चुनावी बांड उन राजनीतिक दलों के लिए खेल का नाम है जो राजनीतिक सत्ता के लिए आर्थिक रास्ता तलाशते हैं. 2018 में पेश किए गए, चुनावी बांड जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों के लिए एक अनूठी फंडिंग योजना है और जिन्होंने हाल के चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किए हैं. ऐसे दलों को भारतीय स्टेट बैंक द्वारा एक वेरिफाइड केवाईसी खाता दिया जाता है. एक हज़ार रुपये से एक करोड़ रुपये के मूल्य वाले बांड के साथ, ईबी की कोई ऊपरी सीमा नहीं होती जिसे कोई व्यक्ति या कंपनी किसी राजनीतिक दल को फंड देने के लिए खरीद सके.
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड के जरिए से धन इकट्ठा करने की पूरी प्रक्रिया को न केवल खामियों से भरा पाया है, बल्कि यह भी सुझाव दिया है कि प्रक्रिया गंभीर कमियों से ग्रस्त है. शीर्ष अदालत अपनी टिप्पणियों में गलत नहीं है, कई नागरिकों और नागरिक समाज संगठनों ने भी ऐसा ही महसूस किया होगा, लेकिन शायद वे अपनी आशंकाओं को व्यक्त करने के लिए सही मंच नहीं ढूंढ पाए, लेकिन राजनीति में काले धन से छुटकारा पाने की सरकार की मंशा को भी एक प्रशंसनीय कदम के रूप में सराहा जाना चाहिए.
सरकार ने इस प्रक्रिया में दो महत्वपूर्ण सुधारों का सुझाव दिए, जैसे बांड जारी करने वाले प्राधिकारी के रूप में भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के स्थान पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को रखना और गोपनीयता के उल्लंघन को आपराधिक अपराध मानकर दाता की गोपनीयता सुनिश्चित करना. इससे आरबीआई के काम की प्रकृति में बदलाव अनिवार्य हो जाएगा क्योंकि राजनीतिक दलों को बांड भुनाने के लिए एसबीआई में खाता खोलना ज़रूरी होगा जो आरबीआई के साथ संभव नहीं है.
सरकार की दलीलों से संतुष्ट नहीं होने पर सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई से दानदाताओं की लिस्ट निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के साथ साझा करने को कहा. 12 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन में एसबीआई ने 12 अप्रैल 2019 से 15 फरवरी 2024 के बीच खरीदे और भुनाए गए बांड का विवरण ईसीआई को प्रस्तुत किया. आयोग ने सरकार के ‘अपारदर्शिता’ तर्क को खारिज करते हुए 14 मार्च को डेटा सार्वजनिक कर दिया, जिससे उसके और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति बन गई.
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सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खामियां
न्यायपालिका-विधायिका संघर्ष का दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा यह है कि ऐसा लगता है कि दोनों में से किसी भी संस्था ने ऐसी योजना की ज़रूरत पर ध्यान नहीं दिया है या सभी हितधारकों से परामर्श नहीं किया था. सरकार का इरादा चुनावी प्रक्रिया में काले धन (बेहिसाबी धन) के प्रवाह को खत्म करना और राजनीतिक दलों को दान में पारदर्शिता की सुविधा प्रदान करना था. ईबी मार्ग निगमों और व्यक्तियों को उनकी राजनीतिक संबद्धता का खुलासा किए बिना आधिकारिक माध्यम से किसी भी राजनीतिक दल को धन दान करने की अनुमति देता है. यह और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कराधान नीतियां केंद्र सरकार द्वारा तय की जाती हैं, जहां तक व्यापार और विनिर्माण का संबंध है, निगम राज्य कानूनों के अधीन हैं. उनकी राजनीतिक संबद्धता का खुलासा राज्य सरकार द्वारा उत्पीड़न का कारण बन सकता है.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला निगमों और उच्च निवल मूल्य वाले व्यक्तियों के लिए एक बड़ा कराधान और कर मूल्यांकन मुद्दा भी पैदा कर सकता है जिनके खातों को फिर से खोलना पड़ सकता है. आयकर अधिनियम की धारा 80जीजीबी और 80जीजीसी के तहत, निगमों और व्यक्तियों द्वारा राजनीतिक दलों को ईबी (नकद दान को छोड़कर) सहित सभी योगदान, कर योग्य आय से समतुल्य राशि की कटौती के लिए पात्र हैं. ईबी योजना खरीद, वैधता, समाप्ति तिथि, नकदीकरण और कर योग्य आय के खिलाफ कटौती के दावे के लिए सख्त नियम प्रदान करती है.
शीर्ष अदालत द्वारा चुनावी बांड योजना को रद्द करने से आयकर अधिकारियों द्वारा छूट को अस्वीकार करने और निगमों और व्यक्तियों के लिए दान को कर योग्य आय के रूप में जोड़ने पर एक गंभीर सवाल खड़ा हो गया है. केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) को इस संबंध में स्पष्टीकरण देना चाहिए.
नई संसद को सभी दानदाताओं को छूट देने के लिए संबंधित कानूनों में संशोधन करना पड़ सकता है, भले ही राशि किसी भी पार्टी को दी गई हो. इस बीच, कर अधिकारियों को भ्रष्ट आचरण में लिप्त होने के लिए निगमों और राजनीतिक दलों द्वारा ‘शेल कंपनियों’ के इस्तेमाल की सीमा की भी जांच करनी चाहिए.
दानदाताओं की सूची सार्वजनिक होने से पार्टियां और निगम बचाव के लिए संघर्ष करेंगे, जबकि उन्हें आरोप-प्रत्यारोप का सामना करना पड़ेगा. इसकी संभावना नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी अकेले ही आलोचनाओं का सामना करेगी, क्योंकि कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों को इस योजना से लाभ हुआ है.
चुनाव और राजनीतिक शक्ति धन और बाहुबल दोनों के मामले में अल्प साधन वाले लोगों की पहुंच से बहुत दूर हो गए हैं. कोई भी सामान्य नागरिक तब तक चुनावी प्रक्रिया में भाग नहीं ले सकता जब तक कि उसे धन से भरपूर किसी राजनीतिक दल का समर्थन या किसी समृद्ध निगम का समर्थन प्राप्त न हो. कहने की ज़रूरत नहीं है, इससे राजनीतिक और नीतिगत मामलों में ऐसे व्यक्ति की स्वतंत्रता से अत्यधिक समझौता होगा. उम्मीद है, अगली संसद संकीर्ण राजनीतिक विचारों से ऊपर उठेगी और राजनीतिक फंडिंग से संबंधित सभी गंदगी को साफ़ करने का रास्ता खोजेगी..
(शेषाद्री चारी ‘ऑर्गेनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. उनका एक्स हैंडल @seshadrihari है. व्यक्त विचार निजी है)
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
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