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गुरूवार, 1 मई, 2025
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कश्मीर की लीपा घाटी सुलग रही है, क्या यह एलओसी पर एक नई जंग की आहट है?

अगर नियंत्रण रेखा को पश्चिम की ओर बढ़ाया गया, तो पाकिस्तान की सेना को शर्मिंदगी झेलनी पड़ सकती है, लेकिन इसका नतीजा यह भी हो सकता है कि कश्मीर में आतंकवाद बढ़ जाए.

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हर साल एक रात के लिए सीमाएं गायब हो जाती थीं, जब पास के गांवों से तीर्थयात्री मोजी गांव के पास त्रेड़ा शरीफ में इकट्ठा होते थे. दरगाह का मुख्य दरवाज़ा पाकिस्तान की ओर खुलता था, तो दूसरा दरवाज़ा नियंत्रण रेखा की तरफ. स्थानीय स्मृति के अनुसार, सैन्य कमांडरों ने इस परंपरा को 1988 तक सहन किया, जब कश्मीर में कभी खत्म न होने वाला अंधेरा छा गया और लीपा घाटी में गोलियों की चमक दिखने लगी. पास की तुतमारी गली की दरगाह पर अब कोई तीर्थयात्री नहीं आता, जिसे भारतीय सैनिक संभालते हैं.

पत्रकार हिलाल अहमद ने 2013 में रिपोर्ट किया था कि नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पार भारतीय सैन्य अस्पताल पर लगा एक साइनबोर्ड भी इतिहास के बदलते रुख का गवाह था. “कैप्टन परवेज़ मुशर्रफ द्वारा उद्घाटन,” अस्पताल के बोर्ड पर लिखा था.

इस हफ्ते, भारतीय और पाकिस्तानी सैनिकों ने लीपा घाटी में एक-दूसरे पर गोलीबारी की है, जो 9 किलोमीटर लंबी ऊंचाई वाली घाटी है और काज़िनाग स्प्रिंग से होकर गुजरती है. यह घाटी तुतमारी गली से लेकर बंगस घाटी के भव्य मैदानों और फिर चौकीबल व श्रीनगर तक जाने वाले पर्वतीय रास्तों के संगम पर स्थित है, और लंबे समय से जिहादी घुसपैठ के प्रयासों का एक अहम पड़ाव रही है.

लीपा एलओसी के उन कई बिंदुओं में से एक है, जहां 1971 के युद्ध में हासिल की गई क्षेत्रीय बढ़तों ने भारत को पाकिस्तानी सैन्य चौकियों पर नुकसान पहुंचाने की इजाज़त दी. पहलगाम नरसंहार के बाद पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए जब भारतीय सैन्य योजनाकार विचार कर रहे हैं, तो लीपा और नीलम घाटी के अन्य हिस्सों में क्षेत्र पर कब्ज़ा करना एक ऐसा विकल्प है, जिसे गंभीरता से सोचा जा रहा है. 2016 की तरह, भारतीय सैनिक नियंत्रण रेखा पार कर कुछ सौ मीटर तक अंदर घुसपैठ करेंगे—लेकिन फिर वहां कब्ज़ा बनाए रखेंगे.

भले ही ऐसी कार्रवाइयों से होने वाली क्षेत्रीय बढ़त कभी-कभी सेंटीमीटर या मीटरों में मापी जा सके, लेकिन कुछ भारतीय सैन्य विशेषज्ञों का तर्क है कि इससे पाकिस्तान सेना को भौतिक, आर्थिक और प्रतिष्ठात्मक क्षति होती है. सीमित पैमाने और तीव्रता वाला एलओसी पर युद्ध उन पारंपरिक लड़ाइयों की तुलना में कम जोखिम रखता है, जो मैदानी इलाकों में लड़ी जाती हैं.

यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार इस रणनीति को अपनाएगी या नहीं—लेकिन त्रेड़ा के तीर्थयात्रियों की तरह, एलओसी पर जीवन में स्थिरता बहुत कम होती है.

सेंटीमीटर का युद्ध

1990 के बाद, जब इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविरों से हजारों जिहादी कश्मीर में वापस लौटने लगे, तो एलओसी पर रणनीतिक झड़पें—जिनमें क्षेत्र पर कब्ज़ा करने की घुसपैठ भी शामिल थीं—सेना की रणनीति का नियमित हिस्सा बन गईं. पाकिस्तानी सेना अक्सर इन समूहों को भारतीय घात से बचाने के लिए कवरिंग फायर देती थी. जवाब में, भारतीय सैनिक पाकिस्तानी चौकियों पर गोलीबारी करते या खासतौर पर आक्रामक घुसपैठ के समर्थन का बदला लेने के लिए छापेमारी भी करते.

हालांकि दोनों सेनाएं इन झड़पों पर अक्सर चुप्पी साधे रहती थीं, लेकिन कारगिल युद्ध के बाद इन झड़पों का अस्तित्व—और उनकी क्रूरता—कभी-कभी अखबारों की सुर्खियों में आ ही जाती थी.

2002 की गर्मियों के आखिर में, जब संसद पर हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत ने पश्चिमी सीमा पर अपनी सेनाओं को तैनात करना शुरू किया, तो पाकिस्तानी सैनिकों ने केल शहर की ओर देखने वाले 3,260 मीटर ऊंचे शिखर पर स्थित लुंडा पोस्ट पर कब्ज़ा कर लिया. यह घुसपैठ तब सामने आई जब इलाके की सुरक्षा में तैनात सिख लाइट इन्फैंट्री की एक बटालियन के तीन जवान घात में मारे गए.

भारतीय वायुसेना के चार मिराज 2000 लड़ाकू विमानों ने ज़मीन पर तोपों की गोलाबारी के समर्थन से उन पाकिस्तानी ठिकानों पर बमबारी की, जिससे घुसपैठियों को बाहर खदेड़ दिया गया और 28 मारे गए. यह कारगिल युद्ध के बाद पहली और 2019 में बालाकोट पर हमले से पहले की आखिरी वायुसेना कार्रवाई थी.

उसी साल बाद में, राजौरी में एलओसी पर कंगरह पोस्ट के आसपास के खाली पड़े इलाकों पर कब्ज़ा करने की कोशिश पाकिस्तानी सैनिकों ने की. इस हमले के लिए पाकिस्तानी दल ने पेट्रोलिंग में आई कमी का फायदा उठाया, जो उस समय हुई जब 10 जम्मू-कश्मीर लाइट इन्फैंट्री ने गोरखा राइफल्स की एक यूनिट की जगह ली.

2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ के बीच बातचीत के दौरान हुए युद्धविराम समझौते ने तनाव को शांत किया. लेकिन यह शांति स्थायी नहीं थी.

2012 के अंत में, उरी के एक गांव की बुजुर्ग महिला रेशमा बी अपने बेटों के पास एलओसी पार कर गईं, जो दोनों तस्करी के मामलों में वांछित थे और पाकिस्तान भाग गए थे. उसकी यह भागदौड़ एलओसी पर बनी तीन-स्तरीय सुरक्षा प्रणाली की कमजोरियों को उजागर करती थी. इसके बाद 19 इन्फैंट्री डिवीजन ने इलाके में नए निगरानी चौकी बनानी शुरू की. भारतीय निर्माण कार्य पर एलओसी पार से फायरिंग हुई, जिसके जवाब में भारत ने सवान पात्रा में स्थित पाकिस्तानी पोस्ट पर हमला किया. इस हमले में एक पाकिस्तानी सैनिक मारा गया.

इसके जवाब में, पाकिस्तानी सेना ने कृष्णा घाटी सेक्टर में भारतीय सैनिक लांस नायक सुधाकर सिंह और लांस नायक हेमराज की हत्या कर दी और कथित तौर पर उनके शवों को क्षत-विक्षत किया.

खून से लिखे संदेश

दोनों सेनाओं के लिए, कभी-कभी चुपचाप की गई हिंसा का इस्तेमाल ख़ून में “रेड लाइन” खींचने के लिए किया गया है—यहां तक कि तब भी जब कोई स्पष्ट सामरिक मुद्दा विवाद में नहीं था. कारगिल युद्ध के बाद, जनवरी 2000 में, नीलम नदी के पार नदला एन्क्लेव में एक पोस्ट पर हुए हमले में सात पाकिस्तानी सैनिकों को पकड़ने का आरोप लगा था. ये सैनिक, जो गोलीबारी में घायल हुए थे, कथित तौर पर बांधकर एलओसी के पार एक खाई में घसीटा गया. पाकिस्तान की शिकायत के अनुसार, जब शव लौटाए गए, तो उन पर बर्बर यातना के निशान थे.

ऐसा दावा किया गया है—हालांकि साबित नहीं हुआ—यह हमला कैप्टन सौरभ कालिया और 4 जाट रेजिमेंट के पांच सिपाहियों—भंवरलाल बागड़िया, अर्जुन राम, भीका राम, मूला राम और नरेश सिंह—की हत्या और यातना का बदला था. ये कारगिल युद्ध में मारे गए पहले भारतीय सैनिक थे. पोस्टमॉर्टम में पता चला था कि इनके शरीर पर सिगरेट से जलाए जाने के निशान थे और उनके जननांगों को विकृत कर दिया गया था.

बाद में, 2008 में, पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि 19 जून 2008 को पुंछ के भट्टाल सेक्टर में भारतीय सैनिकों ने एक पाकिस्तानी सैनिक का सिर काटा और उसे अपने साथ ले गए. यह घटना पुंछ के साल्होत्री गांव के पास क्रांति चौकी पर हुए हमले के दो सप्ताह बाद हुई, जिसमें 2/8 गोरखा रेजिमेंट के जवान जवाश्वर छामे मारे गए थे.

फिर, 30 अगस्त 2011 को पाकिस्तान ने शिकायत की कि नीलम घाटी में केल के शारदा सेक्टर में एक भारतीय हमले में एक जूनियर कमीशंड अधिकारी (JCO) समेत तीन सैनिकों के सिर काटे गए. यह हमला करनाह के पास दो भारतीय सैनिकों की हत्या और सिर काटे जाने की घटना के बाद हुआ था.

प्रणकोट गांव में लश्कर-ए-तैयबा द्वारा 29 हिंदुओं के नरसंहार के बाद, चंब सेक्टर के बांदला गांव में 22 नागरिकों की हत्या कर दी गई. पाकिस्तान सेना ने दावा किया कि घटनास्थल से एक भारतीय घड़ी और एक हस्तलिखित नोट बरामद हुआ, जिसमें लिखा था: “अपने ही खून का स्वाद कैसा लगा?”

एक अनसुलझी विरासत

लीपा की तुलनात्मक रूप से दूरी और सामरिक रूप से अप्रासंगिकता—जैसे कि एलओसी पर कई अन्य स्थानों की—इसे एक गुप्त, क्रूर युद्ध छेड़ने के लिए आदर्श स्थान बनाती है. टंगधार से लेकर लीपा तक का इलाका 1971 के युद्ध में महज़ एक फुटनोट था, जहां दोनों पक्षों ने केवल ऊंचाई वाले इलाकों पर कब्ज़ा करने की कोशिश की. भारत के आधिकारिक युद्ध इतिहास के अनुसार, 104 इन्फैंट्री ब्रिगेड ने लीपा और टंगधार के आसपास की ऊंचाइयों पर कब्ज़ा कर लिया था ताकि तुतमारी गली के रास्ते कश्मीर पर हमले को रोका जा सके. जिन प्रमुख चौकियों पर कब्ज़ा किया गया, उनमें नौकोट शामिल थी, जो घाटी को देखती है.

हालांकि कुछ लाभ मिले, लेकिन शिशलेदी, ज़ियारत और जमुआ में चौकियों पर कब्ज़ा कर भारतीय लाइन को और मज़बूत करने का प्रयास 1971 के युद्धविराम के बाद रोकना पड़ा.

हालांकि वर्षों में इसी युद्धक्षेत्र पर झड़पें होती रही हैं, लेकिन यह वास्तविक संभावना है कि भारतीय सेना अब—या आने वाले महीनों में—1971 का अधूरा काम पूरा करने की कोशिश करे. यह कहना कठिन है कि ये लाभ कितने बड़े या टिकाऊ होंगे. भले ही पाकिस्तान सेना को अपमान सहना पड़े अगर एलओसी पश्चिम की ओर धकेली जाए, भारत की घुसपैठ की समस्या फिर भी बनी रहेगी. और जहां एक ओर लंबे समय तक चलने वाला युद्ध पाकिस्तान पर भारत की तुलना में ज़्यादा आर्थिक और सैन्य बोझ डाल सकता है, वहीं इसके चलते कश्मीर में आतंकवाद का और अधिक उग्र हो जाना भी संभव है.

एलओसी पर युद्धविराम बनाए रखना 2003 से भारत की नीति का एक केंद्रीय स्तंभ रहा है, क्योंकि यह जिहादी घुसपैठ को नियंत्रित करने के लिए अहम है. इसके बावजूद, भारत में अब निराशा इस हद तक पहुंच गई है कि रणनीतिक प्रतिष्ठान के लिए अब जोखिम उठाना पहले से कहीं ज़्यादा आकर्षक लगने लगा है.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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