29 सितंबर 2006 खैरलांजी में हुई भयावहता की याद हमारे ज़ेहन में हमेशा रहेगी. एक ऐसी तारीख जो भारत की आज़ादी के 76 साल बाद भी हमारे समाज में बैठे जातीय पूर्वाग्रहों का प्रमाण है.
सत्रह साल पहले महाराष्ट्र के एक गांव में भीड़ द्वारा दलित परिवार के चार लोगों के नरसंहार ने भारत को हिलाकर रख दिया था. सत्ता के गलियारों तक इसकी गूंज सुनाई पड़ी थी, लेकिन क्या इससे देश में गहरी पैठ रही हिंसा की संस्कृति रुकी या धीमी हुई? यह मामला उस घृणित गठजोड़ की याद दिलाता है जो कमज़ोरों की रक्षा के लिए बने सबसे स्थानीय प्रशासनिक और पुलिस ढांचे को भी संचालित, बढ़ावा और भ्रष्ट करता है.
इसके बाद, इस अपराध की वास्तविक प्रकृति को दिखाने में मीडिया की अनिच्छा स्पष्ट थी. जिसे तुरंत जातीय घृणा के स्पष्ट लक्षण के रूप में पहचाना जाना चाहिए था, उसे व्यक्तिगत प्रतिशोध और ‘नैतिक विवादों’ के रूप में गलत तरीके से चित्रित किया गया. इस जानबूझकर किए गए भ्रम ने न केवल जाति-आधारित हिंसा की गंभीरता को कम कर दिया, बल्कि उनकी हत्या के बाद भोतमांगे परिवार को और अधिक पीड़ित किया.
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मोदी के पास मौका है
खैरलांजी नरसंहार को याद करना ज़रूरी है क्योंकि इतिहास में राष्ट्रों को केवल उनकी आर्थिक शक्ति या सैन्य शक्ति के कारण याद नहीं किया जाता है, बल्कि न्याय, समानता और उनके सबसे कमज़ोर लोगों के कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के कारण भी याद किया जाता है. आंबेडकरवादियों द्वारा भारत के प्रधानमंत्री के लिए राष्ट्रपति बाइडेन के राजकीय रात्रिभोज और यहां तक कि जी20 जैसे मोदी के अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों से खुद को स्पष्ट रूप से अनुपस्थित पाए जाने का एक गंभीर कारण खैरलांजी जैसे अत्याचार के मामलों में न्याय मांगने के प्रति उनकी उग्र, अटूट प्रतिबद्धता है. मोदी जैसे नेताओं के पास इस विरासत को लिखने का अनूठा अवसर है, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि भारत न केवल एक वैश्विक शक्ति के रूप में जाना जाए, बल्कि न्याय और समानता के प्रतीक के रूप में भी जाना जाए.
मोदी और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) शासित राज्यों के तहत, दलितों के खिलाफ अत्याचार बढ़ गए हैं और मोदी सरकार को उन सिफारिशों को तुरंत अपनाना चाहिए और उन पर कार्रवाई करनी चाहिए जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने 10 नवंबर 2022 को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की सार्वभौमिक आवधिक समीक्षा प्रक्रिया में की थी. सबसे महत्वपूर्ण बात, गृह और कानून जैसे प्रमुख मंत्रालयों में प्रतिबद्ध दलित बुद्धिजीवी नेताओं को प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की सिफारिशें अल्पसंख्यक समुदायों और कमजोर समूहों की सुरक्षा, लिंग आधारित हिंसा से निपटने, नागरिक समाज की स्वतंत्रता को कायम रखने, मानवाधिकार रक्षकों की रक्षा करने और हिरासत में यातना को समाप्त करने सहित कई प्रमुख चिंताओं को कवर करती हैं.
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ठिठुरन भरी गूंज
कच्ची भावनाओं से बंधे हुए, मेरे दिल के तार खैरलांजी से कसकर जुड़े हुए हैं. इसके अतीत की डरावनी गूंज ही वह कारण थी जिसके कारण मुझे 2006 की घटना के कुछ ही हफ्ते बाद भारत से दूर जाने की इच्छा महसूस हुई. मेरी और पत्रकार सबरीना बकवाल्टर की भोतमांगे के साथ मुलाकात महज एक इंटरव्यू से आगे निकल गई. यह अकल्पनीय भय से प्रभावित आत्माओं के बीच एक पवित्र मिलन था. जैसे ही मैं भोतमांगे के सामने खड़ा था, मैं सिर्फ उनकी आंखों में नहीं देख रहा था, बल्कि अनगिनत दलितों की थकी हुई आत्माओं को देख रहा था, जो उनके जैसे खोए हुए महसूस करते थे, एक ऐसी मातृभूमि के लिए तरस रहे थे जो हमेशा के लिए पहुंच से बाहर लगती थी. युवा अमेरिकी रिपोर्टर बकवाल्टर के साथ मिलकर हमने अन्याय की इस खाई पर प्रकाश डालने का दृढ़ संकल्प लिया. बकवाल्टर की बस एक और बलात्कार की कहानी? टाइम्स ऑफ इंडिया में हमारे लिए सिर्फ एक पेज पर भी शब्द नहीं थे; यह हमारा उत्कट आक्रोश था, एक गूंज जो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग, एमनेस्टी इंटरनेशनल और यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री के कार्यालय के हॉल में भी सुनाई दी.
हमारी यात्रा साहस और लचीलेपन की परीक्षा थी. भंडारा जिले में ठंडी, चुभने वाली चकाचौंध, पुलिस प्रमुख द्वारा नरसंहार को केवल “नक्सली मुद्दा” करार देने की अनदेखी ने हमें रोकने की कोशिश की, लेकिन इन कठिन बाधाओं के बीच, हमने महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों को उजागर किया. इस कहानी को साझा करने मात्र से ही हम पुलिस के रडार पर आ गए थे और हमें नक्सली के रूप में चित्रित करने की धमकियां मिल रही थीं. यह एक जोड़-तोड़ वाला खेल है; क्रूरता के खिलाफ खड़े होने वाले उद्दंड दलित कार्यकर्ताओं और सामाजिक योद्धाओं को चुप कराने के लिए अधिकारियों द्वारा अक्सर एक रणनीति अपनाई जाती है.
सच को उजागर करने के लिए भारी कीमत की मांग की गई. वीज़ा अस्वीकृत होने के बाद बकवाल्टर ने खुद को निर्वासन के कगार पर पाया, जबकि खतरे हर जागते पल पर मेरे ऊपर मंडरा रहा था. फिर भी, एक अदम्य भावना से प्रेरित होकर, फाउंडेशन फॉर ह्यूमन होराइजन के अध्यक्ष के रूप में मैंने 2006 में जिनेवा के संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में अपना विरोध प्रदर्शन किया. मेरी भूख हड़ताल एक प्रकाशस्तंभ बन गई, जिसने भारत के प्रधानमंत्री को भी आखिरकार खैरलांजी के काले सच को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया.
जैसे ही बकवाल्टर और इस लेखक के खुलासे सीमाओं के पार गूंजे, दलित अत्याचार की गंभीरता सामने आई, जिसने वैश्विक समुदाय की सामूहिक चेतना को झकझोर कर रख दिया. कहानी अब केवल खैरलांजी के बारे में नहीं थी; यह पीड़ितों की असंख्य दबी हुई कहानियों का दर्पण बन गई, जिसने अंतर्राष्ट्रीय अंग्रेज़ी भाषी मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया. उनके निष्पक्ष लेंस और व्यापक पहुंच अब केवल पर्यवेक्षक नहीं रह सकते, बल्कि परिवर्तन के उत्प्रेरक में बदलने की ज़रूरत है.
वैश्विक ध्यान ने एक ओर, अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की शक्ति पर प्रकाश डाला. जब हमारी परस्पर जुड़ी दुनिया के किसी भी कोने में अत्याचार होता है, तो वैश्विक नागरिकों के लिए उनकी निंदा करना एक नैतिक दायित्व है. खैरलांजी इसका उदाहरण है, क्योंकि प्रतिष्ठित मंचों सहित अंतरराष्ट्रीय दबाव से फर्क पड़ा. वहीं, दूसरी ओर इसने भारत के स्याह पक्ष को भी उजागर किया.
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खैरलांजी सिर्फ इतिहास नहीं है
आज, जब हम खैरलांजी नरसंहार पर विचार करते हैं, तो यह केवल एक ऐतिहासिक संदर्भ के रूप में नहीं, बल्कि भारत की वर्तमान चुनौतियों का एक मार्मिक प्रतिबिंब के रूप में कार्य करता है. एक राष्ट्र के रूप में हम महान ऊंचाइयों पर पहुंच गए हैं, लेकिन खैरलांजी जैसे एपिसोड हमें आगे बढ़ने की कठिन यात्रा की याद दिलाते हैं.
भोतमांगे परिवार अनगिनत दलितों के सपनों और आकांक्षाओं का प्रतीक है. हालांकि, उनके सपनों का दुखद अंत हो गया, लेकिन उनकी विरासत अपरिवर्तित बनी हुई है. वो आशा, प्रतिरोध और अदम्य भावना का प्रतीक हैं जो जाति बंधनों से मुक्त भारत की कल्पना करते हैं.
जैसे ही खैरलांजी की डरावनी यादें फिर से उभरती हैं, हमारे दिल केवल पीड़ा से आह नहीं भरते; वे हथियारों के आह्वान के साथ गरजते हैं. यह महज़ पुरानी यादें नहीं हैं; यह उठने, कार्य करने और बदलने की एक भावुक अपील है. हम ऐसे काले प्रसंगों को भुलाने की पवित्र प्रतिज्ञा करते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे हमारे वर्तमान या भविष्य को कभी धूमिल न करें, क्योंकि, न्याय में देरी, संक्षेप में न्याय को नकारना है, जो राष्ट्र अपने वंचित नागरिकों की आकांक्षाओं की उपेक्षा करता है वह अपनी आत्मा खो देता है.
हमें एक ऐसे भारत की कल्पना करनी चाहिए जहां हर महत्वाकांक्षा, चाहे वह विनम्र हो या भव्य, को महत्व दिया जाए, सुरक्षित रखा जाए और उसे सहेजा जाए. जबकि G20 की भव्यता केवल दो दिनों तक चली, जिसमें 4,100 करोड़ रुपये से अधिक की लागत आई, खैरलांजी जैसा कोई और नरसंहार न हो यह सुनिश्चित करने की कीमत तुलनात्मक रूप से महत्वहीन है. फिर भी, इसका प्रभाव अरबों लोगों को छूएगा और उनका उत्थान करेगा. इस दृष्टिकोण के केंद्र में हमारे नेताओं की अटूट प्रतिबद्धता है, विशेष रूप से हमारे प्रधानमंत्री का अटूट फोकस.
(लेखक संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध एनजीओ फाउंडेशन फॉर ह्यूमन होराइजन के अध्यक्ष हैं, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में जाति-विरोधी कानून आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है और जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी में एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) रिसर्च स्कॉलर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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