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Thursday, 25 April, 2024
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ख़ान मार्केट ने मोदी को कम वोट दिया, तभी वह खुद को कुलीन वर्ग का विरोधी बताते हैं

आंकड़ों के अनुसार, लुटियंस दिल्ली के कुछ संपन्न इलाकों में कांग्रेस पार्टी को भाजपा से अधिक वोट मिले.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा को 2019 में पहले से बड़ा जनादेश मिलने के मद्देनज़र बहुतों को उम्मीद थी कि भारत की अर्थव्यवस्था में गति डालने के लिए बजट में कतिपय बड़े फैसले किए जाएंगे. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के बजट में, भाजपा के 2014 से अब तक के अन्य बजटों के समान ही, महज क्रमिक बदलावों के प्रस्ताव हैं. ये रूढ़ीवादी बजट मोदी की अपने लिए गढ़ी लोकलुभावनवादी और लीक से हटने वाले नेता की छवि के विपरीत है. एक स्वघोषित पॉपुलिस्ट नेता क्रमगत नीतिगत बदलावों पर क्यों उतर आया? जबकि, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप जैसे अन्य लोकलुभावनवादी नेताओं ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार, आप्रवासन तथा अंतरराष्ट्रीय क्रियाकलापों के स्थापित पैटर्न को तोड़ने का काम किया है.

वर्तमान में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सत्ताशीन लोकलुभावनवादी नेताओं में भारत के नरेंद्र मोदी, अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प, तुर्की के रेसेप तैयप एर्दोगान, फिलीपींस के रोड्रिगो डुटर्टे, ब्राजील के जेयर बोल्सोनारो और इजरायल के बेंजामिन नेतन्याहू शामिल हैं. लोकलुभावनवाद या पॉपुलिज़्म को परिभाषित करना मुश्किल है, पर इसके प्रतिनिधि नेता करिश्माई होते हैं, खुद को जन आकांक्षाओं का पैरोकार मानते हैं. आभिजात्य वर्ग के प्रति तिरस्कार का संकेत देते हैं तथा प्रेस और सिविल सोसाइटी जैसे अनिर्वाचित संस्थानों (जो कि उनके अनुसार निहित स्वार्थों के लिए काम करते हैं) के प्रति उपेक्षा भाव दर्शाते हैं.

2001 से ही (गुजरात का मुख्यमंत्री) सत्ता पर काबिज होने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी खुद को सत्ता प्रतिष्ठान में बाहरी और आभिजात्यवाद विरोधी नेता के रूप में पेश करते हैं. मोदी के भाषणों के इस केंद्रीय कथानक को लोकलुभावनवादी राजनीति की प्रधान विशेषता के रूप में देखा जाता है. उन्होंने अपने साधारण अतीत का लुटियंस दिल्ली में बाहरी व्यक्ति होने के सबूत के तौर पर पेश करने से कभी गुरेज नहीं किया है. इस साल के लोकसभा चुनावों के दौरान इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री ने कहा था कि उनकी सार्वजनिक छवि उनकी कड़ी मेहनत के चलते है और इसमें ‘ख़ान मार्केट गैंग’ या लुटियंस दिल्ली की कोई भूमिका नहीं है. आभिजात्यवाद विरोधी रुख भारतीय मतदाताओं, खासकर बेहतर भविष्य के आकांक्षी युवाओं को अपील करता है.


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ये समझना महत्वपूर्ण है कि आभिजात्यवाद विरोधी रुख भले ही राजनीतिक-चुनावी रणनीति के संदर्भ में महज थोथी बयानबाज़ी लगे, पर यह अक्सर सत्य की कतिपय धारणाओं पर आधारित होता है. इस बात के कुछ सबूत हैं कि 2019 में भी भारत के सामाजिक और आर्थिक रूप से कुलीन मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया. लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा किए गए राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन (एनईएस) का एक निष्कर्ष ये निकला है कि नियमित रूप से अंग्रेज़ी अख़बार पढ़ने वालों (भारतीय संभ्रांत वर्ग का एक पैमाना) के क्षेत्रीय भाषाओं के अख़बार के पाठकों (या अंग्रेज़ी समाचार चैनल देखने वालों तक) के मुकाबले भाजपा को वोट देने की संभावना कम रहती है. नई दिल्ली लोकसभा सीट पर 2019 के चुनाव में भारी अंतर (ढाई लाख वोट से अधिक) से हारने के बावजूद कांग्रेस पार्टी को लुटियंस दिल्ली के भगवान दास रोड, मानसिंह रोड, मंदिर मार्ग, लोदी कॉलोनी और ख़ान मार्केट जैसे संपन्न इलाकों में भाजपा के मुकाबले अधिक वोट मिले. ख़ान मार्केट मतदान केंद्र की बात करें तो यहां पड़े कुल 674 वोटों में से कांग्रेस के अजय माकन को 446 वोट मिले, जबकि भाजपा की मीनाक्षी लेखी की झोली में मात्र 178 वोट आए.

इसका ये मतलब नहीं कि 2019 के चुनावों में भाजपा ने संपन्न इलाकों में कहीं भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया. चूंकि एक मतदान केंद्र से कई तरह के इलाके संबद्ध होते हैं, इसलिए इस बारे में कोई निश्चित मानदंड तय नहीं किया जा सकता है. वास्तव में, देश भर में ऐसे कई इलाकों में भाजपा ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ा था जो कि ‘संपन्न’ इलाके कहे जा सकते हैं.

तमाम पॉपुलिस्ट नेता खुद को आभिजात्यवाद के विरोधी के रूप में पेश करते हैं, पर नीतियों और उनके कार्यान्वयन को लेकर वे एक-दूसरे से भिन्न होते हैं. ऐसे नेता दक्षिणपंथी रुझान वाले (नरेंद्र मोदी) भी हो सकते हैं और वामपंथी दृष्टिकोण (इंदिरा गांधी) वाले भी. ये सामान्य पृष्ठभूमि (मायावती) के भी हो सकते हैं और स्टार जैसे आभामंडल (जयललिता या डोनल्ड ट्रंप) के साथ राजनीति में घुसने वाले भी. कुछ पॉपुलिस्ट नेता प्रचलित तौर-तरीकों को बाधित करने वाली (डिसरप्टिव) नीतियां बनाते हैं और ऐसी नीतियां इस बात पर निर्भर करती हैं कि वे राजनीतिक व्यवस्था में बाहरी (अरविंद केजरीवाल) हैं या उनका उदय राजनीतिक दल या दलों की स्थापित व्यवस्था के तहत (नरेंद्र मोदी) हुआ है.

राजनीति में बाहर से आए अरविंद केजरीवाल या फिर डोनल्ड ट्रंप भी, जैसे पॉपुलिस्ट के परंपरागत नीतियों और रणनीतियों को अपनाने की संभावना कम रहती है. दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के एक एक्टिविस्ट से शीर्ष पद काबिज पूर्णकालिक नेता के रूप में रूपांतरण में कई साल लगे. इस रूपांतरण से पूर्व केजरीवाल बारंबार के अपने धरनों और दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर के साथ तनातनी के कारण चर्चा में रहते थे. नीतियों की बात करें तो केजरीवाल ने अपने ऑड-इवन फार्मूले की नाकामी के बाद शहर में प्रदूषण कम करने पर विशेष फोकस की नीति को छोड़ दिया. इसी तरह डोनल्ड ट्रंप के फैसलों का पूर्वानुमान भी मुश्किल है, खास कर जब बात विदेश नीति की हो.

खुद को दिल्ली में बाहर से आए व्यक्ति के रूप में पेश करने वाले नरेंद्र मोदी मुख्यधारा की एक राजनीतिक पार्टी की स्थापित व्यवस्था में नीचे से ऊपर उठे हैं. मोदी ने भाजपा के भीतर विभिन्न पदों को संभाला है और प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वह एक दशक से भी अधिक समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं. मोदी जैसे नेताओं के दोहरे उद्देश्य होते हैं – अपना शासन सुनिश्चित करना और साथ ही अपनी पार्टी के चुनावी और वैचारिक वर्चस्व का विस्तार करना.

मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से जुड़े लोकलुभानवादी नेता धमाकेदार डिसरप्टिव सुधारों के ऊपर क्रमिक सुधारों को वरीयता देते हैं. मोदी के पहले कार्यकाल में राज्य सरकारों की सहमति से जीएसटी जैसे अहम सुधारों को लागू किया गया था. विनिवेश और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर सरकार ने सतर्कता के साथ कदम बढ़ाए, भले ही धीमी चाल के लिए उसे अपने उदारीकरण समर्थकों का कोपभाजन बनना पड़ा. जनदबाव में सरकार को भूमि अधिग्रहण विधेयक जैसे कुछ प्रमुख सुधारों से हाथ भी खींचना पड़ा.


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साथ ही नोटबंदी के अलावा, जो शायद चौंकाने वाला एकमात्र नीतिगत फैसला था. मोदी शासन में नीति-निर्माण का पूर्वानुमान लगाना बहुत हद तक संभव रहा है. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मोदी के बहुत से नीतिगत फैसले भाजपा की विचारधारा के अनुरूप रहे हैं. वैसे तो हर पॉपुलिस्ट नेता के तरकश में हतप्रभ करने वाले तीर मौजूद रहेंगे पर मुख्यधारा के दलों से आने वाले नेता शायद ही इसका इस्तेमाल करें. आगे की बात करें, तो मोदी खुद को व्यवस्था में मौजूद बाहरी व्यक्ति के रूप में पेश करते रहेंगे, भले ही उनकी नीतियां बुनियादी बदलावों से अधिक क्रमिक सुधारों पर केंद्रित हों.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(प्रदीप छिब्बर और प्रणव गुप्ता अमेरिका में बर्कली स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं. राहुल वर्मा सेंटर ऑफ पॉलिसी रिसर्च में अध्येता हैं. व्यक्त विचार लेखकों के निजी हैं.)

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