकपाल आंदोलन शुरू किया, तो ऐसा प्रधानमंत्री बनने की इच्छा से नहीं किया था. (अगर उन्हें पता होता कि यह इतनी बड़ी सफलता होगी, तो भी उन्होंने खुद को इसके लिए चेहरा नहीं बनाया होता) अब हम अरविंद केजरीवाल को कभी यह कहते नहीं सुनते कि वह कुछ नहीं बस एक आम आदमी हैं जो सिस्टम बदलने के लिए आगे आया है. एक व्यक्ति जो कभी व्यवस्था बदलने की बात करता था, वह अब दिल्ली से बाहर किसी राज्य, सिर्फ एक राज्य में अपनी जीत के लिए हिंदुत्व का सहारा लेने तक की कोशिशें कर रहा है.

अरविंद केजरीवाल की दिक्कत यह है कि उन्हें लगता है कि वोट हासिल करना इंस्टेंट कॉफी बनाने जैसा है. ‘हिंदुत्व’ का बटन दबाएं और जीत जाएं. ‘खालिस्तानियों’ की बात करें और वोट पाएं. ‘दिल्ली मॉडल’ बताएं और वोट हासिल करें. एक नौसिखिये लोकप्रिय नेता की तरह उन्हें यही समझने का फितूर रहता है कि लोग क्या चाहते हैं. इन दिनों उन्हें यही लगता है कि लोग हिंदुत्व चाहते हैं.

मैंने एक अनुभवी राजनेता से पूछा कि वह अरविंद केजरीवाल के बारे में क्या सोचते हैं. इन बुजुर्ग लोकसभा सांसद ने कहा, ‘मुझे लगता था कि व्यवस्था का हिस्सा बनने वाले एक बाहरी व्यक्ति के तौर पर वह कुछ अलग करेंगे. लेकिन वो तो नेताओं से ज्यादा बड़े नेता साबित हुए हैं.’

लोग नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं

लोग क्या चाहते हैं, यह पता लगाने में असल मुश्किल यह है कि लोग अक्सर खुद ही नहीं जानते कि वे चाहते क्या हैं. जब सर्वेक्षणों ने यह दर्शाया कि महंगाई सबसे बड़ा मुद्दा है तो क्या जनता ने अरविंद केजरीवाल को बताया था कि वे लोकपाल चाहते हैं? नहीं, लेकिन उन्होंने इस विचार को भुना लिया.

स्टीव जॉब्स की यह टिप्पणी प्रसिद्ध है, ‘कुछ लोग कहते हैं, ‘ग्राहकों को वही बेचें जो वे चाहते हैं.’ लेकिन मेरा दृष्टिकोण ऐसा नहीं है. हमारा काम उनके मांगने से पहले ही यह पता लगाना है कि वे क्या चाहेंगे. मुझे लगता है कि हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था, ‘अगर मैं ग्राहकों से पूछता कि वे क्या चाहते थे तो उन्होंने मुझे एक तेज चलने वाला घोड़ा ही बताया होता.’ यही कारण है कि मैं मार्केट रिसर्च पर कभी भरोसा नहीं करता. हमारा काम उन इबारतों को पढ़ना है जो अभी तक किसी पन्ने पर लिखी ही नहीं गई हैं.’

अगर 2021 के केजरीवाल 2011 वाले केजरीवाल होते

अगर हम लोकप्रिय मुद्दे की बात पर भी जाएं तो सर्वेक्षण दर सर्वेक्षण लोगों के लिए बेरोजगारी ही शीर्ष मुद्दे के तौर पर सामने है. यदि 2021 के अरविंद केजरीवाल 2011 वाले अरविंद केजरीवाल होते तो उन्होंने बेरोजगारी मुद्दे पर एक राष्ट्रीय आंदोलन शुरू कर दिया होता. लेकिन उन्हें पक्का भरोसा नहीं है कि क्या इससे उन्हें वोट मिलेंगे, इसलिए वह आपसे जय श्री राम ही कहेंगे. जल्द ही वह पंजाब में फिर से खालिस्तानी समर्थकों के साथ गलबहियां करते भी नजर आ सकते हैं.

2012 में आम आदमी पार्टी को लॉन्च करने के अलावा अरविंद केजरीवाल ने स्वराज नामक एक किताब भी लिखी थी, जिसमें अन्ना हजारे के एक प्रमुख बयान को कवर पर ‘हमारे समय का घोषणापत्र’ के तौर पर छापा गया था. केजरीवाल इस तरह एक नया कम्युनिस्ट घोषणापत्र पेश करते हुए कार्ल मार्क्स बनने की कोशिश कर रहे थे, जिसमें तर्क दिया गया था कि सत्ता का विकेंद्रीकरण भारत की सभी समस्याओं का रामबाण समाधान है, अब लोकपाल बनना चाहिए. पर नियति देखिए कि केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने और मोदी ने दिल्ली सरकार के अधिकतम अधिकार छीन लिए. जैसे मोदी ने भ्रष्टाचार विरोधी ब्यूरो ले लिया, जिससे केजरीवाल सरकार को एक बड़ा झटका भी लगा है, और संसद में पारित एक नए कानून के तहत दिल्ली सरकार के हर फैसले को मोदी सरकार द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल की मंजूरी के अधीन कर दिया. स्वराज के लिए इतना काफी है.

यदि 2021 के अरविंद केजरीवाल 2011 के अरविंद केजरीवाल होते तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया हतै और इस मुद्दे पर फिर से चुनाव करा लेते. अगर अरविंद केजरीवाल 2011 में उठाई गई अपनी आवाज पर अडिग रहते तो वह विकेंद्रीकरण को एक मुद्दा बनाते, और दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आंदोलन शुरू कर देते. उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि ऐसा नहीं लगता मतदाता यह चाहते हैं. फिर भी अगर उन्होंने पूर्ण राज्य के दर्जे और सत्ता के विकेंद्रीकरण को लगातार आवाज उठाई होती तो शायद इसे सार्वजनिक मुद्दा बनाने में सक्षम हो पाते और इसे मतदाताओं की मांग बना पाते. जरा देखिए कैसे भाजपा राम मंदिर और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों को नीतियों के दायरे में ले आई. इसमें 30 साल का समय लगा.

असफलता की स्वीकारोक्ति

यदि 1980 के दशक में भाजपा ने राम मंदिर को अपना मुद्दा न बनाने का फैसला नहीं किया होता और इसे विश्व हिंदू परिषद (जैसा अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे) पर छोड़ दिया होता तो शायद यह पार्टी आज सत्ता में नहीं होती. कह सकते हैं कि वोट हासिल करना सिर्फ सही बटन दबाने जितना आसान नहीं है. इसके लिए विचारधारा को कोर ब्रांड वैल्यू बनाने, अपना जनाधार मजबूत करने वाला आधार बनाए रखने, अपने समर्थकों में निरंतर जोश भरते रहने, और दूसरों से अलग अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाने की जरूरत होती है.

देशभर में तमाम ऐसे लोग मिलेंगे जो आपको बताएंगे कि उन्होंने लोकपाल आंदोलन और आम आदमी पार्टी के लिए हफ्तों और महीनों स्वयंसेवा की थी, लेकिन आज निराश महसूस करते हैं. 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने एक ऐसे राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर की सेवाएं लीं जिसने 2017 में पंजाब में उन्हें हराया था. एक ऐसे शख्स, जिसने राजनीतिक आंदोलन का एक नया इतिहास लिखा था, की तरफ से यह नाकाम हो जाने की स्पष्ट स्वीकारोक्ति थी.

(लेखक एक कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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