देश की राजनीति में केवल नेहरू-गांधी परिवार ही वंशवाद की एकमात्र बानगी नहीं है. इस पर ‘दिप्रिंट’ (हिंदी) पर गत 9 मार्च को प्रकाशित रूही तिवारी और रोहिनी स्वामी की रिपोर्ट में आप पढ़ चुके हैं कि उसके जैसे करीब 34 ताकतवर वंशवादी परिवार अपने पैंतरे भांजते रहे हैं. लेकिन इस विडम्बना का दूसरा पहलू भी है.
यह कि देश की राजनीति ने कई ऐसे दिग्गज राजनेता भी पैदा किये हैं, जिन्होंने लोकतंत्र की इस सबसे बड़ी बुराई की जड़ में मट्ठा डालने के लिए अपने बेटे-बेटियों के ‘भविष्य’ का कतई लिहाज नहीं किया और अपने रहते उन्हें राजनीति से सायास दूर रखा. लेकिन उनकी मिसालें इसलिए नहीं दी जातीं क्योंकि इससे अपनी संतानों को ब्रेक देने या लांच करने का एक भी मौका न चूकने वाले आज के नेताओं को ‘असुविधा’ होती है.
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बहरहाल, ऐसी पहली मिसाल उन चंद्रशेखर के नाम है, जिन्होंने 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद गठित विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिरने के बाद कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री और थोड़े ही दिनों बाद ‘भूतपूर्व प्रधानमंत्री’ बन बैठने के लिए ढेरों आलोचनाएं झेलीं. वे आम तौर पर उत्तर प्रदेश की बलिया सीट से लोकसभा चुनाव लड़ते थे. उन्होंने उसका आठ बार प्रतिनिधित्व किया और 1977 से 2004 के बीच 1984 को छोड़कर कभी उसका विश्वास नहीं खोया. 1977 में वे जनता पार्टी के अध्यक्ष थे और अंतिम सांस ली तो अपनी ही बनाई समाजवादी जनता पार्टी राष्ट्रीय के. बीच में बहुचर्चित ‘भारत यात्रा’ की और जनता दल में भी कई निर्णायक भूमिकाओं में रहे. मगर इसका लाभ उठाकर अपने बेटों, भतीजों या परिजनों को कभी आगे नहीं किया, न ही उन्हें अपनी राजनीति का एजेंडा तय करने दिया.
उनके बड़े बेटे पंकज ने बिहार की महाराजगंज सीट से चुनाव लड़ने की इच्छा जताई तो उन्होंने उसके सामने दो शर्तें रखीं. पहली: वह उनका घर छोड़कर चला जाये, उनसे कोई मतलब न रखे और दूसरी: पांच साल तक महाराजगंज के मतदाताओं की ऐसी सेवा करे कि उनकी ओर से उसे सांसद बनाने की मांग आये. लेकिन बेटे में इतना धैर्य नहीं था और उसने उनकी शर्तें नहीं मानीं. कहते हैं कि इससे चंद्रशेखर को वंशवाद के विरोध के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में बहुत मदद मिली.
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कम ही लोग जानते हैं कि चंद्रशेखर ने अपनी मित्रता का फर्ज निभाने के लिए बेटे पंकज का विवाह अपने दिल्ली के पड़ोसी ओम मेहता की विधवा पुत्री से करा दिया था. इसका भी एक रोचक किस्सा है.
दरअसल, दिल्ली में चंद्रशेखर के 3, साउथ एवेन्यू स्थित आवास के बगल रहने वाले ओम मेहता 1971 से 1977 के बीच श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार में गृहमंत्री थे. समाजवादी नेता राज नारायण द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर चुनाव याचिका के बहुचर्चित फैसले में श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द हो गया और उन्होंने इस्तीफा देने के बजाय देश में आपातकाल लगा दिया तो उनका विरोध करने पर चंद्रशेखर के जेल जाते ही मेहता ने चंद्रशेखर के परिवार से ऐसी दूरी बना ली, जैसे कोई जान पहचान ही न हो! उन्हें डर था कि चंद्रशेखर के परिवार से निकटता रहेगी तो श्रीमती गांधी नाराज होंगी और उनका मंत्री पद छीन लेंगी. लेकिन मेहता नहीं रहे तो चंद्रशेखर ने उनकी पुत्री के फिर से विवाह में आ रही अड़चनों को उसे अपनी बहू बनाकर दूर कर दिया.
वंशवाद के प्रतिरोध की एक और बड़ी मिसाल वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कैलाशनाथ काटजू ने बनाई. अलबत्ता, वंशवादी कांग्रेस में रहते हुए. वे बंगाल के गवर्नर थे तो उनके बेटे विश्वनाथ काटजू को ब्रिटेन की लाल इमली कम्पनी में निदेशक बनने का प्रस्ताव मिला. उन्होंने सुना तो बेटे को पत्र लिखा, ‘मुझे मालूम है कि मेरे पद के कारण तुम्हें यह प्रस्ताव नहीं मिल रहा. न मैं जिस राज्य में राज्यपाल हूं, वहां मिल रहा है. एक पिता के रूप में तुम्हें इस पद का प्रस्ताव मिलता देखकर मुझे गर्व का अनुभव भी हो रहा है. पर एक काम करना. जिस दिन तुम यह पद स्वीकार करो, मुझे सूचना दे देना. मैं अपने पद से इस्तीफा दे दूंगा.’
पार्टी कार्यकर्ता हो, गुलाम तो नहीं!
आजकल के नेता कार्यकर्ताओं से कौन-कौन से काम नहीं लेते! कई तो उन्हें बंधुआ समझते हैं और कोई भी ‘सेवा’ करने के लिए कह देते हैं. लेकिन भूतपूर्व प्रधानमंत्री और वरिष्ठतम भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे नेताओं से अलग थे.
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भाजपा के फैजाबाद के सांसद लल्लू सिंह इस बारे में एक दिलचस्प वाकया सुनाते हैं. 1984 में अटल जी चुनाव सभा को सम्बोधित करने फैजाबाद आये तो गुलाबबाड़ी मैदान में मतदाताओं से मुखातिब होने के बाद एक पार्टी कार्यकर्ता के घर से टिफिन में शाम का भोजन मंगवाया और वाराणसी जाने के लिए ट्रेन पकड़ने आचार्य नरेन्द्रदेव नगर रेलवे स्टेशन जा पहुंचे.
लल्लू सिंह को भी उनके साथ जाना था. ट्रेन अयोध्या से आगे बढ़ी तो उन्होंने लल्लू से कहा कि अब भोजन कर लिया जाये. लल्लू ने टिफिन खोलकर उनके सामने रखा और वे खा चुके तो समेटने लगे कि धुलकर लायें और रख दें. इस पर अटल जी नाराज होकर बोले, ‘खाना मैंने खाया और टिफिन तुम धुलोगे? तुम पार्टी कार्यकर्ता हो कि मेरे गुलाम?’
लल्लू ने कहा कि आप हर तरह से मुझसे बड़े हैं और हमारी संस्कृति में छोटों का फर्ज बताया गया है कि उनके रहते बड़ों को कोई कष्ट न उठाना पड़े. इस पर अटल जी ने मुसकुराकर कहा, ‘संस्कृति की बात तो तुमने अच्छी कही. फिर भी तुम्हारा तर्क मुझे हजम नहीं होगा. हजम करना चाहूंगा तो पेट खराब हो जायेगा. लल्लू ने इसके बाद भी भरसक आग्रह किया कि अटल जी उन्हें टिफिन धुलने दें मगर उन्हें इसके लिए सहमत नहीं कर सके. अंततः अटल जी ने खुद ही टिफिन धुला.
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परम्परा जो मतदान से रोकती है
अयोध्या की ऐतिहासिक हनुमानगढ़ी ने यों तो अपनी आंतरिक व्यवस्था के लिए आजादी के बहुत पहले से लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली को अपना रखा है, लेकिन उसकी एक परम्परा उसके लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सर्वोच्च पदाधिकारी-गद्दीनशीन-को किसी भी चुनाव में अपने मताधिकार के प्रयोग से रोक देती है. परम्परा यह है कि गढ़ी के गद्दीनशीन उसके 52 बीघे के परिसर से बजरंगबली के निशान और शोभा यात्रा के साथ ही बाहर निकल सकते हैं. चूंकि मतदान के दिन शोभा यात्रा निकालना और मतदान केंद्र तक ले जाना संभव नहीं होता, इसलिए गद्दीनशीन को अपनी मतदान की इच्छा का दमन करना पड़ता है. कई बार गद्दीनशीनों को इसका मलाल भी होता है, लेकिन हारकर वे परम्परा के आगे सिर झुका देते हैं.
क्या यह परम्परा अंतिम है? पूछने पर जानकार कहते हैं कि गढ़ी के संविधान में नया प्रावधान करके मतदान के दिन को उसका अपवाद बनाया जा सकता है, लेकिन गद्दीनशीनों को मतदान का दिन आने पर इसकी याद आती है और मतदान खत्म होते ही बात आई गई हो जाती है.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार है.)