हाल ही में मैंने सोशल मीडिया पर एक वीडियो देखा जिसमें एक लड़की ने बताया कि कनाडा में रहना उनकी सोच से काफी अलग है. उन्होंने बताया कि भारत में ज़िंदगी कितनी आसान है; डिलीवरी एजेंट उनके घर से रिटर्न पार्सल लेने आते हैं, जबकि कनाडा में ऐसा नहीं है. यहां, उन्हें अपने लेबल खुद प्रिंट करने पड़ते हैं और अपने रिटर्न पैकेज को पोस्ट ऑफिस में छोड़कर आना पड़ता है. वीडियो काफी वायरल हुआ और इस बारे में एक नई चर्चा शुरू की कि कैसे भारतीय अक्सर घर पर आराम से रहते हैं और क्या विदेश जाना इस लायक है.
विदेश में बसने के फायदों पर अलग से बहस की जा सकती है. भारतीयों को सबसे पहले अपने विशेषाधिकारों को स्वीकार करना होगा, जो उन्हें सस्ते श्रम का शोषण करने की अनुमति देते हैं. अब समय आ गया है कि हम अपने आराम की असल कीमत और हमारे समाज के लिए इसके क्या मायने हैं, इस पर बातचीत शुरू करें.
कई सोशल मीडिया वीडियो में छात्र भारत में अपने सुविधाजनक ज़िंदगी के बारे में बात करते हुए देखे जाते हैं. मैं ऐसी बातचीत का हिस्सा हुआ करती थी और इसी तरह सोचती थी, जब तक मुझे एहसास नहीं हुआ कि मेरा आराम आय की असमानता और सस्ते श्रम के शोषण में निहित था और यह इतना सामान्य हो गया है कि अधिकांश लोग यह भी नहीं देख पाते कि आखिर गलत क्या है.
पश्चिम की प्रशंसा करें, मगर उससे सीखें भी
हममें से बहुत से लोग इस बात की प्रशंसा करते हैं कि पश्चिमी देशों, खासतौर पर यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों ने ऐसी व्यवस्थाएं बनाईं हैं, जहां कामगार सम्मानजनक जीवन जीने के लिए पर्याप्त कमा सकते हैं. वो मज़बूत सामाजिक कल्याण व्यवस्थाओं, सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा और मज़बूत श्रम सुरक्षा के ज़रिए अपने कामकाजी वर्ग के नागरिकों के लिए आराम सुनिश्चित करने में सफल रहे हैं. हालांकि, हम यह समझने में विफल रहते हैं कि ऐसे समाज का निर्माण श्रम के प्रति अंतर्निहित सम्मान के कारण संभव हुआ है. इन देशों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा खुशी-खुशी अपने रोज़मर्रा के काम की ज़िम्मेदारी लेना या ज़रूरत पड़ने पर सम्मानजनक वेतन पर घर के नौकरों को काम पर रखना पसंद करता है. आपको जो वेतन मिलना चाहिए, उसके लिए आपको डॉक्टर या इंजीनियर होने की ज़रूरत नहीं है.
हम उसी समाज की नकल करने की ख्वाहिश रखते हैं, लेकिन यह समझने में विफल रहते हैं कि असमानता को कम किए बिना यह संभव नहीं है. हमें उन विशेषाधिकारों को कम कीमत पर छोड़ना ज़रूरी है, जिनका हम आनंद लेते हैं, ताकि हर व्यक्ति शोषण से मुक्त और सम्मान से ज़िंदगी जी सके. असमानता पर गर्व करने की कोई बात नहीं है. यह केवल एक ऐसी व्यवस्था को बनाए रखती है, जहां कुछ लोग कम भाग्यशाली लोगों की कीमत पर विशेषाधिकारों का आनंद लेते हैं.
वीडियो में शिकायत करने वाली महिला यह नहीं समझ पा रही हैं कि उनके पार्सल उठाने वाले लोग इंसान हैं या तो आप उनके काम के लिए उचित कीमत चुकाते हैं, या फिर खुद ही यह काम करते हैं.
एक बार यूनाइटेड किंगडम में किसी मेडिकल इमरजेंसी के दौरान, मुझे एक निजी अस्पताल में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा – देश की सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित स्वास्थ्य सेवा प्रणाली – तक पहुंचने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ा. यू.के. में निजी क्लीनिक भारत की तुलना में कहीं ज़्यादा महंगे हैं. यहीं पर एन.एच.एस. की भूमिका आती है, जो बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के बेहतरीन इलाज देता है. हालांकि, बाद में मुझे पता चला कि कभी-कभी इसका उपयोग करना थोड़ा असुविधाजनक हो सकता है, लेकिन थोड़ा धैर्य यह सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को उसकी वित्तीय पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना एक स्तर की मेडिकल देखभाल मिले. मैं यह तर्क नहीं दे रही हूं कि यह एक आदर्श प्रणाली है और इसमें सुधार नहीं किया जा सकता है, लेकिन मेरी थोड़ी सी असुविधा की कीमत पर हर व्यक्ति के लिए विश्व स्तरीय मेडिकल सुविधाएं देना मेरे लिए कहीं बेहतर विकल्प है.
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हम सुधारों में विफल
जबकि विशेषाधिकार प्राप्त और धनी लोगों के एक महत्वपूर्ण वर्ग को अधिक जागरूक होने और कम भाग्यशाली लोगों के प्रति संवेदनशीलता विकसित करना होगा, यह केवल उन लोगों के प्रति दयालु होने के बारे में नहीं है जो आपके संपर्क में आते हैं या दान देते हैं. सच्ची करुणा व्यक्तिगत परिचितों से परे है और हमारे समुदाय में अजनबियों को गले लगाती है. हम एक ऐसी प्रणाली बनाकर इसे हासिल कर सकते हैं जो समाज में सभी को लाभान्वित करे. एक ऐसी प्रणाली जो सभी के लिए ज़िंदगी जीने की योग्य न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करती है.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि समाज को अपनी मानसिकता बदलने की ज़रूरत है, लेकिन हम महत्वपूर्ण शासन सुधारों को लागू करने में भी बुरी तरह विफल रहे हैं. 78-वर्षों के स्वशासन और कई योजनाओं के बावजूद, क्रियान्वयन से पता चलता है कि अभी भी बहुत कुछ अपेक्षित है. हमारे पास गरीब भारतीयों के कल्याण सहित विभिन्न मुद्दों से संबंधित नियमों, विनियमों और कानूनों की भरमार है, लेकिन कानून प्रवर्तन की वास्तविकता सर्वविदित है.
भारतीयों को नरेंद्र मोदी सरकार से उम्मीद है क्योंकि कांग्रेस प्रभावी समाधान प्रदान करने में सफल नहीं हुई. हालांकि, कार्यान्वयन में असंगति अब भी दिखाई देती है. भारत के संशोधित श्रम संहिता संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के लोगों को कवर करने का दावा करते हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही दिखाती है. अपर्याप्त कानून प्रवर्तन के साथ-साथ हर राज्य के अपने श्रम कानून होने के कारण जटिल ढांचे के कारण स्थिति और भी खराब हो गई है.
इन मुद्दों को संबोधित करने और अधिक समान समाज बनाने का समय आ गया है. हम अपने विशेषाधिकारों का बखान करने से बेहतर कुछ नहीं कर सकते, जो अक्सर केवल इसलिए मौजूद होते हैं क्योंकि गरीब लोग कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर होते हैं. यह हमें पश्चिम से बेहतर नहीं बनाता, बल्कि एक समाज के रूप में हमारी विफलता को उजागर करता है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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