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Thursday, 11 September, 2025
होममत-विमत'तेंदुए' उमर खालिद के ही नहीं बल्कि आपकी जिंदगी के भी कुछ साल खा सकते हैं

‘तेंदुए’ उमर खालिद के ही नहीं बल्कि आपकी जिंदगी के भी कुछ साल खा सकते हैं

यह सब केवल भारत में ही नहीं चल रहा है. दुनियाभर में जो लोग तानाशाही की अतिवादी कार्रवाइयों पर तालियां बजाते हैं वे पाते हैं कि बुलडोजर उनके दरवाजे पर भी आ पहुंचा है

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आपको उमर खालिद से नफरत करने की पूरी छूट है. उनकी किसी बात से सहमत होना भी आपके लिए जरूरी नहीं है. आप उनकी सियासत से भी पूरी तरह नफरत कर सकते हैं. लेकिन इस बात पर आपका ध्यान जाना ही चाहिए कि वे पांच साल से जेल में बंद हैं, बिना किसी मुकदमे के. उनके साथ जो सलूक किया जा रहा है वह उस निज़ाम के बारे में क्या खुलासा कर रहा है और आखिर में यह आपके लिए क्या साबित हो सकता है, इसे समझने के लिए आपको खालिद का पक्ष लेने की जरूरत नहीं है.

पिछले सप्ताह दिल्ली हाइकोर्ट ने 2020 के दिल्ली दंगों की साजिश के आरोप में गिरफ्तार खालिद और आठ अन्य लोगों को जमानत देने से इनकार करते हुए 133 पेज का फैसला सुनाया. फैसले के इतने लंबे दस्तावेज़ से तो यही लगेगा कि मामले पर गहन विचार किया गया. लेकिन कई विशेषज्ञों ने कहा कि इसके मजमून से यही जाहिर होता है कि इसमें कानून के बुनियादी सिद्धांतों का जिस तरह उल्लंघन किया गया है वह चिंताजनक है. इस फैसले ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित इस बुनियादी सूत्र को स्पष्ट तौर पर खारिज कर दिया है कि ‘बेल (जमानत) ही रूल (नियम) है, और जेल अपवाद है”. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल कहा था कि “स्वाधीनता के मामले में एक दिन की देरी भी लंबी होती है… किसी को स्वाधीनता से एक दिन के लिए भी वंचित नहीं किया जा सकता. प्रक्रिया सजा न बने.”

लेकिन दिल्ली हाइकोर्ट का मानना है कि बिना सुनवाई के पांच साल तक जेल पर्याप्त सजा नहीं है. उसने घोषणा कर दी कि ‘गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) एक्ट’ के दायरे में आने वाले ‘गंभीर’ अपराधों के मामले में बेल वाला रूल नहीं लागू होगा.

कई पत्रकारों और कानूनविदों ने खालिद और अन्य आठ आरोपियों के खिलाफ लगाए गए उन आरोपों को रेखांकित किया है, जो कई तरह के झूठ पर आधारित हैं. अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया है कि खालिद 2020 के दिल्ली दंगों की ‘गहरी’ साजिश में शामिल थे, जिसमें 54 लोग मारे गए और 1500 से ज्यादा संपत्तियों को नुकसान पहुंचा था. खालिद और उनके साथियों ने व्हाट्सअप मेसेजों और ‘गुप्त बैठकों’ के जरिए ‘चक्का जाम’ करने की साजिश रची. इसे ‘यूएपीए’ कानून के तहत आतंकवाद माना गया है. आरोप लगाया गया कि जेएनयू के छात्र खालिद ने नागरिकता संशोधन एक्ट (सीएए) की आलोचना करते हुए भाषण दिया, जबकि हकीकत यह है कि उस भाषण में विरोध के गांधीवादी तरीके को अपनाने की बात की गई थी.

दूसरे आरोपियों के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं वे तो और भी विचित्र हैं. गुलफिशा फातिमा ने महिलाओं का जुलूस निकलवाया. नताशा नरवाल और देवांगना कालिता ने भी विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया. ये सब हमारे संवैधानिक अधिकारों में शामिल हैं, फिर भी कुछ ही आरोपियों को जमानत दी गई है.

लेकिन सबूत कमजोर हैं. अभियोजन पक्ष ने विरोध प्रदर्शनों के तालमेल के मामले में ‘रेडियम’ और ‘सोडियम’ जैसे छद्म नामों वाले ‘संरक्षण प्राप्त गवाहों’ की उस गवाही का सहारा लिया है, जो खासतौर से व्हाट्सअप चैट्स पर आधारित है. इन गवाहों का दावा है कि गुप्त बैठकों में “हिंसा बढ़ाने और दिल्ली के कुछ इलाकों में आग लगा देने पर बातचीत की गई”. सार यह कि अभियोजन पक्ष ने विरोध प्रदर्शनों की तैयारियों को आतंकवाद का मामला बनाकर पेश किया. इसकी पुष्टि गुमनाम गवाहों से कारवाई गई जिन्हें ऐसे कानूनी मानक के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती, जो आरोपी को बेकसूर मानने के बदले दोषी मानकर चलता है.

एक उदाहरण

संविधानविद गौतम भाटिया ने ‘फाइव इयर्स ऑफ (ए) लाइफ-1: द बेल ऑर्डर इन देल्ही रायट केसेज़’ शीर्षक अपने ब्लॉग में लिखा है कि “अभियोजन पक्ष की मुसीबत यह है कि इनमें से किसी शख्स ने हिंसा या दंगे को भड़काने वाला सार्वजनिक भाषण नहीं दिया”, इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हें पूरे मामले को साजिश का मामला बनाना था. भाटिया कहते हैं कि परिस्थितिजन्य मामलों में कोई अदालत दो काम कर सकती है.

“जमानत से इनकार (जेल में बंद रखने) के गंभीर नतीजों के मद्देनजर वह ‘आंखें पूरी तरह खुली रखने’ वाला तरीका अपना सकती है, जिसका मतलब यह है कि अभियोजन पक्ष जो गवाही दर्ज करवा रहा है वह ठोस और स्पष्ट हो, और तथ्य तथा निष्कर्ष (अपराध) के बीच स्पष्ट संबंध हो. या फिर, अदालत ‘आंखें पूरी तरह बंद रखने’ वाला तरीका अपना सकती है, जो दर्ज की गई गवाही को न केवल मंजूर करती है बल्कि उस गवाही से अभियोजन पक्ष ने जो निष्कर्ष निकाला है उसे जस का तस कबूल करती है. भाटिया कहते हैं कि यह मामला साफ तौर पर ‘आंखें पूरी तरह बंद रखने’ वाला है.

लेकिन सत्ता-तंत्र जब आपको एक उदाहरण के रूप में पेश करना चाहता है तब न्यायशास्त्र को कोई महत्व नहीं दिया जाता. ये गिरफ्तार युवा और युवतियां अपने जीवन के बेहतरीन साल सींखचों के पीछे गुजार रही हैं क्योंकि वे यह संदेश देते हैं कि किसी भी असहमति को कुचल दिया जा सकता है, दिया जाएगा. यही वजह है कि बहुत थोड़ी सामाजिक पूंजी वाले ये युवा जेल मैं हैं और योगेंद्र यादव जैसे लोग बाहर हैं. चुनाव आंकड़ा विशेषज्ञ एवं राजनीतिक नेता योगेंद्र यादव ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा : “अगर खालिद यह कहने के कारण जेल में हैं कि ‘सीएए’ मुसलमान विरोधी है, तो मुझे भी जेल में होना चाहिए. अगर खालिद ‘सीएए’ के खिलाफ स्थानीय विरोध प्रदर्शनों का आयोजन करने के कारण जेल में हैं, तो मुझे भी जेल में होना चाहिए.”

दिल्ली हाइकोर्ट का फैसला इतना कड़ा है कि प्रमुख दक्षिणपंथी टीकाकारों ने भी इसकी आलोचना की है. लेकिन ऐसे कई ‘गर्वीले भारतीय’ हैं जो पता नहीं क्यों इस पर खूब ताली बजा रहे हैं. लेकिन, इस तमाशे के समर्थक यह नहीं समझ रहे कि नज़ीरों पर शायद ही लगाम लगाया जा सकता है. दमन के हथियार को एक बार जब सामान्य और पक्के इस्तेमाल में शामिल कर लिया जाता है तब यह व्यापक प्रयोग के लिए उपलब्ध हो जाता है. “I never thought leopards would eat MY face” (‘मैंने नहीं सोचा था कि तेंदुआ मेरा चेहरा खा जाएगा’ यानी सांप के बिल में हाथ डालने के बावजूद डंसे न जाने का भरोसा) जैसा मुहावरा इंटरनेट पर यूं ही नहीं छा जाता.

यूएपीए की असली तस्वीर साफ है. 2015 से 2020 के बीच हुई गिरफ्तारियों में 97.2% लोगों को बरी कर दिया गया. इसके बावजूद यह कानून सरकारों के लिए प्रताड़ना का आसान औजार बना हुआ है.

यह पार्किंसन रोग से पीड़ित 83 वर्षीय पादरी स्टैन स्वामी को खा गया, जिन्हें आदिवासियों के अधिकारों की मांग करने के लिए जेल भेजा गया था. स्वामी को पानी पीने के लिए स्ट्रॉ तक से वंचित किया गया. नौकरशाही की क्रूरता ने उनकी हत्या कर दी, उन्होंने जुलाई 2021 में हिरासत में दम तोड़ दिया. उनके मामले कभी सुनवाई नहीं की गई. यूएपीए ने जीएन साईबाबा को भी निगल लिया, जो व्हीलचेयर पर रहने वाले प्रोफेसर थे. वह दस साल तक जेल में सड़ते रहे और फिर बरी होकर रिहा हुए. रिहाई के कुछ महीने बाद उनकी मृत्यु हो गई. जो अपराध उन्होंने नहीं किए थे उनके लिए उन्हें जेल में बंद रखकर उनकी स्वाधीनता को नष्ट कर दिया गया. यह सूची लंबी है : एक स्कूली शिक्षक अब्दुल वाहिद शेख को 2006 के मुंबई ट्रेन बमकांड के मामले में गलत तरीके से आतंकवादी घोषित किया गया. इसी मामले में जिन 12 अन्य लोगों पर ‘मकोका’ के तहत आरोप लगाया गया था और फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी उन्हें बाद में बॉम्बे हाइकोर्ट ने बरी कर दिया.

यह प्रवृत्ति मजबूत ही होती जाती है. सामाजिक कार्यकर्ताओं और विरोधियों को अनिश्चित काल के लिए हिरासत में डालने के बाद सत्ता-तंत्र अब निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के खिलाफ नये हथियार आजमा रहा है. कुछ सप्ताह पहले, संसद ने 130वें संविधान संशोधन विधेयक को पास कर दिया जिसमें यह व्यवस्था की गई है कि आपराधिक मामलों के लिए केवल 30 दिनों के लिए भी हिरासत में रहे मंत्रियों को पद से हटना पड़ेगा. आलोचकों का कहना है कि यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के एकदम खिलाफ है, और केंद्र सरकार को विपक्षी मुख्यमंत्रियों की छुट्टी करने की खुली छूट देगा.

सत्ता-तंत्र से करीबी बनाने वाले भी पाते हैं कि उसके आगे नतमस्तक होना भी सुरक्षा की गारंटी नहीं देता. इसके सबसे बेहतर उदाहरण ‘इनफ्लुएंसर’ रणवीर इलाहाबादिया के सिवा दूसरा कोई नहीं हो सकता, जिन्होंने सत्ताधारियों के इंटरव्यू ले-लेकर अपना एक ब्रांड बना लिया था. सत्ता-तंत्र ने जब कहर ढाने का फैसला कर लिया तब इंटरव्यू में उनके भक्तिपूर्ण तथा मिठास भरे सवाल भी उन्हें बचा न सके. या हाल में उत्तर प्रदेश में भाजपा के एक मंडल उपाध्यक्ष के भाई चेतन सैनी की आत्महत्या का मामला ही ले लीजिए. सैनी ने तब ख़ुदकशी कर ली जब फलों की उनकी 20 वर्ष पुरानी दुकान को ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ में बुलडोजर से ढहा दिया गया. इससे पहले तक जब बुलडोजर का इस्तेमाल मुसलमानों के घरों को तोड़ने में किया जा रहा था तब इसे “न्याय” का प्रतीक माना जा रहा था, और इसने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कद काफी बढ़ा दिया था.

तेंदुए आएंगे

यह सब केवल भारत में ही नहीं चल रहा है. दुनियाभर में जो लोग तानाशाही की अतिवादी कार्रवाइयों पर तालियां बजाते हैं उन्हें पता चलता है कि बुलडोजर उनके दरवाजे पर भी आ पहुंचा है. अमेरिका में प्रवासियों पर सख्ती करने के लिए डोनल्ड ट्रंप का समर्थन करने वाले मतदाता पा रहे हैं कि ‘आईसीई’ उनके परिवारों में भी तोड़फोड़ कर रहा है.

“अपराधियों और गिरोहबाजों” को देश से निकालने के वादे के तहत उन लोगों को लपेटा जा रहा है जिनके पास उपयुक्त दस्तावेज़ हैं या नहीं हैं, और उनमें वे निवासी भी शामिल हैं जिनके बच्चे अमेरिका में ही पैदा हुए हैं.

ट्रंप की नीतियों ने भारतीय विरोधी भावनाओं को फैलाने में योगदान दिया है. अमेरिकी नस्लवादियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारतीय मूल के अमेरिकी लोगों ने ‘अवैध प्रवासियों’ के खिलाफ ट्रंप की सख्ती का स्वागत किया; वे इस बात से खुश हैं कि अब H-1B वीसा भी जांच के घेरे में है. ऑस्ट्रेलिया में एक भारतीय प्रवासी ने प्रवासियों के विरोध में हुई रैली मंच पर आकार सरकार की ‘ओपन डोर पॉलिसी’ की आलोचना की. उसने कहा: “कोई भी यहां आकर अपना दावा पेश कर सकता है और मांग कर सकता है कि ऑस्ट्रेलिया उसकी खातिर खुद को बदल डाले. वे हमारी संस्कृति में घुलमिल नहीं रहे हैं, वे हमारी आजादी की रक्षा नहीं कर रहे हैं. वे उसे तोड़मरोड़ रहे हैं.” ऑस्ट्रेलियाई नस्लवादियों ने एक ‘ब्राउन’ शख्स को उनके बारे में बड़बड़ाते देखा तो उसकी बेरहमी से भद्द उड़ाई.

जैसा कि हम हमेशा जानते रहे हैं, ‘तेंदुए’ चेहरा खाने में समानता बरतते हैं. वे आपके ऊपर टूटेंगे या नहीं, यह ‘अगर-मगर’ का सवाल नहीं है बल्कि ‘कब टूटेंगे’ इसका सवाल है.

उम्र खालिद दोषी हैं या बेकसूर हैं, यह सवाल बेमानी है. जब आपकी बारी आएगी तब आप दोषी होंगे या बेकसूर, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा. जो सत्ता-तंत्र खालिद की जिंदगी के पांच साल जब्त करने में कोई सोच-विचार नहीं करता वह आपके मामले में भी सोच-विचार नहीं करेगा. उसका ब्लूप्रिंट तैयार हो चुका है, तामझाम तैयार है, और जनता को आंखें फेर लेने की ट्रेनिंग दी जा चुकी है. दखल मत दो!

करनजीत कौर पत्रकार हैं. वह पहले Arré की एडिटर थीं और अब वे TWO Design में पार्टनर हैं. उनका एक्स हैंडल @Kaju_Katri है. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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