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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतलेफ्ट ने लोकसभा चुनाव में भाजपा और टीएमसी को हराने का आह्वान किया, लेकिन किसी ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया

लेफ्ट ने लोकसभा चुनाव में भाजपा और टीएमसी को हराने का आह्वान किया, लेकिन किसी ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया

बंगाल में बढ़ती बेरोजगारी और फैली अराजकता के खिलाफ सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन में सड़कों पर भाग लेते हुए शायद ही वामपंथियों को देखा गया है.

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पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और सीपीआई (एम) के अनुभवी नेता बुद्धदेव भट्टाचार्जी ने ‘गणशक्ति’ के 5 मई के अंक में लोकसभा चुनाव में वाम दलों के लिए बड़ी चिंता की बात कही थी. उन्होंने लोगों को सत्तारूढ़ टीएमसी का समर्थन करने और भाजपा के खिलाफ होने की चेतावनी दी.

उन्होंने पूछा, ‘क्या तृणमूल कांग्रेस के ख़राब व्यवस्था से भाजपा की और ख़राब व्यवस्था को चुनना अच्छा विचार है.’

हालांकि उन्होंने सीपीआई (एम) समर्थकों के लिए कोई प्रत्यक्ष संदर्भ नहीं दिया, लेकिन अंतर्निहित संदेश को न सुन पाना मुश्किल था.

ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल को हटाने के लिए वाम समर्थक भाजपा को समर्थन दे सकते हैं और इससे भाजपा को संभावित चुनावी लाभ मिलेगा और यह बंगाल में वामपंथियों की उपस्थिति को गंभीर रूप से कम कर देगा. इस दिग्गज कम्युनिस्ट नेता ने खतरे की घंटी बजा दी है.

राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि 2009 में शुरू हुई लेफ्ट के वोट बैंक में गिरावट 2019 में और तेज़ी पकड़ेगी. इस बार बंगाल में वामपंथियों की खिसकती जमीं का सबसे बड़ा फायदा भाजपा की मिलेगा.

बंगाल में खाली जगह को भाजपा भरेगी

पश्चिम बंगाल के लोकसभा चुनाव में बड़ी लड़ाई तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच है. जिसमें वामपंथी और कांग्रेस दोनों फ्रिंज की तरह हैं.

लेकिन, भाजपा कैसे चुनौती देने की स्थिति में उभरी? इसमें एक से अधिक कई कारण हैं.

यह तर्क दिया जा सकता है कि जहां वामपंथी लोगों के मुद्दों का प्रतिनिधित्व करने और उनके लिए संघर्ष करने में
विफल रहे हैं. वहां भाजपा आगे आई और उनकी जगह को भरने में कामयाब हुई.


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पिछले साल बीरभूम में सीपीआई (एम) के ज़िला सचिव मानसा हांसदा ने सत्तारूढ़ पार्टी के साथ जुड़े हुए बाहुबलियों के अत्याचार के खिलाफ एक विरोध मार्च का आह्वान किया था. इसके तुरंत बाद बीरभूम टीएमसी के ज़िला अध्यक्ष अनुब्रत मोंडल ने विरोध मार्च के खिलाफ चेतावनी जारी की. माकपा ने जल्दबाज़ी में इस मार्च को बंद कर दिया.

भाजपा की स्थानीय इकाई ने इस मामले में कदम रखा और कहा कि यह उसी दिन और उसी समय विरोध मार्च निकालेगा और टीएमसी के ताकतवर लोगों को इसे रोकने का साहस है तो रोक लें.

भाजपा ने विरोध मार्च निकाला जिसमें टीएमसी के स्थानीय कैडर से कोई रुकावट पैदा नहीं की थी. बीरभूम में एक सीपीआई (एम) समर्थक ने बाद में अफसोस जताया कि जो लोग सीपीआई (एम) के मार्च में शामिल होने के लिए तैयार थे. उन लोगों को बाद में भाजपा की रैली में भाग लेते देखा गया. और यह एक अलग घटना नहीं है.

लोगों की समस्याओं पर कोई आवाज़ नहीं उठा रहा

2011 में सत्ता से बेदखल करने के बाद सीपीआई (एम) और उसके सहयोगियों ने विपक्ष के स्थान को बनाए रखने के लिए बहुत कम प्रयास किए हैं.

यह सच है कि ममता बनर्जी सरकार की कल्याणकारी योजनाएं, जैसे कि कन्याश्री, सबुज साथी, और सस्ते राशन, ग्रामीण बंगाल में विश्वविद्यालयों और अस्पतालों के निर्माण और कई ज़िलों में नई सड़कों के निर्माण ने उनको बेहद लोकप्रिय बना दिया.

लेकिन इसके साथ ही लोगों को स्थानीय नेताओं के दुस्साहस और बाहुबलियों द्वारा जबरन वसूली के बढ़ते खतरे को भी झेलना पड़ा है.

बंगाल के ग्रामीण और शहरी इलाकों में बेरोज़गार गरीबों के बीच बढ़ते असंतोष और गुस्से को सिकुड़ते विपक्ष के कारण आवाज़ नहीं मिल सकी.


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जब शारदा और रोज़ वैली समूहों से जुड़े चिट फंड कंपनियों का भंडाफोड़ हुआ. तो लाखों लोग जिनमें ज़्यादातर गरीब थे. वे लोग बुरी तरह प्रभावित हुए. लेकिन वामपंथी एक या दो रैली को छोड़कर चिट फंड घोटालों के खिलाफ सड़कों पर सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन में भाग लेते हुए ज्यादा नहीं दिखे.

इसी तरह कृषि में संकट, बढ़ती बेरोज़गारी और अराजकता के मुद्दों पर, वामदल का विरोध प्रदर्शन उदासीन था.

ऐसे में लोगों का वामपंथियों से मोहभंग हो गया, जो यह नहीं जानते कि वे कांग्रेस के साथ हैं. इसने हाल ही में सत्तारूढ़ पार्टी की विफलताओं को उजागर करने के लिए विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने का प्रयास किया गया.

कांग्रेस विधायक अब्दुल मन्नान के अनुसार, इस प्रकार के प्रस्ताव को बहस के लिए सदन में स्वीकार किया गया था. लेकिन व्यापार सलाहकार समिति, जिसने बहस के लिए समय आवंटित किया था, ने उन्हें संसदीय प्रथाओं का उल्लंघन करते हुए रोक दिया.

जीत की भूख नहीं?

शायद, यहां लेफ्ट की मौजूदा स्थिति बंगाल में कम्युनिस्ट आंदोलन के ऐतिहासिक उदय से अलग नहीं है.

1962 में चीन-भारत युद्ध के बाद कम्युनिस्ट अपनी महत्वाकांक्षी स्थिति के कारण अलोकप्रिय हो गए. अधिकांश वरिष्ठ नेताओं को जेल में डाल दिया गया था और बढ़ती ज़ेनोफ़ोबिया (विदेशी लोगों को न पसन्द करना) के कारण पार्टी को हाशिये पर धकेल दिया गया था.

फिर भी 1966 में, कम्युनिस्ट हिंसक खाद्य आंदोलन में सबसे आगे थे. जिन्होंने बंगाल में तत्कालीन-कांग्रेस शासन को कुचलने का काम किया. परिणामस्वरूप, 1967 में कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाली पहली संयुक्त मोर्चा सरकार सत्ता में आई.

शायद, 1977 से 2011 तक लगभग 34 वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद बंगाल में वामपंथियों के पास अब जीत की भूख नहीं है.


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केंद्रीय नेतृत्व से सक्रिय प्रोत्साहन और समर्थन के साथ भाजपा बंगाल इकाई ने लगातार खाली जगह को भरना शुरू कर दिया है.

आदिवासी और हाशिए पर पड़े समुदाय, जो परंपरागत रूप से ग्रामीण इलाकों में वर्षों से वामपंथ से जुड़े थे, बाद में सत्तारूढ़ टीएमसी के साथ चले गए. जब उन्हें एहसास हुआ कि टीएमसी शासन द्वारा उनके साथ सही व्यहवार नहीं किया गया. तो उन्होंने भाजपा में शामिल होना शुरू कर दिया.

अलीपुरद्वार, कूच बिहार, झारग्राम और पुरुलिया के आदिवासी क्षेत्रों में पंचायत चुनावों में भाजपा की सफलता इस बात का संकेत हैं.

यहां तक ​​कि मुस्लिम समुदाय का एक वर्ग भी जो परंपरागत रूप से ’धर्मनिरपेक्ष’ पार्टियों (चाहे वह कांग्रेस, वामपंथी या तृणमूल हो) के साथ अब बीरभूम में भाजपा का समर्थन करना शुरू कर दिया है. वे भाजपा को एक ऐसी पार्टी के रूप में देखते हैं, जो उन्हें स्थानीय बाहुबलियों से बचा सकती है. जिन्हें माना जाता है कि वे सत्तारूढ़ तृणमूल के नेताओं के करीबी हैं.

करो या मरो का पल

लोकसभा चुनाव की पूर्व वामपंथियों ने भाजपा और टीएमसी दोनों को हराने का आह्वान किया, लेकिन किसी ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया.

क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में, वामपंथी अपने समर्थकों को ज़मीनी स्तर पर लामबंद करने में विफल रहे हैं. बंगाल में अन्य धर्मनिरपेक्ष ’ताकतों के साथ गठबंधन बनाने में असमर्थता ने इनके नारे को मात्र एक इच्छा तक सीमित कर दिया है.

एक मज़बूत विपक्ष की अनुपस्थिति में सत्तारूढ़ टीएमसी के साथ मोहभंग की संभावना है. दूसरे विकल्प के रूप में लोग भाजपा को समर्थन कर रहे हैं.

बंगाल के पूर्व सीएम बुद्धदेव भट्टाचार्जी की भाजपा को वोट न देने के खिलाफ की गई उन्मादी अपील से पता चलता है कि बंगाल में वामपंथियों के लिए यह करो-मरो वाला पल है.

(लेखक पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनकी व्यक्तिगत राय है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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