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Saturday, 4 May, 2024
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बिहार के इस गांव से समझिए रविदास मंदिर तोड़ने पर दलितों के गुस्से की वजह

अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए बुधवार को लाखों दलितों ने दिल्ली में जोरदार प्रदर्शन किया और संत रविदास के मंदिर की पुनःस्थापना करने की मांग की.

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बिहार: पिछले दिनों शीर्ष अदालत के आदेश पर दिल्ली के तुगलकाबाद में संत रविदास का मंदिर तोड़ने के बाद दलित समुदाय में गुस्सा उफान पर है. अपना गुस्सा ज़ाहिर करने के लिए बुधवार को लाखों दलितों ने दिल्ली में जोरदार प्रदर्शन किया और मंदिर की पुनःस्थापना करने की मांग की. मंदिर तोड़े जाने पर दलित समुदाय का गुस्सा बताता है उनके लिए संत रविदास की अहमियत क्या है. इस अहमियत को और आसानी से समझने के लिए आपको बिहार के वैशाली जिले के कुसहर गांव में आना होगा.

दलित व पिछड़ी जाति बहुल इस गांव की रविदास (चमार समुदाय जो महादलित कहे जाते हैं) बिरादरी ने पारम्परिक देवी-देवताओं मसलन ब्रह्मा, विष्णु, सत्यनारायण भगवान आदि को दरकिनार कर उनकी जगह 15वीं शताब्दी के समाज सुधारक संत रविदास को स्थापित कर दिया है. ये समुदाय धार्मिक कर्मकांडों से लेकर शादी-व्याह में भी संत रविदास की पूजा करता है. इनके घरों की दीवारों पर अनिवार्य रूप से संत रविदास की तस्वीरें टंगी मिलती हैं.

रविदास समुदाय से आने वाले कुसहर गांव के निवासी मनीष राम कहते हैं, ‘पिछले एक दशक पहले तक हमारे घर में शादी-व्याह में सत्यनारायण पूजा हुआ करती थी और दूसरे धार्मिक कार्यक्रमों में उन देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी, जिनकी अराधना सदियों से चली आ रही थी. लेकिन पिछले एक दशक में चीजें बदली हैं. अभी हमलोग शादी-व्याह में सत्यनारायण पूजा की जगह संत रविदास की पूजा करते हैं और उनकी ही कथा सुनाई जाती है.’

शादी का कार्ड जिसमें कई दलित चिंतकों की तस्वीर है | फोटो : उमेश कुमार राय

मनीष बताते हैं, ‘मेरी शादी में सत्यनारायण पूजा हुई थी. मुझे पहले पता नहीं था कि डॉ भीमराव अंबेडकर और संत रविदास ने दलित समुदाय के उत्थान के लिए क्या किया था. जब मैंने उनके बारे में पढ़ा, तो मुझे अहसास हुआ कि काल्पनिक देवी-देवताओं की जगह क्यों न इनकी पूजा की जाए. तब से ही सत्यनारायण पूजा की जगह रविदास पूजा और उनकी ही कथा कराने की फैसला लिया. यही नहीं, किसी की मौत होने व अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में भी रविदास कथा करते हैं.’


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कुसहर गांव में रविदास समुदाय के करीब 400 घर हैं. लेकिन, सभी घरों में ये रवायत अभी शुरू नहीं हुई है. दलितों के घरों में पंडिताई करवा रहे वैशाली जिले के पंडित शशिभूषण दास के मुताबिक, अभी 25 प्रतिशत घरों में घृतढारी-मटकोर (शादी से एकदिन पहले होनेवाला रिवाज) में सत्यनारायण पूजा की जगह संत रविदास की पूजा कराने को कहा जाता है. बाकी घरों में पुरानी परम्परा का ही पालन अब भी हो रहा है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘ मैं दर्जनों गांवों में दलित जातियों के यहां पूजा-पाठ करवाता हूं, लेकिन कुसहर गांव में सबसे ज्यादा रविदास समुदाय संत रविदास की पूजा में दिलचस्पी दिखा रहा है.

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पंडित होने के नाते मुझे जिस भी भगवान की पूजा कराने को कहा जाता है, उनकी पूजा कराता हूं. कुसहर गांव के 34 वर्षीय विजय किशोर भी चमार बिरादरी से आते हैं. उनकी शादी 15 साल पहले पारम्परिक रीति-रिवाज से हुई थी, लेकिन बाद में उनके दो भाइयों की शादी में व्यतिक्रम हुआ.

विजय किशोर ने दिप्रिंट को बताया, ‘एक भाई की शादी इसी वर्ष हुई है. लड़कीवाले पुराने रीति-रिवाज (सत्यनारयण पूजा व कथा) से ही शादी करना चाहते थे, लेकिन हमने लड़की के परिवारवालों के साथ दो बार बातचीत कर उन्हें बताया कि क्यों हमें रविदास की पूजा करनी चाहिए, तब जाकर वे लोग माने.’ कुसहर से प्रेरणा लेकर वैशाली के ही पातेपुर, डभैत, सलेमपुर जैसे कुछ गांवों में इक्का-दुक्का लोग रविदास पूजा और कथा करवाने लगे हैं.

स्थानीय लोगों का कहना है कि पिछले कुछ सालों में क्षेत्र में भीम आर्मी सेना का प्रभाव बढ़ा है, जिससे धार्मिक कर्मकांडों का स्वरूप भी बदलने लगा है. यही नहीं हाल के वर्षों में शादी के लिए छपनेवाले निमंत्रण कार्डों की शक्ल में भी बदलाव
आया है. कार्डों में देवी-देवताओं की जगह संत रविदास के अलावा डॉ अम्बेडकर,संत कबीर जैसे समाज सुधारकों ने ले ली है.

दलित चिंतक व पटना यूनिवर्सिटी के प्रो. रमाशंकर आर्य इस बदलाव को स्वागत योग्य कदम बताते हैं.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘समाज में हमेशा परिवर्तन होता रहता है और ये बदलाव भी उसी सिलसिला का एक हिस्सा है. यह बदलाव सकारात्मक है और इसका इस्तकबाल होना चाहिए.’ वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, बिहार की आबादी करीब 10.4 करोड़ है. इनमें दलितों व महादलितों की आबादी 15 प्रतिशत है. आर्थिक हैसियत के लिहाज से देखें, तो ये समुदाय सबसे बुरी स्थिति में है. ज्यादातर लोगों के पास अपनी जमीन नहीं है.


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ऐसे में सवाल उठता है कि इस समुदाय में शिक्षा का प्रसार, माली हालत में सुधार, सामाजिक जागरूकता बढ़ाने आदि पर काम करने की जगह ब्राह्मणवादी कर्मकांडों को छोड़ कर एक नए तरह के कर्मकांड पर जोर देने से क्या हासिल होगा ? इस सवाल का जवाब कुसहर के ही 40 वर्षीय गजेंद्र राम देते हैं, ‘देखिए, पूजा-पाठ छोड़ देने से बहुजन समाज का कल्याण नहीं होनेवाला है. हां, हम ये जरूर कर रहे हैं कि पूजा पाठ के कार्यक्रमों में खर्च कम कर देवी-देवताओं की कथा की जगह बहुजन समाज के हक-ओ-हुकूक के लिए संघर्ष करनेवाले महापुरुषों के जीवन और शिक्षा पर बात करते हैं, ताकि हमारा समाज जागरूक बने.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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