भारत में सफलता की जिन कहानियों को सबसे ज्यादा नजरअंदाज किया गया उनमें एक है लगातार और स्वाभाविक तौर पर जनसंख्या स्थिरीकरण की तरफ बढ़ते इसके कदम. जनगणना के आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि जनसंख्या वृद्धि दर 1971-81 में 24.7 प्रतिशत की तुलना में घटकर 2001-2011 में 17.7 प्रतिशत रह गई है. यह गिरावट सभी क्षेत्रों और हर समुदाय के बीच देखी गई है.
हालांकि, अभी कुछ आंकड़े आने बाकी हैं लेकिन नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस)-5 दिखाता है कि 22 में से 19 राज्यों ने कुल प्रजनन दर (टीएफआर)—यानी प्रति महिला जन्म लेने वाले बच्चों की औसत संख्या—2.1 से नीचे रखने में सफलता हासिल की है. 2.1 का यह आंकड़ा बहुत अहमियत रखता है क्योंकि यही वह स्तर है जिससे कोई आबादी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बदलती है. इस नए डाटा के संदर्भ में पिछले हफ्ते पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया के एक सेमिनार में एनएफएचएस का आयोजन करने वाले इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज, आईआईपीएस के निदेशक और जनसांख्यिकी विशेषज्ञ के.एस. जेम्स ने इसे ‘उल्लेखनीय सफलता’ करार दिया.
लेकिन महामारी ने इसके फायदे कुछ घटा दिए हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार, कोविड-19 ने भारत में 2.6 करोड़ जोड़ों के लिए गर्भ निरोधकों की सहज उपलब्धता सीमित कर दी. फाउंडेशन फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विसेज इंडिया के एक विश्लेषण के अनुसार, लॉकडाउन के कारण 24 लाख अतिरिक्त अनचाहे गर्भधारण का अनुमान है. एक अन्य अध्ययन बताता है कि 2020 में लगभग 20 लाख महिलाओं को गर्भपात की सुविधा सुलभ नहीं हो पाई.
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महामारी ने पीछे धकेला
पहले भी महामारियों के समय देखा गया है कि नियमित स्वास्थ्य सेवा से जुड़े संसाधनों का इस्तेमाल आपातकालीन जरूरतों के लिए होने लगता है ताकि उस प्रकोप का मुकाबला और उसकी रोकथाम हो सके. इस बदलाव से यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं की सहज उपलब्धता सीमित हो जाती है जैसे सुरक्षित केंद्रों में प्रसव, गर्भनिरोधक और प्रसव-पूर्व और प्रसव-बाद की स्वास्थ्य सेवा.
कोविड-19 महामारी के कारण भी यही बात सामने आई है. यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सहित आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सीमित होने के तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव गंभीर हो सकते हैं. गुट्टमाकर इंस्टीट्यूट के अनुमान के मुताबिक, सेवाओं की सीमित पहुंच के कारण निम्न और मध्यम आय वाले देशों में प्रतिवर्ती गर्भनिरोधक उपायों के उपयोग में 10 प्रतिशत की गिरावट आई है, जिसके परिणामस्वरूप 4.9 करोड़ महिलाओं के लिए आधुनिक गर्भ निरोधकों की मांग अधूरी रही और एक वर्ष में अतिरिक्त 1.5 करोड़ अनचाहे गर्भधारण संभावित हैं. यूनिसेफ का अनुमान है कि कोविड-19 को महामारी घोषित किए जाने के बाद के नौ महीने में सबसे अधिक अनुमानित जन्म (2.0 करोड़ में) भारत में होंगे.
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएफआई) की ओर से तीन राज्यों में युवाओं, खासकर युवा महिलाओं और लड़कियों पर कोविड-19 का प्रभाव समझने के लिए कराए गए अध्ययन के नतीजे काफी चिंताजनक रहे हैं. निष्कर्ष बताते हैं कि संक्रमित होने के डर ने तमाम लोगों को स्वास्थ्य केंद्रों से दूर रखा और परिवार नियोजन के संबंध में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और ऑक्सलरी नर्स मिडवाइफ (आशा और एएनएम) जैसे अग्रिम मोर्चे के स्वास्थ्य कर्मियों के घर पर पहुंचने पर भी वह उनसे कोई बात करने से कतराते रहे. हमारे तीन सबसे बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में युवाओं ने लॉकडाउन के दौरान प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं और सेनेटरी पैड्स की जरूरत पूरी न होने की बात कही. यद्यपि जिला स्तर पर गर्भनिरोधक उपलब्ध थे लेकिन सार्वजनिक परिवहन के सीमित उपयोग के कारण अग्रिम मोर्चे के कर्मी वितरण के लिए इन्हें हासिल करने में सफल न हो सके.
डब्ल्यूएचओ में चीफ साइंटिस्ट डॉ. सौम्या स्वामीनाथन ने अक्टूबर में पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की तरफ से आयोजित 15वें टाटा मेमोरियल ओरेशन के दौरान पूरी जिम्मेदारी से कहा कि यहां तक कि उन देशों में भी, जो महामारी से निपटने में तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में हैं, महिलाओं को ही महामारी का सबसे ज्यादा कुप्रभाव झेलना पड़ रहा है. यह बात तो हम अपने सभी अध्ययनों और आकलनों के निष्कर्ष में भी लगातार देख रहे हैं.
भारत कोई अपवाद नहीं है जहां महिलाओं को सबसे ज्यादा कठिन समय झेलना पड़ा, चाहे लॉकडाउन बाद के प्रभावों की बात हो या फिर कामकाजी महिलाओं का आर्थिक नुकसान बढ़ना, अथवा अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के साथ-साथ दूसरों की सेहत की देखभाल करने की जटिल चुनौती.
महिलाएं स्वास्थ्य प्रतिक्रिया प्रणाली हैं
इसमें कोई अचरज नहीं है कि दुनियाभर में स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में महिलाओं का अनुपात काफी ज्यादा है औऱ अग्रणी कार्यकर्ताओं में 70 प्रतिशत महिलाएं हैं. भारत में, आशा, एएनएम और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं सहित 33 लाख अग्रणी स्वास्थ्य कर्मी महिलाएं हैं और ये भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का एक अहम हिस्सा हैं. यह विडंबना ही है कि कोविड-19 के कारण उत्पन्न चुनौतियों की वजह से उनका खुद का स्वास्थ्य बुरी तरह से प्रभावित हुआ.
यह सुनिश्चित करने के लिए कि हम इन अनुभवों से सबक लें और जो सीखा है उसे बेकार जा जाने दें, कुछ प्रणालीगत बदलाव जरूरी हैं.
किसी भी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में परिवार नियोजन सहित यौन और प्रजनन स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, और इसे हमेशा एक आवश्यक सेवा के तौर पर माना जाना चाहिए. यह केवल तभी होगा जब ऐसी सेवाएं उस स्थिति में हों जिनकी हम अगली बार अनदेखी न कर पाएं. एक चुस्त प्रणाली, जिसमें यह माना जाता हो कि महामारी की स्थिति में महिलाओं के लिए घरेलू हिंसा का बड़ा खतरा होता है, महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को बेहतर ढंग से सुलझाने में मददगार होगी. यह धारणा कायम करना कि तनावपूर्ण समय में महिलाओं पर अधिक ध्यान देने और अतिरिक्त देखभाल की जरूरत होती है, न सिर्फ महिलाओं बल्कि पूरे समाज के लिए व्यापक रूप से मददगार साबित होगी.
कोविड महामारी के बीच ‘रिइमैजिंग इंडियाज हेल्थ सिस्टम’ पर लांसेंट का सिटीजन कमीशन हाल ही में जारी किया गया था जिसका उद्देश्य यह बताना था कि भारत में भविष्य में सुलभ और गुणवत्तापूर्ण सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा का खाका तैयार करने में व्यापक और समावेशी रूप से ‘नागरिक-सर्वोपरि’ वाला दृष्टिकोण अपनाना होगा.
भविष्य के लिए उम्मीदें
2011-2036 के लिए इस वर्ष जुलाई में जारी भारत और राज्यों का जनसंख्या अनुमान बताता है कि कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 2011-2015 के 2.37 की तुलना में घटकर 2031-35 के दौरान 1.73 होने की उम्मीद है. माना जा रहा है कि टीएफआर हालिया गिरावट की अपनी गति को बरकरार रखेगा. प्रजनन घटने से क्रूड बर्थ रेट 2011-15 में 20.1 से घटकर 2031-35 के बीच 13.1 हो जाएगा. निसंदेह इसमें कुछ गतिरोध आएगा लेकिन समस्या को समझकर महिलाओं की जरूरतों के प्रति संवेदनशील प्रणाली लागू करने के दृष्टिकोण के साथ भारत पूरी तरह स्वेच्छा से अपनी आबादी को स्थिर करने की दिशा में लगातार आगे बढ़ना जारी रख सकता है.
पूनम मुत्रेजा पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया-पीएफआई की कार्यकारी निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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