लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में पश्चिम बंगाल में इन दिनों जो कुछ हो रहा है, उसके अंदेशे तो सच पूछिये तो तभी से प्रबल थे, जब केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने उसे अपनी नई प्रयोगशाला बनाने की कवायदें शुरू कीं. उसकी गुजरात व उत्तर प्रदेश जैसी पुरानी प्रयोगशालाएं गवाह हैं कि आमतौर पर साम्प्रदायिक व धार्मिक ध्रुवीकरण के साथ प्राचीनता व पुनरुत्थान का मंगलगान करते नजर आते उसके प्रयोगों के पहला कहर संवैधानिक व लोकतांत्रिक मूल्यों पर ही टूटा करता है. फिर वे देखते ही देखते शांति व सद्भावपूर्ण सहजीवन की पैरवी करने वाले सारे सहिष्णु व प्रगतिशील जीवन मूल्यों से हिंसक दुश्मनी निभाने लग जाते हैं.
यह और बात है कि वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, उनकी सरकार और पार्टी इन प्रयोगों से जिस तरह से निपट रही या कहना चाहिए, निपटती आई हैं. उससे उनके बारे में भी कोई अच्छी राय नहीं बनती.
अकारण नहीं कि कई प्रेक्षक इसे ममता द्वारा वाममोर्चे को नेस्तनाबूद करने के लिए कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा से ‘समझदारी भरे सहयोग’ की अनिवार्य परिणति बताते हैं. माकपा महासचिव सीतराम येचुरी का यह कहना भी गलत नहीं ही है कि राज्य में भाजपा के पांव पसारने का रास्ता ममता की रीति-नीति ने ही हमवार किया. भाजपा के मंसूबों को समझने में तो उन्होंने गलती की ही.
इसीलिए राज्य के हड़बोंग को आमतौर पर नरेन्द्र मोदी और ममता बनर्जी नामक दो ‘तानाशाहों’ और अलग-अलग तरह के सत्तामद में अंधी होकर किसी भी नैतिकता का अंकुश न मानने वाली उनकी पार्टियों की भिड़ंत के रूप में देखा जा रहा है.
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यहां समझना चाहिए कि नरेन्द्र मोदी व्यंग्य या कि मजाक में, पहले ‘स्पीडब्रेकर’ जोड़कर ही सही, ममता को दीदी कहते हैं. हाल में अपने एक अराजनीतिक साक्षात्कार में उन्होंने रहस्योद्घाटन-सा किया था कि कई मौकों पर ममता उन्हें खास बंगाली मिठाइयों के साथ कुर्ते वगैरह भी गिफ्ट करती रही हैं. इसके बाद एक दिन दीदी ने चिढ़कर कह दिया कि गिफ्ट भले देती हैं, वोट नहीं देंगी और कई बार उनका मन करता है कि इस भाई को लोकतंत्र का करारा तमाचा लगा दें. तो भी मोदी ने यह कहने में देर नहीं की थी कि दीदी का थप्पड़ भी उनके लिए आशीर्वाद जैसा ही होगा.
क्या आश्चर्य कि इसके मद्देनजर एक कार्टूनिस्ट ने अपने कार्टून में तंज किया है कि तानाशाही के मामले में भी इन भाई-बहन में कुछ तो समानता होगी ही. खासकर जब भाई को प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाये रखने के लिए हिन्दी भाषी राज्यों के अपने पुराने आधार में हो रही छीजन की पश्चिम बंगाल में क्षतिपूर्ति करनी है और बहन को अपनी उक्त पद की दावेदारी मजबूत करने के लिए बढ़ती ताकत का प्रदर्शन करना है.
निश्चित ही इस ‘समानता’ ने एक बार फिर यह सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि हमारे राजनीतिक दलों ने किस कदर देश के लोकतंत्र को जीवन दर्शन के ऊंचे आसन से उतारकर सत्ता और उसकी प्रतिद्वंद्विता की सर्वथा गर्हित सुविधा में बदल डाला है.
वे लोकतंत्र को उसके वास्तविक अर्थो में तभी तक बरतते हैं, जब तक वह अपने गिरेबान में झांकने से उनके परहेज का खुशी-खुशी साथ निभाता हो. अन्यथा उसमें उनका विश्वास या तो चुनाव के वक्त उनके दिये हलफनामों में नजर आता है या फिर कोई पद ग्रहण करते वक्त ली गई शपथ में, जो उन्हें शायद ही कभी किसी कुपथ से रोकती हो.
यकीनन, ऐसा आचरण चुनने के पीछे उनके अपने-अपने लोभ-लाभ होते होंगे. दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी-अपनी सिद्धियां. लेकिन हैरत होती है और दुःख भी कि इस भिड़ंत में जिस चुनाव आयोग को अम्पायर या कि रेफरी की भूमिका निभानी थी, उसने भी जानें किस सिद्धि के लोभ में खुद को खिलाड़ी में बदलकर एक का पक्ष चुन लिया है. साथ ही ऐसे-ऐसे खेल कर रहा है कि उसकी निष्पक्षता को कौन कहे, उसका भ्रम भी बचता नहीं दिखता.
सोचिये जरा कि राज्य में अशांति के मद्देनजर आखिरी चरण का चुनाव प्रचार थोड़ा पहले खत्म करने के ‘कड़े’ फैसले में भी उसे प्रधानमंत्री के पक्ष में झुकना और उनकी दो रैलियों की रक्षा अपनी निष्पक्षता या लोकतंत्र की रक्षा से ज्यादा जरूरी लगा. अब इसे ‘जिन पे तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे’ के नहीं तो और किस रूप में देखें? किसे नहीं मालूम कि जैसे ही चुनाव कार्यक्रम घोषित होते हैं, सरकारी मशीनरी चुनाव आयोग के अधीन और उसकी संहिता के तहत काम करने लगती है. इस मशीनरी ने उसके देखते-देखते राज्य में ऐसे प्रतिकूल हालात पैदा कर दिये कि चुनाव प्रचार की अवधि में कटौती जैसा ऐतिहासिक निर्णय लेना पड़ा तो इसी जिम्मेदारी भी तो उसी की ही है.
पूरे कुंए में इस कदर भांग पड़ गयी है कि किसी को भी अपनी जिम्मेदारी का भान नहीं, तो क्या आश्चर्य कि जो ईश्वरचंद विद्यासागर बंगाल की पुनर्जागरण काल की प्रमुख हस्तियों में से एक हैं और जाने-माने सुधारवादी के तौर पर याद किये जाते हैं, वे भी अपनी जन्म शताब्दी से महज साल भर पहले भाजपा व तृणमूल कांगे्रस की अनैतिक राजनीति के लपेटे में आने से नहीं बच पाये. कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस छात्र परिषद के कार्यकर्ताओं ने काले झंडे दिखाते हुए ‘अमित शाह गो बैक’ के नारे लगाये तो शाह के बिगड़ैल समर्थक भाजपा का झंडा लिये विद्यासागर कालेज के कार्यालय में घुस गये. फिर? कॉलेज के प्रधानाचार्य गौतम कुंडु बताते हैं, ‘वे हमारे साथ बदसलूकी करने लगे. उन्होंने दस्तावेज फाड़ दिए, कार्यालयों में तोड़फोड़ की और जाते वक्त विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी और मोटरसाइकिलों को आग के हवाले कर दिया.’
सवाल है कि उनकी जो भी दुश्मनी थी, ममता या उनकी पार्टी से थी, फिर उन्होंने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की प्रतिमा पर अपना गुस्सा क्यों उतारा? इसका जवाब स्वयं विद्यासागर के व्यक्तित्व व कृतित्व में ही है.
दो सौ साल पहले क्रूर गुलामी और घोर अभावों के बीच भी उन्होंने अपनी मेधा का इतना उन्नयन किया कि विद्यासागर कहे जाने लगे. आगे चलकर उन्होंने बहुत-सी रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाई, लड़कियों की शिक्षा के लिए पहलें और विधवा पुनर्विवाह के लिए कानून बनवाने की कोशिशें कीं, जो 1856 में सफल हो पाई. क्या उनके इन ‘कर्मों’ का पुनरुत्थानवादी भाजपाई प्रयोगों से कोई मेल हो सकता है? अगर नहीं तो उन पर भी यह कहर टूटना ही था.
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अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि वे उक्त कालेज में विद्यासागर की अष्ट या पंचधातु की नई मूर्ति लगवा देंगे, लेकिन क्या उनके या उनकी जमातों के पास विद्यासागर के विचारों को आगे ले जाने की भी कोई योजना है? इक्कीसवीं सदी में आकर भी सबरीमाला में महिलाओं का प्रवेश रोकने वालों के साथ खड़ी उनकी जमातें शताब्दियों पहले अपने बेटे का विधवा से विवाह करा देने वाले विद्यासागर के विचारों के साथ भला कैसे खड़ी होंगी? सो भी इस नासमझी के साथ कि विद्यासागर की मूर्ति तोड़े जाने से जो अपूरणीय क्षति हुई है, नई मूर्ति लगाने से उसकी भरपाई हो सकती है.
इससे भी बड़ी विडम्बना यह कि जो कुछ हुआ, उसे लेकर न सिर्फ भाजपा व तृणमूल कांग्रेस, बल्कि प्रधानमंत्री भी परस्पर दोषारोपण के सिलसिले को ही आगे बढ़ाने में लगे हुए है. उस शर्म के भाव को उन्होंने कही गहरे दफना दिया है, जो यह सोचने से पैदा होता कि आखिर हमारी व्यवस्था न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि सारे देश के युवाओं को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे महान समाजसुधारक पर अपनी नफरत उड़ेलने को भड़काकर किस दिशा में धकेल रही है और इसका अंजाम क्या होगा? सच तो यह है कि पश्चिम बंगाल में ईश्वरचंद विद्यासागर की मूर्ति तोड़ी जाने से हमारी राजनीति के साथ समाज का भी मौजूदा चरित्र अपने असली रूप में सामने आ गया है. उसके लिहाज से एक वरिष्ठ चिंतक की यह टिप्पणी बहुत सटीक है कि ‘राजा राममोहन राय, पंडिता रमाबाई, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, ईश्वरचंद्र विद्यासागर ऐसे लोग मूर्तियों में ढलें न ढलें, समाज के आचरण और विचारों में उनका प्रतिबिंब दिखना चाहिए, तभी हम सभ्य कहलाने के अधिकारी होंगे.’
लेकिन जब तक नहीं होते, तब तक भी यह समझे बगैर निस्तार नहीं कि पश्चिम बंगाल के वर्तमान घटनाक्रम को चुनावी हिंसा भर समझना भूल होगी. अभी इस राज्य के बारे में कहा जाता है कि जो वह आज सोचता है, वह कल सारे देश का सोच बन जाता है. यह सारा हड़बोंग इस स्थिति को पलटने और उसके पुनर्जागरण को निरर्थक बना देने के लिए है.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)