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Thursday, 21 November, 2024
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पसंद करें या नहीं, तालिबान एक हकीकत है, भारत उससे तभी निपट सकेगा जब BJP अपनी राजनीति बदले

भारत तालिबान को सिर्फ इसलिए राजनीतिक दुश्मन न मान बैठे कि वह इस्लामी है या पाकिस्तान का दोस्त है. भाजपा अगर अपने देश में ध्रुवीकरण की राजनीति से बाज आए तो वह मोदी सरकार उसे अपना दोस्त बना सकती है.

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नयी दिल्ली और काबुल के बीच इन दिनों गतिविधियां तेज हो गई हैं. हिंदुकुश की दीवारों पर साफ-साफ इबारतें लिखी दिख रही हैं. तालिबान उत्कर्ष की ओर हैं. सवाल यह है कि इसका भारत पर क्या असर होगा?

क्या भारत का दिल इस बात से टूट जाना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफगानिस्तान से सीधे-सीधे कदम वापस खींच लिये हैं? या इस नये घटनाक्रम में उसके लिए अवसर छिपे हैं? क्या तालिबान से तनावपूर्ण संबंध बनना निश्चित है? इसी तरह, क्या हम यह तय मान कर चलें कि वे पाकिस्तान के इशारे पर चलने वाले पेशेवर इस्लामी सिपाही ही बने रहेंगे?

जॉर्ज डब्लू. बुश ने अफगानिस्तान पर धावा बोल कर और परवेज मुशर्रफ के पाकिस्तान को भी इसमें साझीदार बना कर इस क्षेत्र को नया नाम दिया— एफ-पाक. क्या भारत अब इसे नियति मान कर कबूल कर ले? क्या हम अपने रणनीतिक सोच को इससे अलग कर सकते हैं? 2011 में मैंने इस स्तंभ में वे कारण गिनाए थे कि भारत ‘एफ को पाक के लिए’ क्यों छोड़ दे. इसके बाद से हम किस तरह आगे बढ़े हैं?

पहली बात यह कि क्या इस बात का कोई सबूत है कि तालिबान मजबूरी अथवा एहसानमंदी के कारण हमेशा के लिए पाकिस्तान का गुलाम बना रहेगा? पाकिस्तान का एक ऐसा अटूट साथी जिसकी दोस्ती, पाकिस्तान-चीन शिखर वार्ताओं में इस्तेमाल किए जाने वाले मुहावरे का इस्तेमाल करें तो, ‘पहाड़ों से भी ऊंची और सागर से भी गहरी’ होगी?

आप सवाल कर सकते हैं, ऐसा क्यों नहीं हो सकता? क्या तालिबान अपनी पहली पारी में पाकिस्तान का ऐसा दोस्त नहीं था? लेकिन जैसी कि म्यूचुअल फंडों के विज्ञापनों में वैधानिक चेतावनी लिखी रहती है, पिछले नतीजे भावी नतीजों की गारंटी नहीं हैं. भू-रणनीतिक हितों के मामले में भी क्या यह बात लागू हो सकती है?


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कोई देश, समाज चाहे जिस विचारधारा से प्रेरित हो, अंततः वे वही काम करते हैं जो उनके अपने हित में होता है. तालिबान इससे अलग होगा, इसका क्या कोई संकेत उपलब्ध है? उसकी जीवन पद्धति; इस्लाम की उसकी व्याख्या; महिलाओं, शिक्षा, और नागरिक अधिकारों के बारे में उसके विचार आधुनिक समाजों को निंदनीय लगते होंगे लेकिन इससे क्या वे भारत के दुश्मन ही साबित होते हैं? क्या वे भारत से युद्ध लड़ने जा रहे हैं या हमारे खिलाफ पाकिस्तान की लड़ाई में उसका साथ देने जा रहे हैं? इससे उन्हें क्या हासिल होगा? क्या वे भारत को एक इस्लामी मुल्क में तब्दील कर पाएंगे, या हमें किसी खिलाफत का हिस्सा बना देंगे?

तालिबान दक़ियानूसी, बर्बर, मध्ययुगीन, महिला विरोधी, गैरभरोसेमंद, या इन सबसे भी बुरे हो सकते हैं, लेकिन वे मूर्ख या आत्मघाती नहीं हैं. वरना वे दो दशकों तक लड़ाई में डटे नहीं रहते और अमेरिका को परास्त न कर पाते. बीते दौर के मुजाहिदीन के विपरीत उन्हें बड़ी ताकतों से हथियारों के रूप में सहायता नहीं मिली. केवल पाकिस्तान ही उनकी मदद कर रहा था, वह भी चोरी-छिपे.

भारत के पश्चिम क्षेत्र को जो रणनीतिक नज़र पाकिस्तानी चश्मे से देखती है उसका एक उलटा पहलू भी है. हम इस बात से परेशान हो जाते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान को एक मशहूर जीत सौंप कर वापस लौट रहा है, कि पाकिस्तान को अब वह हासिल हो गया है जो वह हमेशा चाहता रहा— रणनीतिक गहराई. लेकिन यह जीत कितनी भ्रामक है यह जानने के लिए ‘फॉरेन अफेयर्स’ में हुसैन हक़ानी का उम्दा लेख पढ़िए.

इस क्षेत्र, इसके इलाकों के नक्शे पर नज़र डालते ही आपको पता चल जाता है कि इस तरह का खामखयाली रावलपिंडी में जनरल हेडक्वार्टर में बैठे बुद्धिमान ही पाल सकते हैं जिनकी बुद्धि के बारे में माना जाता है कि वह उनके सिर में नहीं बल्कि शरीर के किसी और हिस्से में है. इन लोगों ने ही 1986-87 के बाद से यह यह सपना देखना शुरू किया. तब से क्यों? क्योंकि जनरल के. सुंदरजी के ‘ऑपरेशन ब्रासटैक्स’ ने यह दुःस्वप्न दिखा दिया था कि हजारों भारतीय टैंक किसी जलजले की तरह या वारसा संधि की शैली में पाकिस्तान के संकरे हिस्सों में दौड़ लगाकर उससे उसे अलग कर सकते हैं.

लेकिन इसके 35 साल बाद आज दुनिया बदल चुकी है और इसके साथ रणनीतिक तथा सामरिक तस्वीर भी बदल चुकी है. परमाणु हथियार आ चुके हैं. अगर कुछ पाकिस्तान जनरल अभी भी यह ख्वाब देख रहे हों कि वे हिंदुकुश होते हुए अफगानिस्तान पहुंच सकते हैं या वहां कोई रणनीतिक जमावड़ा कर सकते हैं, तो वे निश्चित ही बहुत भोले हैं.

वैसे, वे उतने भोले भी नहीं हैं. 75 वर्षों में दुनिया समझ चुकी है कि पाकिस्तानी सेना क्या है. सामरिक रूप से वह बेशक शानदार है लेकिन रणनीतिक दृष्टि से वह भ्रमित और लापरवाह है. लेकिन क्या वह अपने दोस्त तालिबान के अधीन अफगानिस्तान के किसी वायुसैनिक अड्डे पर परमाणु हथियार या बहुमूल्य एफ-16 विमानों के दो स्क्वाड्रन भी तैनात कर सकती है?

बिना किसी चश्मे के अंदर से देखते हुए हम एक तटस्थ आकलन कर सकते हैं कि अफगानिस्तान में कौन जीता और कौन हारा. तालिबान बेशक जीता, और अमेरिका तथा उसके साथी हारे. लेकिन पाकिस्तान का क्या? पिछले दो दशकों में तालिबान ने यह तो साबित कर ही दिया है कि वे अपने ‘बिग ब्रदर’ से ज्यादा स्मार्ट हैं. पाकिस्तान ने अपनी रणनीतिक गहराई हासिल करने के लिए उनके मुल्क का इस्तेमाल करने का सपना देखा. लेकिन इन वर्षों में तालिबान ने समीकरण बदल दिया है. उन्होंने अपनी रणनीतिक गहराई हासिल करने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल किया है.

उस गहराई का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अमेरिका को परास्त किया, जिसने दो दशक पहले हमारे क्षेत्र में कदम रखा था. बाइडन जीत का दावा कर रहे हैं कि ‘हमने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया’, लेकिन उनका दावा उतना ही खोखला है जितना बुश की यह आलोचना कि अमेरिका ने हड़बड़ा कर वापसी की है. लेकिन बाइडन ने उस अपमानजनक हकीकत को कबूल किया है जिसे कबूल करने को बुश तैयार नहीं हैं. वह यह कि अफगानिस्तान रॉक बैंड ईगल्स का कोई होटल कैलिफोर्निया नहीं है जहां आप मनमर्जी दाखिल हो सकते हैं और बाहर आ सकते हैं. वे निश्चित रूप से वापस लौट गए हैं. उन्होंने यह घोषणा भी कर दी है कि एक नये अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण अमेरिका का लक्ष्य कभी नहीं रहा. इसका सीधा मतलब है— इस्तेमाल करो और खारिज करो.

अमेरिका एक शून्य छोड़कर गया है. तालिबान हर दिन अपना कब्जा बढ़ा रहे हैं. अब देखना यह है कि पाकिस्तान का क्या होता है. अगर लड़ाई लंबे समय तक जारी रही, तो फौरन फायदे हासिल करने के उसकी उम्मीदें खत्म हो जाएंगी. युद्ध से त्रस्त, बेघर लोग, शरणार्थी, सब पैदल ही डूरण्ड रेखा पार करने लगेंगे. तालिबान अगर पाला बदलवाकर और योद्धाओं से सौदे करके इस लड़ाई को जल्दी निबटा देते हैं तब भी वे पाकिस्तान को कितना नियंत्रण सौंपेंगे? खासकर तब जबकि उन्हें उसकी रणनीतिक गहराई की जरूरत नहीं रह जाएगी?


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आप कह सकते हैं कि वे चीन और पाकिस्तान के बीच की चक्की में फंस जाएंगे. इसलिए उनके लिए हमेशा के वास्ते एक ‘ग्राहक’ बनकर रहने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है. लेकिन अफगानिस्तान का इतिहास ऐसा नहीं रहा है. जो भी हो, कहने को यही रह जाता है कि वह इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाली ईरान और रूस जैसी ताकतों से सुलह कर सकता है.
ऐसी बात कहने में जोखिम यह है कि आपको तालिबान की ओर से सफाई देने वाला कहा जा सकता है. लेकिन हकीकत यह है कि भारत उनसे बात कर रहा है, और इसका ढोल नहीं पीट रहा. इस बात की कोई संभावना नहीं है कि ग़नी की सरकार तालिबान को युद्ध में हरा पाएगी. वह कुछ प्रमुख, सैनिक अड्डों वाले शहरों में हिंसक गतिरोध जरूर पैदा कर सकती है. भारत के लिए सबसे अच्छी बात यही होगी कि बातचीत से कोई यथार्थपरक समझौता हो जाए जिससे शांति बहाल हो और कम से कम खूनखराबा से सत्ता का बंटवारा हो जाए. भारत वहां कुछ वजन तो रखता है लेकिन इतना नहीं कि वह सैन्य टकराव को प्रभावित कर सके. भूगोल और भू-राजनीति इसमें आड़े आती है.

रणनीतिक रूप से यह सबसे व्यावहारिक रास्ता है. तालिबान को भारत से लड़ने की कोई जरूरत या मजबूरी नहीं है. वे हमारे खिलाफ पाकिस्तान का युद्ध तो नहीं ही लड़ेंगे. उनके पास इतनी इच्छाशक्ति है, और न इतना साधन है कि वे भारत के मुसलमानों को रूढ़िवाद का पाठ पढ़ा सकें. इसके अलावा उन्हें एक विभाजित, अस्थिर देश से प्रतिभा और पूंजी के पलायन के कारण अपनी ही समस्याओं का सामना करना पड़ेगा.

भारत को इस रास्ते पर चलना है तो मोदी सरकार को भी अपना चश्मा हटाकर देखना पड़ेगा कि किसी राजनीतिक ताकत को सिर्फ इसलिए दुश्मन नहीं माना जा सकता कि वह इस्लामी कट्टरपंथी है. हमें मालूम है कि यह उसकी चुनावी रणनीति का केंद्रीय मुद्दा है. वह ध्रुवीकरण किए बिना नहीं जीत सकती. लेकिन भारत के इर्दगिर्द दुनिया बदल गई है. उसे भी खुद को बदलना पड़ेगा.

पाकिस्तान के मामले में दबाव की गुंजाइश फिलहाल खत्म हो गई है. यह तब तक के लिए तो हो ही गया है जब तक चीन लद्दाख में जमा हुआ है. उसके मन में क्या है? मेरी तो यह इच्छा यह हो रही है कि हम शी जिनपिंग से पूछें कि इस सप्ताह अचानक उन्होंने तिब्बत का पहला दौरा क्यों किया? मोदी सरकार ने दुनिया में सुन्नी कट्टरपंथ के रक्षक सऊदी अरब की ओर भी हाथ बढ़ाया है. और दुश्मन के दोस्त से दोस्ती करने के सिद्धांत का पालन करते हुए यूएई की ओर भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. लेकिन पूरी संभावना यही है कि अफगानिस्तान वैसा इस्लामी अमीरात नहीं बनेगा जैसा तालिबान चाहता है. ऐसा हुआ भी, तो क्या भारत उसे तेल से रहित सऊदी अरब जैसा मान सकता है? एक और ऐसी ताकत, जिससे खास तौर से इसलिए दोस्ती की जा सकती है कि वह दुश्मन की दोस्त है?

यह संभव है, और विवेकपूर्ण भी. इसके लिए सिर्फ भाजपा को अपनी घरेलू राजनीति में बड़ा परिवर्तन करना होगा. तब उसके लिए चुनौती एक ऐसा फॉर्मूला तैयार करने की होगी, जो हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के फॉर्मूले से भिन्न हो.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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