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Friday, 29 March, 2024
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अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा कश्मीर का डोगरा परिवार

जम्मू कश्मीर का पूर्व डोगरा शाही परिवार यानी पूर्व सदरे-रियासत डॉ कर्ण सिंह का परिवार आज राजनीति में अपना अस्तित्व बचाए रखने की लड़ाई लड़ने को मजबूर है.

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इसे वक्त का फेर कहें या सितारों का खेल, किसी समय जम्मू कश्मीर का जो परिवार सबसे अधिक सशक्त था और जिसके हाथों में लोगों का ‘भाग्य’ लिखने की ताकत थी, आज वही परिवार अपनी खोई पहचान व चमक पाने की कोशिश कर रहा है. जम्मू कश्मीर का पूर्व डोगरा शाही परिवार यानी पूर्व सदरे-रियासत डॉ. कर्ण सिंह का परिवार आज राजनीति में अपना अस्तित्व बचाए रखने की लड़ाई लड़ने को मजबूर है.

डॉ कर्ण सिंह के बड़े बेटे विक्रमादित्य सिंह इस बार चुनाव मैदान में उतरे हैं और कांग्रेस टिकट पर वे उधमपुर-डोडा लोकसभा सीट से केंद्रीय राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं.

88 वर्षीय डॉ. कर्ण सिंह खुद उधमपुर-डोडा सीट का लोकसभा में चार बार प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. उन्होंने 1967,1971 और 1977 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता जबकि कांग्रेस (अर्स) बनने पर उसकी टिकट पर 1980 में यहीं से जीत हासिल की और लोकसभा पहुंचे. डॉ. कर्ण सिंह की उस समय की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1977 में जब पूरे देश में जनता पार्टी की लहर थी उस समय भी कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में डॉ कर्ण सिंह ने शानदार जीत हासिल की थी.

1984 में डॉ कर्ण सिंह को कांग्रेस ने उधमपुर-डोडा लोकसभा सीट से अपना प्रत्याशी नही बनाया. नाराज़ डॉ कर्ण सिंह ने 1984 का चुनाव विपक्ष के साझा उम्मीदवार के रूप में लड़ा. मगर बदलते वक़्त के साथ डोगरा शाही परिवार का असर आम लोगों में कम होने लगा है. राजनीति में भी जो प्रभाव कुछ समय पहले तक था वो धीरे-धीरे कम होता चला गया है.

राजनीतिक पहचान के लिए संघर्षरत डॉ कर्ण सिंह के पुत्र

देश-दुनिया और राज्य में अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए डोगरा राज परिवार ने राजनीति का सहारा तो लिया मगर यह रास्ता इस परिवार के लिए आसान नही रहा है. खुद डॉ कर्ण सिंह जरूर अपवाद रहे हैं और उन्होंने अपनी साख की बदौलत अपनी राजनीतिक पारी सफलतापूर्वक खेली है. मगर, डॉ कर्ण सिंह के दोनों बेटों को आज भी राजनीति में अपने को स्थापित करने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है.

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अपनी राजनीतिक पहचान बनाने के लिए जूझ रहे डॉ कर्ण सिंह के दोनों बेटों को समय-समय पर तमाम तरह के राजनीतिक समझौते भी करने पड़े हैं. लेकिन तमाम तरह के समझौतों के बावजूद जम्मू कश्मीर की राजनीति में डॉ कर्ण सिंह के दोनों ही बेटे अभी तक मजबूत पकड़ नही बना पाएं हैं.

राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए डॉ कर्ण सिंह के दोनों बेटों ने कईं बार विचारधारा को भी तिलांजलि दे दी मगर फिर भी राजनीति में अपने लिए अलग व मजबूत जगह नहीं बना सके. डॉ कर्ण सिंह के दोनों बेटों ने तात्कालिक लाभ के लिए नेशनल कांफ्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) के साथ भी हाथ मिलाने से परहेज नहीं किया जिससे डोगरा राज परिवार की प्रतिष्ठा को जबरदस्त धक्का भी पहुंचा.

आत्मघाती रहा नेशनल कांफ्रेस व पीडीपी में शामिल होना

यह वक्त की विडंबना ही है कि जिस परिवार से जम्मू कश्मीर की पहचान जुड़ी थी उसे आज अपने लिए सार्वजनिक जीवन में थोड़ा सा ऐसा स्थान चाहिए कि जो उनके शाही परिवार होने की ‘वास्तविकता’ को आसानी से ‘उजागर’ कर सके. समय के चक्र ने इस शाही परिवार को जाने-अनजाने लोगों से दूर कर दिया है. राज्य विशेषकर जम्मू क्षेत्र की नई पीढ़ी के साथ तो शाही परिवार की दूरियां इतनी अधिक हैं कि नई पीढ़ी को परिवार को लेकर सामान्य जानकारियां तक नही हैं.

शाही परिवार की वर्तमान स्थिति के लिए खुद परिवार भी कम ज़िम्मेवार नही है. शाही परिवार के गलत फैसलों की वजह से आम लोगों में शाही परिवार की साख लगातार गिरती चली गई है. लोगों से संपर्क न रखने के कारण धीरे-धीरे शाही परिवार लोगों से पूरी तरह से कटता चला गया. खासकर नेशनल कांफ्रेस में शामिल होना व शेख परिवार से हाथ मिलाने के कारण शाही परिवार को लेकर आम लोगों की राय बदल गई और लोगों में शाही परिवार को लेकर आदर कम हुआ. नेशनल कांफ्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) में शामिल होना डॉ कर्ण सिंह के पुत्र-अजातशत्रु सिंह व विक्रमादित्य सिंह के लिए आत्मघाती ही साबित हुआ है.

यहां यह उल्लेखनीय है कि नेशनल कांफ्रेस के संस्थापक शेख अब्दुल्ला और स्वर्गीय महाराजा हरी सिंह के बीच छत्तीस का आकंडा था. शेख अब्दुल्ला ने महाराजा के खिलाफ 1931 में बकायदा कश्मीर में आंदोलन भी चलाया था. बाद में 1947-1948 में जिस ढंग की परिस्थितियां बनी और महाराजा हरि सिंह को राज्य छोड़ना पड़ा उसके लिए भी जम्मू क्षेत्र के लोग व डोगरा समाज शेख महोम्मद अब्दुल्ला को ही ज़िम्मेवार मानते रहे हैं.
ऐसे में स्वर्गीय महाराजा हरि सिंह से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए जम्मू क्षेत्र के लोग बेहद आहत हुए और उन्होंने स्वर्गीय महाराजा के पौत्र अजातशत्रु का नेशनल कांफ्रेस में शामिल होना कभी भी स्वीकार नही किया.

डोगरा समाज में स्वर्गीय महाराजा हरि सिंह और डॉ कर्ण सिंह का आज भी बहुत अधिक सम्मान है. मगर डॉ कर्ण सिंह के दोनों पुत्र – विक्रमादित्य सिंह और अजातशत्रु सिंह लोगों के दिलों में अपने दादा व पिता जैसा स्थान नही बना सके हैं.

लंबे समय तक राजनीति से दूर रहे विक्रमादित्य

डॉ कर्ण सिंह के बड़े बेटे विक्रमादित्य सिंह स्वर्गीय कांग्रेस नेता माधवराव सिंधिया के दामाद और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बहनोई हैं मगर जम्मू कश्मीर में विक्रमादित्य सिंह के इस रिश्ते और पहचान को बहुत कम लोग जानते हैं. कारण साफ है, विक्रमादित्य सिंह ने अपने जीवन का अधिकतर हिस्सा राज्य से बाहर ही बिताया और राजनीति से दूर ही रहे. वर्षों बाद 2015 में ही विक्रमादित्य सिंह वापिस राज्य में लौटे. लंबे समय तक राज्य में कभी भी, कहीं भी सार्वजनिक जीवन में विक्रमादित्य दिखाई नही दिए, जम्मू कश्मीर में बहुत कम लोग उन्हें व उनके बारे में जानते हैं.

विक्रमादित्य सिंह की शादी ग्वालियर राजघराने में हुई है और 1987 में उनके शादी समारोह और जम्मू में उन दिनों नवदंपत्ति के लिए रखे गए भव्य स्वागत समारोह की कुछ यादों को छोड़ कर स्थानीय लोगों को विक्रमादित्य सिंह के बारे में बहुत अधिक जानकारी नही है.

1987 में विक्रमादित्य सिंह की शादी समारोह को कैमरे में कैद कर चुके जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ फोटो पत्रकार राजू केरणी कहते हैं कि ग्वालियर से जम्मू पहुंचने पर विक्रमादित्य और उनकी पत्नी चित्रागंधा का भव्य स्वागत हुआ था. पूरा नगर नवदंपत्ति को देखने व आशीर्वाद देने उमड़ पड़ा था.

राजू केरणी पुरानी यादों के ताज़ा कर बताते हैं कि राजमहल तक जाने वाली तमाम सड़कों के दोनों किनारों पर खड़े हज़ारों लोगों ने विक्रमादित्य और उनकी पत्नी चित्रागंधा को देखने के लिए लंबा इंतज़ार किया था. मगर सार्वजनिक रूप से दिसंबर 1987 में शादी समारोह के बाद विक्रमादित्य सिंह जम्मू में बहुत कम नज़र आए.

विक्रमादित्य अचानक आए राजनीति में

विक्रमादित्य ने 2014 में अचानक राजनीति में कदम रख कर सबको चौंका दिया था. उन्होंने आते ही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) का दामन थामा और पार्टी द्वारा थोड़े दिनों में ही राज्य विधान परिषद के सदस्य बना दिए गए.

विक्रमादित्य का अचानक राजनीति में आना और एक कश्मीर केंद्रित पार्टी – पीडीपी का दामन थामना आम लोगों को समझ नही आया. कईं लोगों को उनके पीडीपी में शामिल होने से भी एतराज़ रहा था. कुछ दिन पीडीपी में रहने के बाद आखिर 23 अक्तूबर 2017 को विक्रमादित्य सिंह पीडीपी से अलग हो गए.
लगभग एक साल की उधेड़बुन के बाद 11 अक्तूबर 2018 को विक्रमादित्य सिंह अपने पिता की राह चलते हुए कांग्रेस में शामिल हो गए.

अजातशत्रु भी नहीं रहे सफल

राजनीति में डॉ कर्ण सिंह के छोटे पुत्र अजातशत्रु सिंह भी बहुत अधिक कामयाब नही रहे हैं और राजनीति में उनका सफर डगमगाता रहा है. अजातशत्रु सिंह ने 1995 में कांग्रेस में शामिल होकर राजनीति में कदम रखा था. लेकिन कुछ ही दिनों बाद अजातशत्रु सिंह ने पार्टी छोड़ दी और नेशनल कांफ्रेस में शामिल हो गए थे. बीच में फिर कुछ दिनों के वास्ते कांग्रेस में लौटे मगर दोबारा नेशनल कांफ्रेस में चले गए.

आने और जाने की इस प्रक्रिया में अजातशत्रु सिंह ने 1996 का विधानसभा चुनाव नेशनल कांफ्रेस की टिकट पर नगरोटा विधानसभा क्षेत्र से लड़ा और जीते. बाद में डॉ फारूक अब्दुल्ला की सरकार में मंत्री भी बने. मगर 2002 और 2008 में अजातशत्रु सिंह विधानसभा चुनाव हार गए जबकि 2014 में उन्हें नेशनल कांफ्रेस ने टिकट नही दी. टिकट न मिलने पर अजातशत्रु ने आखिरकार नेशनल कांफ्रेस छोड़ दिया और भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए.

आजकल अजातशत्रु सिंह भारतीय जनता पार्टी में ही हैं और जम्मू कश्मीर विधान परिषद के सदस्य हैं. मगर सच्चाई यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी में वे बहुत अधिक सक्रिय नही हैं.

(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं. लंबे समय तक जनसत्ता से जुड़े रहे अब स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं )

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