जब उसे बॉम्बे कहा जाता था, यह तब की बात है. वहां शराबबंदी लागू थी और केवल विदेशी लोग ही होटलों के बार में शराब का लुत्फ उठा सकते थे. एक व्यंग्यकार ने लिखा कि किस तरह उसकी काल्पनिक बीवी एक महंगे होटल के बार में चली गई थी और शराब परोसे जाने की मांग की थी. जब उसे कहा गया कि केवल विदेशियों को शराब पेश की जाएगी, तो उसने एक ऐसा सवाल कर दिया जिसका कोई जवाब नहीं था, कि ‘यह किसका देश है भला?’
यह सवाल आज हम सबको तब उठाना चाहिए जब कोई यह लिखता या कहता है कि हम विदेशियों से उचित दर से टैक्स वसूलें, उनके लिए कारोबार या निवेश के लिए विशेष और आसान रास्ते बनाएं या निवेश एनक्लेव बनाएं. इसलिए कि वे अपना डॉलर लेकर कहीं और न चल दें. आमतौर पर यही तर्क दिया जाता है. आयकर की दर ऊंची होगी तो प्रवासियों को नौकरी पर रखना मुश्किल हो जाएगा या विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक भारतीय बाज़ार से मुंह मोड़ लेंगे या हमें अपने टूरिस्ट ठिकानों को साफ-सुथरा रखना चाहिए, ताकि ज्यादा विदेशी सैलानियों को आकर्षित किया जा सके. आप पूछेंगे, केवल विदेशियों को ही क्यों? अपने लोगों को क्यों नहीं, जो यहीं रहते हैं और काम करते हैं और टैक्स भी देते हैं? क्या हम इस लायक नहीं हैं कि हम पर बेहतर टैक्स और दूसरे नियम लागू किए जाएं, हमें रहने और काम करने के लिए साफ-सुथरे शहर मिलें? लेकिन, क्या भारतीय नागरिकों से इसलिए अलग बरताव किया जाए कि वे बंधक जैसे हैं, कहीं भाग नहीं सकते?
जो भी हो, भारत आज पहले जैसी आर्थिक जेल नहीं है, जब आप देश से केवल आठ डॉलर लेकर ही बाहर जा सकते थे. बाद में, विदेश भ्रमण की उदार व्यवस्था के तहत आपको 100 डॉलर लेकर बाहर जाने की छूट मिली. हम उतने खराब नहीं हैं, जितना सोवियत संघ था, जहां बेरीओज्का सुपर मार्केट चलता था. जिसमें केवल पश्चिम के सैलानी ख़रीदारी कर सकते थे (वैसे, सोवियत कुलीनों ने भी उसमें घुसने का रास्ता बना लिया था या हम चीन जैसे भी नहीं हैं, जहां कई वर्षों तक विदेशी लोग केवल विशेष तौर पर जारी विदेशी मुद्रा सर्टिफिकेटों का ही इस्तेमाल कर सकते थे. लेकिन, यह बहुत बुरा था.
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भारत समेत कई बंद व्यवस्थाओं ने अपने दरवाजे खोल दिए हैं. आज कोई भी समझदार सरकार वैसे क़ानूनों को लागू करने की कोशिश नहीं करेगी. उसने ऐसी कोशिश की तो भी ये कानून कारगर नहीं होंगे. पहले भी वे कारगर नहीं हुए. स्विस बैंकों और दूसरे टैक्स स्वर्गों में जो भी भारतीय पैसा जमा हुआ वह कोई आसमान से नहीं टपका. उस समय तस्करी ज़ोरों पर थी और हवाला का धंधा खूब फल-फूल रहा था. इनका कुछ पैसा घूमकर विदेश से निवेश के रूप में वापस भी लौटा. ऐसा भी दौर था जब भारतीय लोग भी लौटने लगे थे. घरेलू माहौल बेहतर होने से मदद मिली. बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा की मांग पर नए निजी अस्पताल और स्कूल सक्रिय हुए. कार से लेकर फोन और हवाई सेवाएं बेहतर हुईं. इसके बावजूद, हाल के वर्षों में अमीर और पेशे में सफल भारतीयों ने अपने पैरों पर खड़े होकर हवाई टिकट के साथ वोट दिए हैं. एक सुखद आंकड़ा यह है कि ऊपरी तबके के करीब डेढ़ लाख भारतीय हाल के वर्षों में दुबई, सिंगापुर या पश्चिमी तटों पर जा बसे हैं. शुरू में वे ‘टैक्स आतंक’ के, जो प्रणव मुखर्जी के 2012 के बजट से पैदा हुआ था, कारण पलायन कर रहे थे. इसके बाद प्रभावी कारोबार की जगह को लेकर नए नियम आए. जिन्होंने कई लोगों को अपना रिहाइशी पता बदलने को प्रेरित किया. कई लोग शहरों में खतरनाक होते प्रदूषण, स्कूलों में दाखिले में दिक्कतों और पानी की किल्लत के कारण इसके लिए मजबूर हुए.
पहले की तरह पलायन करना आसान है. लाखों भारतीयों ने ऐसी अंतरराष्ट्रीय या उच्चस्तरीय भारतीय डिग्रियां हासिल कर ली हैं. जिन्होंने उन्हें ग्लोबल स्तर पर बिकाऊ बना दिया है. अमेरिका, पश्चिम एशिया और दूसरी जगहों पर बसे लाखों अप्रवासी भाईचारा के तहत प्रवास को आसान बनाते हैं. ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भारतीयों को अपेक्षित प्रवासी के तौर पर निशाना बनाते हैं. कुछ तो इसलिए कि चीनियों के आगमन के प्रभावों को बेअसर किया जा सके. संक्षेप में, अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने में अहम भूमिका निभाने वाले तबकों के भारतीय बाहर जा सकते हैं, जाते रहे भी हैं.
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इसलिए हमें नागरिकों के साथ यह मान कर बरताव करना होगा कि उनके पास विकल्प हैं. भले ही उनमें से अधिकतर के पास विकल्प न हों. अगर विदेशियों के लिए उचित टैक्स दरें लागू करने की जरूरत है, तो अपने नागरिकों के लिए अलग दरें क्यों? विदेशी व्यापारी अगर कानून के शासन का आश्वासन चाहते हैं, तो अपने नागरिक (सरकार के आलोचक भी विशेष तौर पर इनमें शामिल किए जाने चाहिए) भी यही चाहते हैं. ‘सहज जीवन’ एक बड़ी बात है. मसलन, टैक्स वाले अधिकारियों के चंगुल से स्वतः सुरक्षा की पेशकश. लेकिन, हम विदेशियों को अपने नियमों-क़ानूनों से बचकर निकलने में मदद की पेशकश न करें. बंद एवं दमनकारी व्यवस्था यही करती है. लेकिन हम जो भी करें, एक खुले लोकतंत्र के तौर पर सबके लिए करें, अपने नागरिकों के लिए भी.
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