scorecardresearch
Sunday, 16 November, 2025
होममत-विमतकश्मीर के नए दौर के जिहादी अब सिर्फ सेना नहीं, बल्कि भारत के दिल पर हमला करना चाहते हैं

कश्मीर के नए दौर के जिहादी अब सिर्फ सेना नहीं, बल्कि भारत के दिल पर हमला करना चाहते हैं

2019 के बाद कश्मीर में असली लोकतांत्रिक संस्कृति बनाने में कोई प्रगति न होने से जिहादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है.

Text Size:

आग उसकी देह को ढक चुकी थी, जब कफील अहमद हाइड्रोजन पेरॉक्साइड से भरे सिलिंडरों की ओर बढ़ा, जो उसकी जीप चेरोकी की डिक्की में रखे थे. शायद उसे उम्मीद थी कि यह अंतिम भयावह बलिदान वहां काम करेगा, जहां विज्ञान और उसकी दुआएं नाकाम रही थीं. कम्प्यूटेशनल फ्लूड डायनेमिक्स में अत्यधिक सम्मानित पीएचडी कफील ने मोबाइल फोन से जुड़े ऐसे डेटोनेटर बनाए थे, जिनमें बल्बों के चारों ओर माचिस की तीलियां लगाई गई थीं, लेकिन ये डेटोनेटर हाइड्रोजन पेरॉक्साइड और ईंधन के मिश्रण को उड़ाने लायक ऊर्जा पैदा नहीं कर पाए. कफील MI5 से पहले अपना कार-बम ग्लासगो एयरपोर्ट ले आया था—पर किस्मत ने आखिरी पल में उसका साथ छोड़ दिया.

सोमवार को दिल्ली में हुए धमाके के बाद—जो 2006 मुंबई ट्रेन बम धमाकों के बाद भारत में सबसे बड़ा विस्फोट है और जिसमें कश्मीर के कम से कम चार डॉक्टरों व लखनऊ के एक डॉक्टर की भूमिका बताई जा रही है—लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि इतने पढ़े-लिखे और पेशेवर रूप से सफल लोग सामूहिक हत्याओं में क्यों शामिल हो रहे हैं.

लेकिन यह सवाल ही गलत है: शिक्षा किसी को कट्टरपंथ से सुरक्षित नहीं बनाती. अल-कायदा के सह-संस्थापक अयमान अल-जवाहिरी से लेकर जलीस अंसारी तक—जिसने बाबरी मस्जिद का बदला लेने के लिए 1993 मुंबई बम धमाके किए—कई डॉक्टर वैश्विक जिहाद की कहानी में शामिल रहे हैं. ग्लासगो हमले में कफ़ील का साथी बिलाल अब्दुल्ला भी डॉक्टर था.

इंजीनियर—सबसे कुख्यात उदाहरण, ओसामा बिन लादेन—जिहादी संगठनों में अत्यधिक संख्या में पाए जाता है, जैसा कि विद्वान डिएगो गैम्बेटा और स्टेफन हर्टोग ने दिखाया है. सी. क्रिस्टीन फेयर के मुताबिक, ज्यादातर मामलों में आतंकवादी “अपने-अपने समुदायों की औसत शिक्षा से बेहतर पढ़े-लिखे होते हैं.”

दिल्ली धमाके से मिलने वाला असली सबक अनदेखा कर दिया गया है. कश्मीर में तीन दशकों से चल रहे जिहाद के दौरान, भारत के मुख्य भूभाग पर बड़े हमलों की कोशिशें आश्चर्यजनक रूप से कम हुई हैं: 2001 का संसद हमला, 2008 के मुंबई हमले और 2016 में पठानकोट एयरबेस पर हमला.

इन सभी हमलों में पाकिस्तान से आए विदेशी जिहादी शामिल थे, जबकि कश्मीरी मुसलमानों की भूमिका मामूली थी या थी ही नहीं. सबसे घातक हमले—जैसे 1993 मुंबई बम धमाके और मुंबई की 7/7 लोकल ट्रेन बमबारी—कश्मीर के बाहर के भारतीय जिहादियों ने किए थे.

असल जवाब कश्मीर में चल रही एक खतरनाक प्रक्रिया में छिपा है. एक नई पीढ़ी के जिहादी उभर रहे हैं, जो मानते हैं कि कश्मीर की आज़ादी की कुंजी भारत के दिल को चोट पहुंचाने में है—न कि श्रीनगर की गलियों या पीर पंजाल के जंगलों में भारतीय सेना से लड़ने में.

भारत पर युद्ध

पच्चीस साल पहले, इस्लामाबाद में इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) मुख्यालय से कुछ ही सौ मीटर दूर लगे एक मंच पर खड़े होकर, लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफिज मोहम्मद सईद ने वादा किया था कि वह “लाल किले पर इस्लाम का झंडा फहराएंगे.” यह बयान एक कड़वी हकीकत की तरफ इशारा करता था: कारगिल युद्ध के बाद भले ही जिहादी समूहों ने हिंसा को रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ा दिया था, लेकिन भारतीय सुरक्षा बलों के साथ उनकी लगातार लड़ाई कहीं पहुंच नहीं रही थी. कश्मीर में सफल होने के लिए, जिहादी कमांडरों का तर्क था कि भारत के दूसरे शहरों और उद्योगों पर भी हमला करना होगा.

कई सालों तक ISI के कमांडर भी ऐसी ही सोच पर चर्चा कर चुके थे. 1992 में, खालिस्तान आतंकियों को कश्मीर के समूहों की लॉजिस्टिक समर्थन से जोड़ने की कोशिश की गई थी, लेकिन वह नाकाम रही.

जम्मू और कश्मीर इस्लामिक फ्रंट, जिसे खासतौर पर कश्मीर के बाहर हमले करने के लिए बनाया गया था, उसने 1995 में 1993 के बम धमाकों के आरोपी और संगठित अपराध से जुड़े अब्दुल रज्जाक ‘टाइगर’ मेमन से मुलाकात की थी और हिज्ब-उल-मुजाहिदीन के कमांडर अली मोहम्मद डार ने भी अपनी निजी डायरी में यही योजना लिखी थी, जो 1996 में उनके मारे जाने के बाद बरामद हुई.

1996 से लश्कर के कमांडरों ने हैदराबाद जैसे शहरों में कई ऑपरेटिव भेजे और छोटे-छोटे धमाके करवाने में कामयाब भी हुए, लेकिन यह रणनीति जोखिम भरी साबित हुई, क्योंकि पाकिस्तानी नागरिकों की गिरफ्तारी ने पश्चिमी देशों में पाकिस्तान को शर्मिंदगी में डाल दिया.

फिर, 2001 में, स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) के कुछ पूर्व कार्यकर्ताओं ने भटकल, कर्नाटक में अल-इसबाह नाम का एक स्टडी ग्रुप बनाया—जिसका मतलब है “सच्चाई की तलाश में एक समूह.” क्लेरिक मुहम्मद सीट के नेतृत्व में इस समूह ने लश्कर-प्रशिक्षित जिहादियों सादिक इसरार शेख और आतिफ अमीन से जुड़े नेटवर्क के साथ खुद को जोड़ा. आगे चलकर यह नेटवर्क इंडियन मुजाहिदीन में बदल गया—जो भारत में अब तक का सबसे घातक आतंकी नेटवर्क साबित हुआ.

हालांकि, इंडियन मुजाहिदीन को भारतीय जांच एजेंसियों ने तोड़ दिया, लेकिन अफगानिस्तान में एक नया अल-कायदा समूह उभर आया, जिसका नेतृत्व देवबंदी शिक्षा प्राप्त भारतीय जिहादी सना-उल-हक कर रहा था. केरल और कर्नाटक के कई भारतीय जिहादी भी अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (ISIS) के यूनिट में शामिल हुए.

कश्मीर में जिहादियों की नई पीढ़ी ने इंडियन मुजाहिदीन की कहानी से सबक लिया. 2008 से राज्य में भारत के खिलाफ बड़े जन-आंदोलन हुए, जो आठ साल बाद खूनी विद्रोह में बदल गए. 2016 में, व्यावहारिक रूप से, भारतीय राज्य को दक्षिण कश्मीर से बाहर कर दिया गया था. लेकिन 2019 में, नई दिल्ली ने फिर नियंत्रण स्थापित किया और इस्लामिस्ट नेटवर्क और जिहादी भर्ती को कुचल दिया.

इन घटनाओं के बाद, जिहादी जाकिर भट — जो चंडीगढ़ का एक कॉलेज ड्रॉपआउट था, उसने कश्मीर में एक ऐसा अल-कायदा से जुड़ा संगठन बनाने की कोशिश की, जिसका ISI या पुराने जिहादी समूहों से कोई संबंध न हो. भट को लगता था कि ऐसा समूह भारत पर खुलकर हमले कर सकेगा, क्योंकि ISI पर भारत के साथ बड़े संकट को रोकने का दबाव हमेशा बना रहता है.

जिहाद पर बहस

इस साल की शुरुआत में जब श्रीनगर के नौगाम इलाके में जैश-ए-मोहम्मद के पोस्टर दिखाई देने लगे—जो एक सस्ते इंकजेट प्रिंटर से छपे थे और जिन पर संगठन का लोगो भी नहीं था—तो किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, लेकिन जल्द ही पुलिस जांचकर्ताओं ने इन पोस्टरों को इरफान अहमद से जोड़ दिया, जो देवबंद के ऐतिहासिक मदरसे में कुछ समय पढ़ चुका एक मौलवी था. श्रीनगर के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज में पैरामेडिक के रूप में काम करने वाले इरफान ने एक इस्लामिक स्टडी सर्कल बनाया था, जो धार्मिक दक्षिणपंथ (राइट-विंग) की तरफ झुकाव रखने वाले कई डॉक्टरों के बीच लोकप्रिय हो गया. इस समूह की चर्चाओं का मुख्य विषय था—कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए किस तरह का जिहाद चाहिए.

26/11 की जांच करने वाले राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के अधिकारी साजिद शापू ने एक बेहतरीन लेख में लिखा है कि इसके जवाब छह किताबों के सेट में मिलते हैं. इनमें, हैदराबाद में पैदा हुए इस्लामी विद्वान अब्दुल अलीम इस्लाही ने इस बात की खोज की कि भारत में मुसलमान होने का क्या मतलब है—खासकर तब, जब कुछ लोगों को लगता था कि देश हिंदू-राष्ट्रवादी तानाशाही की ओर जा रहा है. अलीम की किताबें अपने विश्वास (धर्म) पर आधारित राजनीतिक भाषा तलाश रहे युवा मुस्लिमों में खूब पढ़ी जाती थीं.

यह बहस 18वीं सदी की धार्मिक चर्चाओं पर आधारित थी. शाह वलीउल्लाह देहलवी, जो 18वीं सदी के एक बड़े इस्लामी विद्वान थे, ने मुगल भारत की सांस्कृतिक मिलावट (सिंक्रेटिज़्म) का विरोध किया था. उनका मानना था कि मुस्लिम शासकों को चाहिए कि वे युवाओं को अरबी संस्कृति में डुबोकर और गैर-मुसलमानों के खिलाफ जिहाद करके सांप्रदायिक सीमाओं को मजबूत करें.

लेकिन यह सोच 1857 में मुगल साम्राज्य के पतन के बाद कमज़ोर हो गई. शाह वलीउल्लाह के बेटे शाह अजीज़ ने कहा कि भारत दर-उल-हरब है—एक ऐसी जगह जहां इस्लाम युद्ध की स्थिति में है. उन्होंने तर्क दिया कि भले ही मुसलमान यहां अपना धर्म मान सकते हैं, लेकिन इस्लामी सत्ता खोने की वजह से वे अधीन स्थिति में हैं.

1920 के दशक से, हज़ारों भारतीय मुसलमान अफगानिस्तान की ओर चल पड़े—इस कदम को हिजरत कहा गया, जो मक्का से मदीना तक पैगंबर मोहम्मद के पलायन से प्रेरित था. कयामुद्दीन अब्द अल-बारी और अब्दुल कलाम आज़ाद जैसे विद्वानों के प्रभाव से शुरू हुए इस आंदोलन का दुखद अंत हुआ. खैबर दर्रे को पार करने वाले इस खतरनाक सफर में कई प्रवासी लूट लिए गए और मारे गए.

ब्रिटिश शासन के खिलाफ खुद को जिहादी कहने वाले कई बड़े विद्रोह भी भड़के—अफगान सीमा के पास से लेकर बिहार तक के इलाकों में.

आज़ाद भारत के बनने के बाद, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना हिफज़ुर रहमान सेहरवी जैसे विद्वानों ने कहा कि देश न तो दर-उल-हरब है, न दर-उल-इस्लाम. उन्होंने भारत को दर-उल-अमन—यानि शांति की भूमि—घोषित किया, जहां मुसलमानों के अधिकार नागरिकता के माध्यम से सुरक्षित हैं. इस सोच की वजह से देवबंद के दारुल उलूम और जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे राजनीतिक समूहों ने भी नए गणराज्य को स्वीकार कर लिया.

लेकिन बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद, अब्दुल अलीम इस्लाही ने इस सहमति से दूरी बना ली: उनके अनुसार भारत दर-उल-कुफ्र, यानी अविश्वासियों की ज़मीन थी. उनका दावा था कि गैर-मुस्लिम भारतीय “असल में इस देश के मुसलमानों को खत्म करने की योजना बना रहे हैं.”

उन्होंने कहा कि “मुसलमानों पर हमले आम बात हैं और उनकी महिलाओं की गरिमा को रोज़ाना ठेस पहुंचती है.” इस्लाही को उनकी इन बातों के लिए जमात-ए-इस्लामी से निकाल दिया गया, लेकिन उन्हें वो युवा जिहादी पसंद करने लगे जो इंडियन मुजाहिदीन की नींव रख रहे थे.

अफगानिस्तान जाने की कोशिशों में नाकाम होने के बाद, इरफान के स्टडी सर्कल के डॉक्टरों ने बम धमाकों की योजना बनाना शुरू कर दी: जब हिजरत असंभव हो गई, तो उनके लिए युद्ध ही एकमात्र रास्ता बचा. उनकी योजनाएं बेहद बड़े पैमाने की थीं—उनके पास जमा किए गए हज़ारों किलो अमोनियम नाइट्रेट से पूरे-पूरे इमारतें तबाह हो सकती थीं.

राजनीतिक संदर्भ

2019 के बाद कश्मीर में एक सच्ची लोकतांत्रिक संस्कृति बनाने की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई है और इसका फायदा वहां के जिहादियों को मिल रहा है. बड़ी संख्या में युवा अब दो तरह की “कैद” में फंसते जा रहे हैं—या तो बेहद कट्टर धार्मिकता में, या नशे में. उन्हें अपनी ज़िंदगी और समाज में कोई असली अधिकार या प्रभाव होने की उम्मीद ही नहीं दिखती.

युवा कश्मीरियों और भारतीय राज्य के बीच सबसे बड़ा और सीधा संपर्क अब भी सेना की चेकपोस्ट ही है. भले ही बड़ी संख्या में युवा भारत के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे हैं—जैसे इन डॉक्टरों के आतंकी सेल के सदस्य—लेकिन देश में चल रही मुस्लिम-विरोधी कट्टरता की हवा उन्हें साम्प्रदायिक “घेट्टो” में धकेल देती है, जहां वह मुख्यधारा से कट जाते हैं.

कश्मीर की पुलिस और खुफिया एजेंसियां इस बात की हकदार हैं कि उन्होंने भारत को उन कई बम धमाकों के खतरनाक नतीजों से बचाया, जिनकी योजना इस सेल ने बनाई थी, लेकिन आगे की चुनौती यह है कि उस राजनीतिक जगह को बंद किया जाए, जिसे जिहादियों के लिए खाली छोड़ दिया गया है.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: भारत की खुफिया एजेंसियां भले आलोचना झेलती हों, लेकिन आतंक से निपटने में वही देश की असली ढाल हैं


 

share & View comments