त्योहारों के समय दुर्घटना और जन क्षति भारत के लोगों की नियति बन चुकी है. भारत में सड़क दुर्घटनाएं व हादसे, त्योहारों के समय के उल्लास को न केवल खत्म कर देते हैं बल्कि पूरे समाज को दुख के अंधकार में डुबो देते हैं. मगर इन दुर्घटनाएं व हादसों के बाद भी व्यवस्था में कोई व्यापक परिवर्तन होता है, ऐसा लगता नहीं है क्योंकि साल दर साल सड़क दुर्घटना में मरने वालों की संख्या में में इजाफा ही हो रहा है.
हाल ही में कानपुर में हुआ सड़क हादसा इसी बात का उदहारण है कि कैसे हमारी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में नदारद है जिसके कारण लोग जोखिम भरे यातायात के साधन को अपनाने को मजबूर हैं. सड़क दुर्घटना में यूं तो मरने वालों में आम आदमी ज्यादा होते हैं क्योंकि साधनों के अभाव में उन्हें ही अपनी सुरक्षा से समझौता करना पड़ता है. मगर महत्वपूर्ण बात है कि सड़क दुर्घटना के कारण तमाम लोगों का जीवन संकट में आता है. अभी पिछले महीने देश के प्रख्यात उद्योगपति सायरस मिस्त्री की सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु भी इसका एक उदहारण है.
अगर उपरोक्त आंकड़ों की बात करें तो पाएंगे कि देश में सड़क हादसों में 2020 के साल को छोड़ दिया जाए तो कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है. 2020 का आंकड़ा मानक नहीं मान जा सकता है क्योंकि इस साल कोरोना के कारण देश के सभी हिस्सों में बहुत समय तक यातायात बाधित रहा. यहां गौर करने लायक बात यह है कि सड़क दुर्घटना की विभीषिका में लगातार इजाफा हो रहा है, उसमें कोई कमी नहीं दिख रही है. इसका अर्थ यह भी है कि या तो दुर्घटनाएं भीषण हो रही हैं या दुर्घटना के बाद पर्याप्त उपचार नहीं मिल रहा है.
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समस्या को लेकर गंभीरता की कमी
जितने लोगों की मृत्यु पर अन्य देशों में राष्ट्रीय शोक हो जाता है, इतने लोगों की मृत्यु पर भारत में शोक संदेश देकर इतिश्री कर ली जाती है जो न केवल समस्या के प्रति उदासीनता को दर्शाता है बल्कि यह भी बताता है की लोग समस्या के प्रति गंभीर नहीं है.
अगर उपरोक्त आंकड़ों को सावधानी से देखेंगे तो पायेंगे की कुल दुर्घटना का लगभग 80 फीसदी आंकड़ा 10 राज्यों से है जिस पर विशेष ध्यान दे कर सही किया जा सकता है. मगर इसके लिए इच्छाशक्ति का अभाव साफ दिखाई देता है जिसके कारण यह संख्या कई वर्षों से बदल नहीं रही है.
सड़क पर नियमों का अनुपालन करवाने का अधिकार जहां राज्य को है वहीं सड़क बनाने का अधिकार केंद्र, राज्य, स्थानीय निकाय तीनों को है. जिसके कारण प्रायः नियमों और उसके अनुपालन को लेकर काफी गलतफहमी रहती है जिसका फायदा भ्रष्ट तंत्र को मिलता है. संघीय व्यवस्था में बहुत अधिकार राज्य को है जिसके कारण कानून का अनुपालन राज्य ही करता है.
सड़क दुर्घटना एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें राज्यों की भूमिका काफी अहम हो जाती है. सड़क दुर्घटना से प्रभावित क्षेत्रों की बात करें तो इसके आंकड़े उत्तर से दक्षिण, पश्चिम तक, पूरे देश में एक जैसे ही है.
समस्या और उसके समाधान तक न शासन पहुंचना चाहता है और न ही शासित. शासन किसी भी दुर्घटना को अमूमन आपदा के रूप में देखता है मगर अगली आपदा से बचने की कोई तैयारी नहीं करता है. नियम कड़े हो गए तो भी पिसेगा आम आदमी ही क्योंकि तब नियम की आड़ में उगाही भी उसे ही सहना पड़ेगा.
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ग्रामीण भारत में सरकारी यातायात तंत्र की कमी
लोग यह भी कह रहे है कि कानपुर में इतने लोग ट्रॉली में यात्रा क्यों कर रहे थे. इसको जानने और समझने के किए आपको भारत के किसी भी गांव में कुछ समय के लिए रहना होगा तो ही आपको यह बात पता चलेगी कि लोग मजबूरीवश इन वाहनों का इस्तेमाल करते हैं.
भारत में ग्रामीण यातायात पूरी तरह निजी हाथों में है और सरकारी तंत्र यहां लगभग गायब सा है. कुछ राज्यों को अगर अपवाद मानकर छोड़ दिया जाए तो हम पाएंगे की गांवों में निजी वाहनों के अलावा यातायात का और कोई साधन नहीं है. यही कारण है कि विकल्प के अभाव में लोग निजी व्यवस्था द्वारा शोषित होते हैं.
ज्यादातर राज्यों में लोग खुद के या दूसरे के साधन से यातायात करने को मजबूर हैं. भारत में सड़क दुर्घटनाओं का बड़ा कारण निजी यातायात के साधन हैं जो सरकारी नियंत्रण से दूर है.
सरकारी यातायात एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर लगातार निवेश की आवश्यकता है मगर इस क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क निर्माण के अलावा अभी तक कोई निवेश ही नहीं हुआ है. यातायात का ज्यादातर निवेश हमारे देश में शहरी केंद्रित है जिसके कारण ग्रामीण हित लगातार उपेक्षित रहा है.
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सार्वजनिक परिवहन नीति का अभाव
भारत में त्योहार सरकार और समाज के लिए व्यापार और आर्थिक उन्नति लेकर आते हैं मगर जो लोग इन त्योहारों को मनाते हैं और हमारी आर्थिक प्रगति में योगदान देते हैं, उनकी सुरक्षा, उनके यातायात की चिंता किसी को नहीं होती. हर साल त्योहारों के अवसरों पर यातायात के साधनों की कमी की बात लोगों को ध्यान में आती है, जिसका निदान कुछ विशेष बस और कुछ विशेष ट्रेन चलाकर हो जाता है.
ऐसा लगता है कि अगर व्यक्ति जिला मुख्यालय पहुंच गया तो वह घर पहुंच गया. जबकि सच्चाई यह है कि बहुत से जिला मुख्यालयों की ग्रामीण क्षेत्रों से दूरी 50 से 80 किलोमीटर तक भी है. अब वह यात्रा कैसे तय करेगा व्यवस्था में इसकी चिंता किसी को नहीं होती है.
दुर्घटना और हादसे की एक बहुत बड़ी वजह सार्वजनिक परिवहन नीति का अभाव है जिसके कारण लोग जोखिम भरी यात्रा करने को मजबूर होते हैं. यह देश का दुर्भाग्य ही है कि देश में लाखों की संख्या में लोग सड़क हादसों में मर रहे हैं मगर सरकारें इसको रोकने के लिए ईमानदार कोशिश करने में नाकाम है.
किसी प्रदेश की सार्वजनिक परिवहन नीति के केंद्र में जिला मुख्यालय की जगह विकास खंड होना चाहिए. जो आम नागरिकों को उसके गांवों के नजदीक ले जाएगा. विकेंद्रण के तमाम दावों के बावजूद हमारी व्यवस्था अभी भी शहर केंद्रित है जिसमें गांवों में रहने वाले आम व्यक्ति की चिंता कम से कम यातायात के साधनों की उपलब्धता में नहीं दिखाई देती है.
(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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