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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतरुपया गिरता है तो गिरे, कपड़े के निर्यात को बढ़ावा देने से ही रोज़गार के अवसर पैदा होंगे

रुपया गिरता है तो गिरे, कपड़े के निर्यात को बढ़ावा देने से ही रोज़गार के अवसर पैदा होंगे

जीडीपी के अनुपात में निर्यात में ख़ासी गिरावट आई है. अगर इन प्रवृत्तियों को उलटा नहीं जाता और निर्यात को मजबूती नहीं दी जाती तो अर्थव्यवस्था का संकट दूर नहीं होगा.

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जब घरेलू मांग घट जाती है, प्रतिस्पर्द्धि अर्थव्यवस्थाएं निर्यात बाज़ारों की ओर देखने लगती हैं. दरअसल, जिस भी देश ने तेजी से प्रगति की है उसने कामयाब निर्यातक बनकर ही ऐसा किया है. भारत में हाल में जो मंदी आई है उसका मूल कारण यह है कि वह निर्यात, खासकर व्यापारिक माल के निर्यात को गति देने में विफल रहा है. जीडीपी के अनुपात में निर्यात में ख़ासी गिरावट आई है. अगर इन प्रवृत्तियों को उलटा नहीं जाता और निर्यात को मज़बूती नहीं दी जाती तो अर्थव्यवस्था का संकट दूर नहीं होगा. लेकिन तमाम बातें आयातों की जगह घरेलू उत्पादनों के उपयोग को (यह कुशलता से किया जाए तो यह अच्छी चीज़ है) और शुल्कों को बढ़ाने की ही की जा रही है.

शंकालुओं का कहना है कि जब विश्व व्यापार की ही हालत खराब है तब निर्यात पर ज़ोर देना मुश्किल है. गारमेंट (सिलेसिलाए वस्त्र) का व्यापार भी स्थिर है. फिर भी, वियतनाम, इंडोनेशिया, और कंबोडिया ने निर्यात में तेजी दर्ज़ कराई है. और बांग्लादेश भारत से आगे बना हुआ है. इसकी वजह यह है कि वह चीन के नक्शेकदम पर चल रहा है. चीन हर महीने 20 अरब डॉलर मूल्य के गारमेंट निर्यात किया करता था, जो अब घटकर 12 अरब डॉलर का हो गया है (भारत को यह आंकड़ा छूने में नौ महीने लगते हैं. यह गिरावट पूर्वी एशिया और बांग्लादेश में भी आई है और कुछ हद तक भारत में भी. बांग्लादेश भारत से होने वाले निर्यात के 60 प्रतिशत के बराबर ही निर्यात किया करता था, अब वह इसके दोगुने के बराबर निर्यात कर रहा है. वियतनाम ने भी भारत को पीछे छोड़ दिया है और उससे काफी आगे है. विडम्बना यह है कि बांग्लादेश भारत से सूत, धागा, और फैब्रिक मंगाता है.


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गारमेंट निर्यात व्यापार घाटा को कम करने में मदद करने के अलावा जटिल समस्याओं का हल भी करता है. किसी भी दूसरे बड़े उद्योग के मुक़ाबले गारमेंट उद्योग कहीं ज्यादा रोजगार पैदा करता है- औटोमोबील/इंजीनियरिंग सेक्टर के मुक़ाबले 10 गुना से ज्यादा, तो रसायन और पेट्रोकेमिकल उद्योग के मुक़ाबले 100 गुना. इसलिए उद्योग के टर्नओवर का अधिकांश हिस्सा वेतन में जाता है, जिससे घरेलू उपभोग और मांग को बढ़ावा मिलता है (जिस पर इन दिनों ज्यादा ज़ोर दिया जा रहा है). इसके अलावा, इस उद्योग में ज़्यादातर कामगार महिलाएं हैं— कामगारों में जिनकी घटती संख्या चिंता का विषय बन गई है. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कुल रोजगार का एक तिहाई चूंकि कपड़ा/ गारमेंट सेक्टर में है, गारमेंट निर्यात को बढ़ावा देने से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार को भारी बढ़ावा मिल सकता है.

इसमें अवसर अभी भी मौजूद हैं क्योंकि चीनी निर्यातकों को अमेरिकी शुल्कों में बढ़ोतरी (हालांकि अभी ये शुल्क गारमेंट पर नहीं लागू हुए हैं), बढ़ती लागत, और बेहद मामूली मुनाफे का खतरा पैदा हो गया है. भारत के लिए मुश्किल यह है कि उसे समान अवसर नहीं मिल रहे हैं. ‘अविकसित देश’ होने के कारण बांग्लादेश को यूरोप, कनाडा, और जापान के बाज़ारों में ड्यूटी-फ्री पहुंच बनाने का फायदा मिल रहा है. वियतनाम और श्रीलंका को भी यूरोप में मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) के कारण यह लाभ मिल रहा है. बांग्लादेश को यूरोप में 2024 से यह फायदा मिलना बंद हो जाएगा लेकिन तब वह भी एफटीए पर दस्तखत कर सकता है. जिस कारोबार में मुनाफा बेहद मामूली हो उसके लिए 10 प्रतिशत का शुल्क मौत का सामान ही बन जाता है. यूरोपीय संघ के साथ भारत का व्यापार संतुलित है लेकिन भारत में जापानी कार कंपनियों की लॉबीइंग के कारण वह एफटीए नहीं कर पा रहा.

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हाल के वर्षों में सरकार ने लचीले श्रम क़ानूनों और प्रोविडेंट फंड खातों में योगदान देकर (इस तरह बांग्लादेश में मिलने वाले वेतन से अंतर को घटाकर) मदद की है. नई मैन्युफैक्चरिंग यूनिटों को 17 प्रतिशत की टैक्स दर की पेशकश से एक और फर्क को दूर किया गया है. लेकिन निर्यातकों को खराब बुनियादी ढांचे और बंदरगाह पर समय खाने वाली प्रक्रियाओं के रूप में दूसरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. रुपये के ओवर वैलुएशन को ठीक करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.

वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने हाल में एक इंटरव्यू में कहा कि उन्हें समझ में नहीं आता कि देश को जब इतना बड़ा व्यापार घाटा झेलना पड़ रहा है तब रुपये को सस्ता करने से कैसे बात बनेगी. इसका जवाब पाने के लिए वे 1966 के मुद्रा अवमूल्यन के बाद व्यापार से संबन्धित आंकड़ों पर नज़र डाल सकते हैं. समय के साथ निर्यात बढ़ा और आयात घटा. चार साल में व्यापार घाटे में 80 प्रतिशत की कमी आई थी.

इसी तरह 1991 के मुद्रा अवमूल्यन से पहले पांच साल का औसत व्यापार घाटा निर्यातों के 40 प्रतिशत के बराबर था लेकिन अवमूल्यन के बाद इसमें कमी आई और लगभग एक दशक तक यह काफी नीचा रहा. आज भारी अवमूल्यन संभव नहीं है क्योंकि अमेरिका उन देशों पर नज़र रखता है, जिन्हें वह मुद्रा के साथ छेड़छाड़ करने वाला मानता है, लेकिन उपाय तो कई हो सकते हैं. रुपये की बढ़ी हुई कीमत को सुधारना न केवल मुमकिन है, बल्कि निर्यात में तेजी लाने के लिए इसकी तुरंत जरूरत है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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