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Sunday, 22 December, 2024
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अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी : जाने कहां गए वे लोग!

ऐसे लोग कम होते हैं जो बग़ैर किसी शोहरत की तमन्ना किए ख़ामोशी से समाज सेवा का अपना काम किए जाते हैं. ऐसी ही शख़्सियतों में एक नाम अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी का है.

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दिल्ली या अन्य बड़े शहरों में बैठकर आप सोच भी नहीं सकते कि झारखंड की राजधानी रांची से क़रीब 20 किलोमीटर दूर ओरमांझी प्रखंड में बसे एक छोटे से गांव इरबा में स्तरीय कैंसर इंस्टीट्यूट भी हो सकता है. वह भी बिल्कुल लेटेस्ट टेक्नोलॉजी के साथ, जहां आए दिन दिल्ली और मुंबई ही नहीं, ऑस्ट्रेलिया व अमेरिका से एक्सपर्ट डॉक्टर आते रहते हैं.

इतना ही नहीं, इस छोटे से इलाक़े में मेदांता का हॉस्पीटल भी है. साथ ही यहां अस्कलेपियस सेंटर फॉर मेडिकल साइंस एवं 150 बेड का अस्कलेपियस अस्पताल और फ्लोरेंस नर्सिंग कॉलेज भी है. एक छोटे से मॉल के साथ शाईन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साईंस, दि छोटानागपुर रिजनल हैण्डलूम विवर्स को-ऑपरेटिव यूनियन लिमिटेड और सिल्क पार्क भी है. ये सब कुछ अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी (24 जनवरी, 1917- 14 मार्च, 1992) की वजह से है. ये सब उनकी याद में उनके परिवार की तरफ़ से श्रद्धांजलि है.

संघर्षों भरा रहा जीवन

ये वही अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी हैं, जिनके पास कभी पढ़ने के लिए पैसे ही नहीं थे. दस साल की उम्र में अपने परिवार के लोगों के बुने कपड़ों को क़रीब 20 किलोमीटर दूर बाज़ार में ले जाकर बेचते थे. कपड़ों को बेचने के बाद वे खान बहादुर हबीबुर रहमान के खोले गए एक स्कूल के गेट पर खड़े हो जाते थे, ये सिलसिला लगातार चलता रहा.


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आख़िरकार एक दिन हेडमास्टर ने इन्हें बुलाकर खड़े होने की वजह पूछी. इन्होंने बड़ी सरलता से पढ़ाई में अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर की. हेडमास्टर ने इनके मर्म को समझा और इन्हें इस छूट के साथ स्कूल आने की इजाज़त दे दी कि वह देर से आ सकता है और जल्दी जा सकता है, क्योंकि इन्हें अपने गांव में पैदल आना और जाना होता था.

स्त्री शिक्षा से जगाई उम्मीदें

रांची के मशहूर लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हुसैन कच्ची बताते हैं, ‘अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी का सबसे अहम योगदान अपने इलाक़े में लड़कियों की शिक्षा को लेकर रहा. उनके बारे में कहा जाता है कि जब उनकी शादी हुई तो सुहागरात को अपनी पत्नी को तोहफ़े में किताबें दीं और कहा कि आपको मेरी ख़ुशी के लिए पढ़ाई करके मैट्रिक पास करना है.’ उसके बाद उन्होंने खुद उन्हें पढ़ाया. इस तरह से उनकी पत्नी बीबी नफ़ीरून निसा ने न सिर्फ़ मैट्रिक पास किया बल्कि स्कूल में बतौर टीचर बहाल भी हुईं जहां से हेडमिस्ट्रेस होकर रिटायर हुईं. रिटायरमेंट के बाद भी वे अपने गांव की लड़कियों को अपने घर पर पढ़ाती रहीं. उनकी इन कोशिशों की वजह से पूरे इलाक़े में लड़कियों में पढ़ाई का काफ़ी रूझान बढ़ा. इस कहानी की पुष्टि अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी के बेटे मंज़ूर अंसारी भी करते हैं.

95 साल के कांग्रेसी नेता अमानत अली का कहना है कि रज़्ज़ाक़ अंसारी उनके साथ मोमिन कांफ्रेंस में शामिल रहे. बाद में कांग्रेस में भी साथ बने रहे. वे कहते हैं, ‘हमारा खेमा अलग-अलग था. उनकी सबसे ख़ास बात ये थी कि अगर कोई भी कार्यकर्ता उनके घर पहुंच जाए तो वे उसे बग़ैर खाना खिलाए वापस नहीं भेजते थे और ये पूछते थे कि वापस जाने के लिए किराया है या नहीं. अगर नहीं तो वे तुरंत अपनी जेब से पैसे निकालकर उस कार्यकर्ता की जेब में डाल देते थे.’

बुनकरों को संगठित किया

रांची यूनिवर्सिटी के प्रो वाइस चांसलर रह चुके वरिष्ठ पत्रकार वी.पी. शरण कहते हैं कि मैं उन्हें एक सोशल रिफ़ॉर्मर के तौर पर देखता हूं. उन्होंने देखा कि छोटानागपुर के बुनकरों की हालत ठीक नहीं है. उन्होंने सबसे पहले बुनकरों का कोऑपेरेटिव यूनियन बनाया, जो शायद उस वक़्त बुनकरों का भारत में पहला यूनियन था. इसका लाभ बुनकरों को उस वक़्त भी मिला और अब भी मिल रहा है.

वे आगे कहते हैं कि जब बुनकरों की आर्थिक हालत सुधरी तो उन्होंने इनके बच्चे-बच्चियों की शिक्षा की तरफ़ ध्यान दिया. जब वे खुद ज़िन्दगी के आख़िरी पड़ाव में बीमार पड़े तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने की सोची. उन्होंने सोचा कि मेरे पास पैसा है तो मैं अपोलो अस्पताल आ गया, लेकिन गांव के लोग तो यहां आने के बारे में सोच भी नहीं सकते. उनके इस सपने को आज उनके बेटे साकार कर रहे हैं.

राष्ट्र के प्रति समर्पण, गरीबों के प्रति लगाव

रांची यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर शीन अख़्तर बताते हैं कि अब्दुर रज़्ज़ाक़ साहब मेरे वालिद के दोस्तों में से रहे. उन्होंने हमेशा नेशनलिस्ट मिज़ाज रखा. वे कभी किसी विवाद में नहीं पड़े. न धार्मिक विवाद और न ही किसी राजनीतिक विवाद में. बस खुद को अपनी क़ौम व देश के लिए वक़्फ़ कर रखा था और लगातार अपने मिशन में लगे रहे.

रांची के सीनियर कांग्रेसी नेता रोशनलाल भाटिया बताते हैं कि रज़्ज़ाक़ साहब को मैं ख़ास तौर पर 1972 से जानता था. ये यक़ीनन गरीब बुनकरों के मसीहा थे. इन्होंने गरीबों को आर्थिक आज़ादी की लड़ाई में शामिल किया. उन्हें सिर्फ़ मुसमलान नेता तक सीमित करना उनके साथ नाइंसाफ़ी होगी. उन्होंने गरीबों की आर्थिक आज़ादी की लड़ाई में सबको शामिल किया. बुनकरों के लिए हमेशा अपने पार्टी के लोगों व सरकार से लड़ते रहे.

झारखंड अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष गुलफ़ाम मुजीबी अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि एक बार उन्होंने मुझे एक कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया तब मैंने कहा था कि आप लोग तो सिर्फ़ बुनकर और अंसारी लोग की बात करते हैं, उसमें मैं आकर क्या करूंगा. तब उन्होंने बड़ा अच्छा जवाब दिया. उन्होंने कहा, “छोटानागपुर में जितनी मुस्लिम आबादी है, उसकी क़रीब 70 फ़ीसदी आबादी सिर्फ़ अंसारी की है. वे सब बेहद गरीब व पिछड़े लोग हैं. अगर मैं 70 फ़ीसद लोगों की समस्याओं का समाधान कर देता हूं तो बाक़ियों की समस्याएं खुद ब खुद हल हो जाएंगी.” उनका ये जवाब मुझे बहुत पसंद आया और आज भी याद है.

अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी के बेटे मंज़ूर अंसारी बताते हैं कि पूरे गांव में सिर्फ़ हमारे घर ही गाड़ी थी. गांव में कोई भी बीमार पड़ता तो अब्बू तुरंत अपनी गाड़ी से इलाज के लिए भेजते थे. एक बार वे बीमार पड़े और अपोलो में उनका इलाज चल रहा था. उन्होंने अचानक कहा कि हमलोगों को अल्लाह ने पैसा दिया है तो हम इतनी दूर आ जाते हैं, लेकिन हमारे गांव का गरीब यहां आने के बारे में सोच भी नहीं सकता है. बेहतर होता कि हम गांव में ऐसा ही एक अस्पताल खोलते. फिर उनकी ज़िन्दगी में ही 1991 में तत्कालीन गवर्नर शफ़ी कुरैशी के हाथों एक अस्पताल की नींव रखी गई. लेकिन अब्बू की ज़िन्दगी में काम ज़्यादा आगे नहीं बढ़ सका और अब्बू 14 मार्च, 1992 को इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए.

वे बताते हैं कि पहले ये अस्पताल अपोलो के साथ मिलकर खोला गया था. अब मैनेजमेंट मेदांता के हाथों में है. इस अस्पताल का नाम ‘अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी मेमोरियल वीवर्स हॉस्पीटल’ है. यहां बुनकरों का इलाज के लिए विशेष सुविधा दी गई है. बुनकरों की ओपीडी फ़ीस मात्र 30 रूपये है. जांच में भी 70 फ़ीसद की छूट दी जाती है. वे बताते हैं, “अब्बू द्वारा स्थापित ‘दि छोटानागपुर रिजनल विवर्स को-ऑपरेटिव यूनियन लिमिटेड’ से जुड़े क़रीब 15 हज़ार बुनकर इस अस्पताल से लाभ उठा रहे हैं.”

अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी 1946 से राजनीति में सक्रिय रहे. वे शुरू से ही मुस्लिम लीग और उसकी टू नेशन थ्योरी के ख़िलाफ़ रहे. उनकी कोशिशों की वजह से 1946 में छोटानागपुर डिविज़न की पांचों सीटें कांग्रेस की झोली में आई. उनके इस कारनामे से ख़ुश होकर सरदार पटेल ने उन्हें दिल्ली बुलाया. देश की आज़ादी के बाद 1948 में प्राथमिक बुनकर सहयोग समिति की बुनियाद डाली और धीरे-धीरे सहकारिता आंदोलन से बुनकरों को जोड़ा. 1978 में ‘दि छोटानागपुर रिजनल हैण्डलूम विवर्स को-ऑपरेटिव यूनियन लिमिटेड’ की स्थापना कर हस्तकरघा उद्योग से बुनकरों को जोड़ा.


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उन्होंने अपने इलाक़े में 17 स्कूल खोले. 1938 में उन्होंने जो मिडल स्कूल खोला था, वह आज भी उनकी याद को ज़िन्दा रखे हुए है. इन्होंने बाद में इस स्कूल का नाम अपने राजनीतिक गुरू अब्दुल क़य्यूम अंसारी के नाम पर रखा, जो अब एक सरकारी स्कूल है. इसी कैम्पस में अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी हाई स्कूल भी मौजूद है.

अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी 1964 में बिहार विधान परिषद के सदस्य बनाए गए. उसके बाद बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्रा ने 1989 में फिर से न सिर्फ़ विधान परिषद का सदस्य बनाया बल्कि इन्हें हस्तकरघा, रेशम और पर्यटन विभाग में कैबिनेट मंत्री का पद भी दिया. वे अपने आख़िर दौर तक समाज के लोगों की ख़िदमत और उनके उत्थान में लगे रहे. ऐसी मिसालें भारत में बहुत कम ही देखने को मिलती हैं.

(लेखक बियॉन्ड हेडलाइंस डॉट कॉम के संपादक हैं, यह लेख उनके निजी विचार हैं.)

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