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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमत‘हम लोग’ के लल्लू की तरह भारतीयों के लिए राजभाषा समझ से परे, हिंदी दिवस मनाने से नहीं निकलेगा हल

‘हम लोग’ के लल्लू की तरह भारतीयों के लिए राजभाषा समझ से परे, हिंदी दिवस मनाने से नहीं निकलेगा हल

ऐसा लगता है कि राजभाषा का अभी पूरी तरह से लोकतंत्रीकरण नहीं हुआ है. और, दुर्भाग्य यह कि शायद किसी को इसकी परवाह भी नहीं है.

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1984 में दूरदर्शन पर आने वाले लोकप्रिय धारावाहिक ‘हम लोग’ की पहली कड़ी यह समझने का शायद सबसे बेहतरीन उदाहरण है कि राजभाषा को लेकर अक्सर होने वाली बहस दरअसल कितनी खोखली है. इसकी शुरुआत दो मुख्य पात्रों, लल्लू और नन्हे के बीच एक दिलचस्प बातचीत से होती है.

हिंदी माध्यम का छात्र लल्लू एक लोअर ग्रेड क्लर्क पद के लिए आवेदन कर रहा होता है. अपनी सुविधा के लिए वह नौकरी का आवेदन हिंदी में करना चाहता है. हालांकि, अपने तमाम प्रयासों के बावजूद लल्लू फॉर्म में इस्तेमाल होने वाली सरकारी शब्दावली को समझने में विफल रहता है. इसलिए वह अपने भाई नन्हे से मदद का अनुरोध करता है. यह बातचीत कुछ इस तरह चलती है:—

लल्लू: अच्छा ये बता कि अधोहस्ताक्षरी का मतलब क्या है?

नन्हें: अरे लिखा तो है ‘अंडरसाइंड’.

लल्लू: और इसका क्या मतबल है?

नन्हें: अरे लिखा तो है ‘अधोहस्ताक्षरी.’

लल्लू (झुंझुलाकर): अरे कहना क्या चाहे है ये फार्म बनाने वाला, ये बता?

नन्हें (दार्शनिक अंदाज में): वो कहना चाहता है कि ‘हे हिंदुस्तानी लल्लू, अगर तू अंग्रेजी में न समझा तो मैं तुझे हिंदी में भी नहीं समझने दूंगा.’

ये बातचीत इस तथ्य को रेखांकित करने के लिहाज से बेहद प्रासंगिक है कि हिंदी बनाम अंग्रेजी की बहस कितनी निरर्थक है. सरकारी स्तर पर एक ऐसी प्रशासनिक भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जो नागरिकों को एकदम डरा देती है, उनसे एक खास तरीके के व्यवहार की अपेक्षा करती है, और इस सबसे इतर प्रशासन के सर्वोच्च अधिकार के तौर पर अपना आधिपत्य साबित करने वाली होती है.

एक तरह से देखा जाए तो, लल्लू की बातचीत तीन विशिष्ट सवाल खड़े करती है:—राजभाषा या ‘आधिकारिक भाषा’ में आधिकारिक क्या है? क्या यह सब हिंदी बनाम अंग्रेजी का मामला ही है? और राजभाषा का आम भारतीयों यानी, ‘हम भारत के लोग’ के साथ रिश्ता किस तरह का है?

आधिकारिक भाषा में आखिर ‘आधिकारिक’ क्या है?

राजभाषा शब्द मोटे तौर पर सरकारी स्तर पर संचार के चार प्रमुख रूपों को संदर्भित करती है.

पहला, संसदीय भाषा जिसमें विधायी कार्यवाही होती है. दूसरा, कार्यकारी भाषा जिसमें सरकारी आदेशों-फैसलों की आदि की जानकारी दी जाती है. तीसरा, कानूनी भाषा जिसमें विभिन्न मामलों का निपटारा किया जाता है. और अंत में प्रशासनिक शब्दावली, जिसका इस्तेमाल नागरिकों के साथ संवाद के लिए किया जाता है.

हालांकि, राजभाषा को लेकर भारत की स्थिति थोड़ी जटिल है. दरअसल, औपनिवेशिक राज ने सरकारी ऑर्डर और आदेशों की एक नई भाषा खोजी और फिर इसे स्थानीय लोगों के साथ संचार का प्रभावी माध्यम बनाया.

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल के दौरान 1835 में अंग्रेजी को औपचारिक रूप से आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया. यह महत्वपूर्ण कदम सिर्फ नस्लीय वर्चस्व स्थापित करने का प्रतीकात्मक प्रयास भर नहीं था, बल्कि ऐसे व्यावहारिक कारण भी थे जिन्होंने कंपनी को एक ऐसी भाषा विकसित करने पर मजबूर किया जो प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए उपयोगी साबित हो सकती थी.

यह आधिकारिक भाषा उस भाषा से बहुत अलग थी जो इंग्लैंड में इस्तेमाल की जाती थी और जिसे यूरोपीय ज्ञान के मूल्यों से पोषित माना जाता था. इसके अलावा यह खासकर दो अवधारणाओं पर आधारित थी. पहली, मूल भारतीय हेय और पिछड़े हुए हैं, इसलिए उन्हें ठीक से शिक्षा और प्रशिक्षण हासिल करना होगा. दूसरा, आधिकारिक संचार को मुख्यत: ‘कानून और व्यवस्था’ के संदर्भ में परिभाषित किया जाना था.

ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलनों, विशेष तौर पर गांधीवादी विचारधारा ने राजभाषा की इस कल्पना को एक गंभीर चुनौती दी. गांधी ने न केवल अंग्रेजी के प्रभुत्व पर सवाल ही उठाया बल्कि राजनीतिक संचार के लिए एक विनम्र और लोकतांत्रिक भाषा अपनाए जाने की वकालत भी की.


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उपनिवेशकाल के बाद आधिकारिक भाषा की स्थिति

हमें याद रखना चाहिए कि 1940 के दशक के अंत में भाषा एक अत्यधिक विवादास्पद राजनीतिक मुद्दा बन गई थी. हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक विभाजन ने हिंदी और उर्दू के बीच पहले ही एक रेखा खींच रखी थी. फिर धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन ने इस भाषाई विवाद को और तेज कर दिया.

भाषा को लेकर संविधान सभा की बहस से साफ पता चलता है कि कांग्रेस का एक वर्ग, खासकर गांधीवादी, हिंदुस्तानी को आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाने का पक्षधर था. दूसरी तरफ, एक शक्तिशाली लॉबी सक्रिय थी जो प्रशासनिक भाषा के रूप में हिंदी और यहां तक कि संस्कृत के इस्तेमाल पर जोर दे रही थी. इन मतभेदों के बावजूद, इस पर आम सहमति जरूर थी कि भविष्य के भारत की अपनी एक आधिकारिक भाषा होनी चाहिए.

फिर, यह कोई आसान मसला भी नहीं था. अंग्रेजी प्रशासनिक संवाद और राजनीतिक वार्ता की भाषा रही थी. उस समय अंग्रेजी की जगह किसी अन्य राष्ट्रीय भाषा को अपनाना व्यावहारिक तौर पर असंभव था.

मुंशी-अयंगर फॉर्मूले ने इस गतिरोध को सुलझाने की दिशा में एक पहल की. इस फॉर्मूले में सुझाया गया कि हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी अगले 15 सालों तक राजभाषा के तौर पर जारी रखा जाएगा. साथ ही, यह सुझाव भी दिया गया कि इस संबंध में कोई अंतिम निर्णय लेने का अधिकार संसद को होना चाहिए.

अंग्रेजी की क्षमता और कमजोर भारतीय भाषाएं

भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने यह सवाल और भी ज्यादा जटिल बना दिया. गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने की शुरुआत का कड़ा विरोध और आलोचना हुई, खासकर दक्षिण भारत में. इसे एक तरह से दक्षिण पर उत्तर के भाषाई प्रभुत्व के तौर पर देखा गया.

ऐसी जटिल बहसों से निपटने के लिए संसद की राजभाषा समिति (जिसे पंत समिति के नाम से भी जाना जाता है) ने 1955 में प्रस्ताव रखा कि 15 साल की समयसीमा के बाद भी अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा बनाए रखा जाना चाहिए. राजभाषा अधिनियम 1963 इस प्रस्ताव का प्रत्यक्ष नतीजा है.

इस कानून में सिद्धांतत: स्वीकार किया गया कि हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी मुख्य आधिकारिक भाषा बनाए रखने की अनुमति दी जानी चाहिए. इसने अंग्रेजी की तुलना में हिंदी और/या अन्य भारतीय भाषाओं की अक्षमता को स्वीकारा. इस कमी को पूरा करने के लिए ही सरकार को हिंदी की भाषाई क्षमता विकसित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई गई ताकि इसे आधिकारिक संवाद के एक प्रभावी माध्यम के तौर पर स्थापित किया जा सके.

स्वर, शब्दावली और शब्दजाल

प्रशासनिक कार्यों के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल जारी रखना दो वजहों से उचित कहा जा सकता है—एक आधिकारिक भाषा के तौर पर हिंदी समझ से कुछ ज्यादा ही परे हो जाती है, और दूसरी बात राष्ट्रीय स्तर पर इसकी जरूरत होना, खासकर हिंदी विरोधी आंदोलनों को देखते हुए.

हालांकि, इस पूरे मामले में गहराई से जड़ें जमा चुकी एक समस्या को लगभग अनदेखा कर दिया गया है. भारत ने लोगों की संप्रभुता को ध्यान में रखकर एक अत्यधिक समतामूलक संविधान अपनाया. यही नहीं, हमें भारतीय समाज को लेकर औपनिवेशिक कल्पनाओं में डूबा एक प्रशासनिक ढांचा विरासत में मिला है. इस असंतुलन ने सामान्य राजनीतिक स्तर पर दो भाषाओं के बीच एक अपरिहार्य संघर्ष की संभावना पैदा कर दी—लोकतंत्र की भाषा और शासन की भाषा.

चुनावी राजनीति खुद को लोकतंत्र की भाषा में अभिव्यक्त करती है. राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने और उन्हें अपने साथ जोड़ने के लिए तो गणतांत्रिक मूल्यों के पालन का दावा करते हैं. हालांकि, जैसे ही यह राजनीतिक वर्ग एक प्रशासक की भूमिका में आ जाता है तो वो एक अलग भाषा बोलना शुरू कर देता है—जो कि शासन की भाषा होती है.

सरकारी हिंदी इस मायने में शासन की भाषा होने का सर्वोत्तम उदाहरण है. एक कृत्रिम भाषा के तौर पर यह सरकारी अंग्रेजी भाषा की तरह ही है, जिसने स्वर, शब्दावली और अभिव्यक्ति के मामले में औपनिवेशिक प्रशासनिक विमर्श को ही अपनाया है. यदि भाषा के प्रति लोगों की संवेदनाओं और उनके जुड़ाव की बात करें तो आधिकारिक हिंदी भाषा दूर-दूर तक इसके अनुरूप नहीं है.

ऐसा लगता है कि राजभाषा का अभी पूरी तरह से लोकतंत्रीकरण नहीं हुआ है. और, दुर्भाग्य यह कि शायद किसी को इसकी परवाह भी नहीं है.

(हिलाल अहमद राजनीतिक इस्लाम के विद्वान और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस), नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वह @Ahmed1Hilal पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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