अप्रैल 2020 में लद्दाख में तनातनी शुरू होने के बाद से भारतीय और चीनी सेनाएं दोनों देशों के बीच जारी लंबे सीमा विवाद को लेकर बड़े दावों और जवाबी दावों में उलझी हुई हैं. भारत जिन इलाकों पर अपने दावे कर रहा है उनके समर्थन में कानूनी और इतिहास सम्मत दृष्टि से विस्तृत दस्तावेज़ उपलब्ध हैं. पिछले तीन दशक में कई तरह के ‘शांति समझौतों’, वुहान और ममल्लपुरम बैठकों के बाद जारी रणनीतिक निर्देशों के बावजूद चीन ने युद्धाभ्यास के लिए अपनी सेना के जमावड़े को वास्तविक तैनाती में बदल दिया और भारत के कई क्षेत्रों में घुसपैठ की.
इससे सदमा ग्रस्त भारत ने चीनी तैनाती का बराबरी से जवाब देने के लिए वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अपनी सेना और सैन्य साजो सामान तैनात कर दिए. इसके अलावा आपातकालीन रक्षा खरीद, सेना का पुनर्गठन शुरू किया, जिससे वित्तीय खर्च और मानवशक्ति का उपयोग बढ़ा. लेकिन स्थिति के तमाम विश्लेषणों में एक मुद्दे पर न तो पर्याप्त चर्चा की जा रही है और न उस पर ज़ोर दिया जा रहा है, वह यह है कि चीन को आनुपातिक रूप से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है. उसे आम सैन्य लागत के अलावा वित्तीय तथा मनोवैज्ञानिक खामियाजा ज्यादा भुगतना पड़ा है.
पहले यह देखें कि सैन्य लागत क्या रही. भारत को चीन के बारे में कुछ सबक सीखना महंगा पड़ा. नतीजतन, सभी मोर्चों पर भारतीय फौज की तैनाती और मजबूत हुई और उन तक सप्लाई की व्यवस्था बेहतर हुई. इन तैयारियों के सबूत 1967 में नाथु ला में, 1987 में सुमदोरोंग चु में और 2017 में डोकलाम में भी साफ दिखे. भारतीय सेना के आधुनिकीकरण और फौजी ओपरेशन्स के लिए व्यवस्था की खातिर निरंतर आर्थिक समर्थन हासिल रहा. लेकिन वर्तमान तैनाती चीन को ज्यादा महंगी पड़ी है क्योंकि उसे अपने पश्चिमी थिएटर कमांड में पीछे के मोर्चों से अग्रिम मोर्चों पर 10 गुना ज्यादा सैनिक भेजने पड़े हैं, जबकि भारत को पूर्वी लद्दाख में अग्रिम मोर्चों पर तीन गुना ज्यादा सैनिक भेजने पड़े हैं.
रणनीतिक दृष्टि से देखें तो ताइवान चीन के लिए अल्पकालिक से लेकर मध्यकालिक तक, लक्ष्य बना हुआ है. माना जाता है कि चीन अपने नये थिएटर कमांडों में अपनी सेना पीएलए के सैन्य अभ्यासों के लिए और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ‘ऑपरेशन के दौरान प्रशिक्षण’ का जो निर्देश दिया है उसके लिए भी भारतीय सेना को ‘साइडशो’ के रूप में इस्तेमाल करना चाहता था. लेकिन उस इरादे को चूंकि नाकाम कर दिया गया है, इसलिए चीन को अब कई मोर्चों पर खतरे का सामना करना पड़ रहा है, जो भारत के लिए दो मोर्चे वाली चुनौती के मुकाबले कहीं ज्यादा बड़ा खतरा है क्योंकि अमेरिका और जापान तक ने भी ताइवान को चीनी हमले की स्थिति में सैन्य सहायता देने का वादा कर दिया है.
एलएसी पर भी चीन ने मुख्यतः अरुणाचल प्रदेश के सामने पूर्वी तिब्बत में ही अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास किया है. भारत ने पूर्वी लद्दाख में जब बराबरी में सेना की तैनाती कर दी तब चीन अब पश्चिमी तिब्बत में हड़बड़ी में इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास कर रहा है. इसके चलते उसकी अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ा है. ‘एवरग्रांदे’ कंपनी का संकट एक शुरुआत थी और कमजोरी का सबूत इसी से मिलता है कि नयी ‘बेल्ट ऐंड रोड’ (बीआरआई) परियोजनाओं के लिए फंड देने में सुस्ती आ गई है.
यह भी पढ़ें: ‘क़र्ज़ के जाल’ में श्रीलंका, भारत की प्रतिक्रिया दिखाती है कि चीन को पीछे धकेलने का काम शुरू हो गया है
टेक्नोलॉजी के मामले में भारी विफलता
गलवान में झड़पों के बाद भारत ने जून 2020 में सोशल मीडिया के 59 चीनी एपों (बेहद लोकप्रिय ‘टिकटॉक’ समेत) पर रोक लगा दी जिसे जनवरी 2021 में भी लागू रखा. इसके बाद सितंबर 2020 में 118 और एपों पर भी रोक लगा दी जिसे अभी खत्म नहीं किया है. इसके कारण भारतीय गिग कंपनियों और स्टार्ट अप के बाजार, जो पूरी दुनिया में इनका सबसे बड़ा बाजार है, में घुसना चीनी कंपनियों के लिए असंभव हो गया.
मई 2021 में चीन को सबसे बड़ा झटका देते हुए भारत के दूरसंचार विभाग ने करीब एक दर्जन कंपनियों को 5-जी टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की मंजूरी दी, जिनमें चीन की हुयावे और ज़ेडटीई शामिल नहीं थीं हालांकि उन्होंने भी अर्जी दी थी. अमेरिका ने ‘सिक्योर इक्विपमेंट एक्ट 2021’ के तहत 12 नवंबर 2021 को हुयावे और ज़ेडटीई और हिकविजन पर पाबंदियां लगा दी, इन टेक्नोलॉजी के मामले में क्वाड का पुनर्गठन किया गया. इन कदमों के कारण चीनी कंपनियों पर दूसरे उपभोक्ता बाजार तलाशने का दबाव बढ़ा.
भारत के पीछे-पीछे चलते हुए अमेरिकी वाणिज्य विभाग ने हुयावे के लिए न केवल अमेरिका से सीधे बल्कि अमेरिकी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों से भी सेमीकंडक्टर चिप्स हासिल करना बेहद मुश्किल बना दिया. इसके कारण हुयावे का सप्लाई चेन छिन्न-भिन्न हो गया. इन दो कदमों के अलावा चीन के ‘बिग टेक’ को नियंत्रित करने के शी के ‘आत्मघाती’ कदम के कारण चीनी डिजिटल साम्राज्य ध्वस्त हो गया है.
भारत ने चीनी माल, खासकर पांच चीनी उत्पादों पर ‘एंटी-डंपिंग’ शुल्क लगा दिया, जिनमें एलुमिनियम के सामान और कुछ रसायन शामिल हैं. ये शुल्क दिसंबर 2021 से पांच साल के लिए लागू किए गए ताकि भारतीय उत्पादकों को चीन से होने वाले सस्ते आयात से सुरक्षा हासिल हो. इसी तरह, चीन पर कुछ मनोवैज्ञानिक दबाव भारी पड़े हैं, जिनके सबूत चीनी और अंग्रेजी भाषा की तमाम रिपोर्टों और खबरों में मिल सकते हैं, बस उन्हें इकट्ठा करके उनका विश्लेषण करने की जरूरत है.
यह भी पढ़ें: पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति कराह रही- कहती है मैं तकलीफ में हूं. भारत के लिए इसके क्या मायने हैं
लद्दाख में सेना
पश्चिमी थिएटर कमांड में एक साल के अंदर तीन आला चीनी जनरलों को बदला जा चुका है. इनमें से दो तो ऊंचे पहाड़ पर लंबी तैनाती के चलते बीमार पड़ने के कारण जान गंवा चुके हैं. चीनी संचार रेखा कहीं ज्यादा लंबी है इसलिए उन्हें पूर्वी लद्दाख में सेना तैनात रखने पर भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा खर्च करना पड़ता है. ट्विटर पर ‘ओपेन सोर्स इंटेलिजेंस’ के दायरे में इस तरह की बातें उठी कि जनवरी 2022 में भारी ठंड के कारण कुछ चीनी सैनिकों की मौत हो गई. अधिकतर चीनी सैनिक कठोर मौसम और प्रतिकूल इलाके का सामना नहीं कर पा रहे हैं और इस बीच डॉक्टरों, मनोचिकित्सकों और परामर्शदाताओं की मांग अचानक बढ़ गई है.
चीनी सेना पीएलए को भर्ती में काफी छूट देनी पड़ी और नये सैनिक युद्ध के बर्बर स्वरूप को झेलने लायक न तो उतने मजबूत हैं और न ही तकनीकी रूप से उतने कुशल हैं. उनकी भर्ती के लिए वीडियो गेम और म्यूजिक वीडियो का इस्तेमाल किया जाता है. शांति काल के नाजुक ‘चॉकलेटी सैनिकों’ को तो ज्यादा आराम ही चाहिए. यह इस बात की याद दिलाता है कि युद्ध के अनुभव के मामले में चीन शून्य है. शिक्षा और शारीरिक कसौटियों में गिरावट और इसके साथ भारत से लेकर ताइवान, रूस और अमेरिका आदि के खिलाफ कई मोर्चेबंदी ने चीन को अपने कामगारों पर अतिरिक्त दबाव डालने को मजबूर किया है. इसलिए चीन अब भारत के खिलाफ तैनाते के लिए नेपाली और तिब्बती युवाओं की भर्ती करने पर विचार कर रहा है.
यही नहीं, जून 2020 में गलवान में अपने करीब 40 सैनिकों को गंवाने के बाद चीन अपने ही नागरिकों के खिलाफ निरंतर सूचना युद्ध चला रहा है. भारतीय क्षेत्रों पर दावा करने और उन पर एकतरफा कब्जा करने के मकसद से 2020 में जो महंगा अभियान उसने चलाया उसका जमीन पर कोई लाभ नहीं दिखा है. इसलिए स्वाभाविक है कि उसका प्रचार तंत्र जी-जान से इस कोशिश में जुटा है कि चीनी नागरिक पीएलए या राष्ट्रपति शी पर कोई सवाल न उठाएं.
चीन को जो नुकसान हुआ है वह प्रत्यक्ष तो नहीं दिखता मगर उसने उसे गहरी और गंभीर चोट पहुंचाई है. भारत से टक्कर लेना चीन को बहुत महंगा पड़ा है और इसने दूसरे देशों को कमर सीधी करके उसे सभी मोर्चों पर टक्कर देने का माकूल मौका दिया है.
(मेजर जनरल अशोक कुमार, वीएसएम (रि.) करगिल युद्ध के योद्धा रहे हैं और रक्षा मामलों के जानकार हैं. वे ‘क्लाव्ज’ संस्था के अतिथि फेलो हैं और पड़ोसी देशों, विशेष तौर पर चीनी मामलों के विशेषज्ञ हैं. उनसे trinetra.foundationonline@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है और उनका ट्विटर हैंडल है @chanakyaoracle. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: नकदी की कमी से जूझ रही वोडाफोन-आइडिया में सरकारी हिस्सेदारी ठीक है लेकिन एग्जिट प्लान की भी जरूरत