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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतकुलदीप नैयर: भारत के महान 'स्कूप मैन' जिन्होंने तोड़ी थी संपादकीय हेकड़ी

कुलदीप नैयर: भारत के महान ‘स्कूप मैन’ जिन्होंने तोड़ी थी संपादकीय हेकड़ी

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भारत के महानतम “स्कूप मैन” को अक्सर यह दुख सताता था कि वे कभी संपादक न बन पाए। हालांकि उन्होंने एक स्तंभकार, कूटनीतिज्ञ, सांसद एवं शांति कार्यकर्ता के रूप में इसकी भारपाई कर ली।

स हफ्ते की शुरुआत में द न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने होम पेज पर प्रदर्शित की जा रही स्टोरीज़ पर संवाददाताओं की बाइलाइन देना बंद करके न केवल अपने पाठकों को आश्चर्यचकित किया बल्कि हम पत्रकारों को भी सकते में डाल दिया है। अगले दिन सम्पादकों ने तर्क दिया : आजकल पाठक डेस्कटॉप कम्प्यूटरों की तुलना में मोबाइल का प्रयोग कई गुना अधिक करते हैं। हम संवादददाताओं की क़द्र करते हैं लेकिन सारांश के ठीक ऊपर उनकी बाइलाइन दिखाना किसी भी स्टोरी को डिजिटल रूप में प्रस्तुत करने का सही तरीका नहीं है। आपको दलील शायद पसंद भी आये। लेकिन ऐसा तभी संभव है जब आपने यह नहीं देखा हो कि ओप -एड लेखकों की बाइलाइनें अब भी पहले ही जैसी हैं।

कुलदीप नैयर को समर्पित इस श्रद्धांजलि में इस मुद्दे को उठाने का कारण यह है कि संवादददाता बनाम सम्पादक न्यूज़रूम का सबसे पुराना “पावर टसल ” रहा है। संपादक अपने अथाह ज्ञान, भारी तर्क और शब्दों की बाज़ीगरी से जीतते आये हैं। यह प्रभुत्व 1970 -80 तक चला आया जब नैयर ने इसे तोड़ा।

वे उस ज़माने में भारतीय पत्रकारिता के पहले रॉकस्टार थे जब इस प्रकार से वर्णित किये जाने पर कोई भी सम्पादक बुरा मान जाता। भारत की सबसे सम्मानित बाइलाइन के रूप में नैयर का उदय तब हुआ जब न न्यूज़ टीवी था और न ही चमकदार मैगज़ीन प्रोफ़ाइल। यह ट्विटर से तीन दशक पहले की बात है और वह एक मुश्किल साल जो मैंने पत्रकारिता स्कूल में बिताया, उस दौरान नैयर की कहानी मेरे लिए प्रेरणादायक थी। यह हाल ही में घटे बॉब वुडवर्ड ,कार्ल बर्नस्टाइन और वाटरगेट घोटाले से भी ज़्यादा प्रेरणादायक था।

वे भारत के सबसे महान “स्कूप मैन” हैं,ऐसा हमारे शिक्षक, दिवंगत प्रो. बी एस ठाकुर का कहना था। ऐसा वे हम विद्यार्थियों को , जो कुछ और ढंग का ना कर पाने की वजह से पत्रकारिता में घुस आये थे , यह समझाने के लिए करते कि असली स्कूप आइसक्रीम के एक कप से कहीं ज़्यादा मीठा होता है।

हमारी कक्षाओं में अक्सर आपातकाल में प्रेस ( तब ‘मीडिया’ चलन में नहीं आया था ) की भूमिका और खासकर हमारी नौकरी की संभावनाओं को लेकर बहसें होती थीं। पूरी भारतीय प्रेस ढह चुकी थी लेकिन कुछ लोगों ने दिखा दिया था कि जवाबी लड़ाई की जा सकती थी। आखिर नैयर जेल भी जा चुके थे।

आपातकाल के बाद भारतीय पत्रकारिता के पहले स्वर्णिम युग की शुरुआत हुई। पूर्व-सेंसरशिप ने जनता को एक मुक्त प्रेस की ज़रुरत के प्रति जागरूक कर दिया था। अगर इंडियन एक्सप्रेस इमरजेंसी का चमकता सितारा था तो नैयर उसका चेहरा थे। इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि एक्सप्रेस की धमाकेदार सम्पादकीय स्टार -कास्ट में उनका स्थान एडिटर इन चीफ एस मलगांवकर और सम्पादक अजीत भट्टाचार्य के बाद, तीसरे स्थान पर आता था। नैयर एक्सप्रेस न्यूज़ सर्विस के संपादक थे। हालाँकि वह अखबार के प्रमुखतम स्तम्भ थे। उनकी किताबें , ‘बिटवीन द लाइंस’ , ‘इंडिया : द क्रिटिकल ईयर्स ‘ एवं ‘डिस्टेंट नेबर ‘ काफी चर्चित थीं और उनकी ही बदौलत वे “केवल एक रिपोर्टर होने के बावजूद “अपने ऊपरवालों की तुलना में ज़्यादा बौद्धिक माने जाते थे।

न्यूज़रूम में उनकी उपस्थिति शानदार तो थी ही, उनके सूत्रों की लिस्ट भी अविश्वसनीय हुआ करती थी। चाहे वे महान समाजवादी जॉर्ज फर्नांडीस हों – “अरे क्या, जॉर्ज (फर्नांडीस ), आप (जनता )पार्टी को तोड़ने पर क्यों तुले हैं ?” , या फिर एयर चीफ मार्शल इदरीस हसन लतीफ़ – “हेलो, इदरीस, मुझे उम्मीद है कि आप और बिलकीस जानते होंगे कि चंडीगढ़ बहुत ही बोरिंग जगह है। ” बाद में , आधी रात के दौरान वे मिसेज़ लतीफ़ के साथ आते हैं और न्यूज़रूम और उसके नीचे की हॉट मेटल प्रेस भोजनोपरांत टूर के तौर पर दिखाते हैं। उनका मानवाधिकार / सिविल लिबर्टी का दौर भी इन्हीं उतार चढ़ाव भरे महीनों के दौरान शुरू हुआ था। वे नकली मुठभेड़ में नक्सलियों की हत्या की जांच कर रही न्यायमूर्ति वी एम तर्कुन्डे समिति का हिस्सा थे।

नैयर के लिए सबसे अच्छी और सुसंगत श्रद्धांजलि यह होगी कि उन्होंने रिपोर्टर को भारतीय न्यूज़रूम का राजकुमार बना दिया। स्वयं इंडियन एक्सप्रेस ने उनकी देखरेख में युवा रिपार्टरों की एक शानदार टीम बनाई जिनमें से कई आगे चलकर संपादक भी बने। उसी ज़माने में उभरने वाले तीन अन्य युवा संपादकों, अरुण शौरी, अरुण पुरी एवं एम जे अकबर ने नैयर के रिपोर्टर-राजकुमार को राजा बना दिया।

रामनाथ गोयनका संपादकीय प्रतिभा के पारखी थे। वे 1979 में अरुण शौरी को बौद्धिक राजनीति से पत्रकारिता में कारगकारी संपादक के रूप में लेकर आये। अचानक नैयर अपने स्टारडम के बाववजूद नंम्बर 3 से नंबर 4 हो गए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शौरी तुलनात्मक रूप से अधिक सुलभ, फोकस्ड एवं नई ऊर्जा एवं विचारों से भरपूर थे। युवा पत्रकार उनकी तरफ खिंचे चले गए। गोयनका अपने अखबार का आधुनिकीकरण करना चाहते थे और इसके लिए उन्हें 57 वर्षीय नैयर की जगह 37 वर्षीय शौरी अधिक उपयुक्क्त लगे। और जैसा मालिकों के साथ अक्सर होता है, वे शौरी की नई शोहरत से प्रभावित होने की बजाय अधीर थे। जल्द ही अन्य सभी संपादकों को किनारे कर दिया गया और नैयर समेत कुछ को नौकरी से हटा दिया गया। यह एक अलग मामला है कि तीन सालों के अंदर ही गोयनका के मन में शौरी को लेकर भी असुरक्षा का भाव पैदा हो गया और उन्हें भी हटा दिया गया। हममें से कई पत्रकार भी शौरी के साथ निकल गए।

नैयर “1980 के बाद पहली बार” न्यूज़रूम में 2014 में अपनी जीवनी ‘बियॉन्ड द लाइंस’ के प्रचार के सिलसिले में संपादकीय टीम से कुछ बातचीत के लिए आये थे। उन्होंने बातचीत की शुरुआत में ही यह बताया कि उन्हें गोयनका द्वारा नौकरी से निकाले जानेका दुख था और गोयनका दरअसल नैयर की कुर्बानी देकर इंदिरा गांधी से अपने रिश्ते सुधारना चाहते थे क्योंकि वे 1980 में दोबारा सत्ता में आ चुकी थीं। रिकॉर्डिंग का यह हिस्सा अखबार द्वारा उनकी मृत्यु पर अपनी रिपोर्ट के साथ पुनर्प्रकाशित किया गया है। यह झूठ था। सरकारों को खुश करने के लिए संपादकों को नौकरी से निकलना उस अखबार के डी एन ए में नहीं था। हममें से कुछ ने आदरसहित नैयर से यह कहा भी।

नैयर ने उसी रिकॉर्डिंग में यह भी कहा कि उन्हें इस बात का खेद है कि “1980 के बाद मुझे कहीं से किसी तरह की नौकरी का प्रस्ताव नहीं आया”। यह बात उन्हें बेहद परेशान करती थी। साथ ही वे इस बात से भी दुखी थे कि शुरुआती दौर में उनके अंदर काम करनेवाले कई लोग, जो नैयर की नज़र में खुद की तुलना में कहीं नहीं ठहरते थे, अखभरों के संपादक बन गए। यह सुख नैयर को कभी प्राप्त नहीं हुआ हालांकि वे दि स्टेट्समैन के दिल्ली संस्करण के संपादक थे। उन्होंने पूरी ईमानदारी और निर्दोषता के साथ यह बात हमें कई बार कही थी। वे आगे चलकर लंदन में हाई कमिशनर और राज्य सभा के सदस्य भी बम लेकिन यह नयी शोहरत कभी संपादक बनने के उनके अधूरे सपने की क्षतिपूर्ति नहीं कर पाई। एक्सप्रेस ने 2015 में उन्हें रामनाथ गोयनका लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित कर प्रतीकात्मक रूप से ही सही लेकिन थोड़ी बहुत भरपाई की।

नैयर ने संपादक के पद के रूप में जो खोया उससे कहीं अधिक भारपाई उन्होंने एक स्तंभकार एवं उपमहाद्वीपीय शांति कार्यकर्ता के रूप में करली। आलोचकों ने ‘मोमबत्ती’ गैंग (वाघा बॉर्डर पर कैंडललाइट मार्च करनेवाले) का ‘नेता’ कहकर उनका मजाक भी उड़ाया था। पर वे भारत-पाक संबंधों की बहाली को लेकर पूर्णतया प्रतिबद्ध थे। संसद एवं कूटनीति के बाद शांति-स्थापना उनका नया उद्देश्य बन चुका था और वे अपने कैरियर की शुरुआत में ही उस पत्रकारिता से दूर होते गए जिसमें वे सर्वश्रेष्ठ थे। उन्हें सचमुच 1980 के बाद नौकरी नहीं मिली पर इसका मतलब यह कतई नहीं था कि वे नौकरी के लायक नहीं थे । उन्होंने एक ऐसे जीवन को सफलतापूर्वक चुना जो कहीं ज़्यादा विविध था।

हम पक्षपाती पत्रकारों के लिहाज से उनकी इतनी जल्दी उम्मीद छोड़ देना एक भारी नुकसान रहा है। अगर ऐसा न होता तो वे निश्चय ही भारत के सबसे बेहतरीन संवाददाता-संपादक के साथ साथ अंतर्दृष्टि से लैस एक स्तम्भकार के रूप में उभरते। आज के रिपार्टरों को उनकी कमी कहलानेवाली है जब उनके द्वारा ही शुरू किया रिपोर्टर-एडिटर का चलन खत्म होने के कगार पर है। आजकल मालिक या तो स्वयं ही संपादक बन जाते हैं या बैक रूम विकल्पों को पसंद करते हैं जो मेहनती और तेज़ तो हों लेकिन साथ ही खतरनाक भी न हों। या फिर ऐसे समय में जब सम्मानित न्यू यॉर्क टाइम्स ने अपने होमपेज से संवाददताओं की बाइलाइन तो हटा दी ही है लेकिन स्तंभकारों के नाम रहने दिए हैं। ऐसे समय में जब वह चिरकालिक न्यूज़रूम की लड़ाई हम हारनेवाले हैं, नैयर की कमी ज़रूर खलेगी। वे एक महान रिपोर्टर-एडिटर थे और वे इस क्षेत्र में और भी बहुत कुछ करने की क्षमता रखते थे।

पोस्टस्क्रिप्ट: कुलदीप नैयर अक्सर मुझे तीन सुझाव दिया करते थे। पहली, कि मैं एक साप्ताहिक कॉलम की शुरुआत करूं और उसे जारी रखूं- मैंने कर्तव्य समझकर उनकी बात मानी। दूसरी, कि मुझे दोपहर में एक झपकी ज़रूर लेनी चाहिए, जिसकी में यथासंभव कोशिश करता हूँ लेकिन कुछ खास फायदा नहीं दिखता। तीसरी, कि मैं पत्रकारों की तनख्वाह हद से ज़्यादा बढ़ा रहा था और मुझे ऐसे नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे वे भौतिकवादी बन जाएंगे और अंततः “मालिक के लिए” अनुपयुक्त । यह सलाह मैंने आदर के साथ ठुकरा दी।

संपादकीय टिप्पणी : यह लेख 25 अगस्त 2018 के दि हिन्दू में भी छपा है।

Read in English: Kuldip Nayar: The rock star Reporter who should’ve been Editor

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