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Wednesday, 20 November, 2024
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कर्नाटक के सामने एक समस्या है: BJP की विभाजनकारी राजनीति बेंगलुरु की यूनिकॉर्न पार्टी को बर्बाद क्यों कर सकती है

भाजपा की विभाजनकारी राजनीति कर्नाटक की सामाजिक समरसता, सबको साथ लेकर चलने वाली संस्कृति और देश की आर्थिक वृद्धि के लिए जरूरी उद्यमशीलता के विकास के लिए एक खतरा है.

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कर्नाटक की राजधानी और भारत में स्टार्ट-अप तथा टेक उद्यमों का इंजन माना जाने वाले बेंगलुरु शहर को अच्छे मौसम का भी वरदान मिला हुआ है. अब तक तो यह भारत का सर्वोत्तम मेट्रो सिटी बना हुआ है ही. यह सब इस शहर को शानदार तो बनाता ही है, लेकिन सिर्फ यही नहीं है जो इसे महत्वाकांक्षी, सुशिक्षित और उद्यमी युवाओं के लिए आकर्षक बनाता है.

अच्छे मौसम के अलावा बहुत कुछ है यहां- महान शिक्षण संस्थान जो इन उद्यमों, नये रोजगारों, उभरते हाउसिंग और अंततः सुधरते इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए प्रतिभाशाली लोग उपलब्ध कराते हैं. लेकिन इसकी सबसे बड़ी विशेषता है इसकी खुशहाल, जवां, और सबको साथ लेकर चलने वाली, बेफिक्र सामाजिक संस्कृति. उद्यमशीलता तथा रोजगार के अवसरों और ग्लेमर के लिए पहले मुंबई को अगर भारत के सपनों का शहर माना जाता था तो आज बेंगलुरु को माना जाता है.

करीब दो दशकों से, जब से मैं अक्सर बेंगलुरु की यात्रा कर रहा हूं, मुझे यही लगता रहा है कि जब भी आप भारत के किसी हिस्से में रहते हुए थोड़े पस्त या परेशान महसूस कर रहे हों तो बेंगलुरु चले आइए, आप बेहतर महसूस करने लगेंगे.

वर्षों पहले, जब उत्तर भारत रिकॉर्ड गर्मी और मॉनसून के देर से आगमन के कारण बुरी तरह तप रहा था, तब बेंगलुरु की ऐसी ही एक शुरू की यात्रा में रात गए वहां हल्का-सा तूफान उठा था और मुझे उस सप्ताह अपने इस कॉलम के लिए एक विषय मिल गया था— ‘बेंगलुरु : फील गुड वाला शहर’. उसमें मैंने यह तर्क पेश किया था कि अमेरिका वालों ने अपने शहरों को जैसे नाम दिया है, मसलन न्यू यॉर्क को ‘बिग एपल’, शिकागो को ‘विंडी सिटी’, ‘वर्जीनिया इज़ फॉर लवर्स’ आदि उसी तरह अगर हम अपने शहरों को नाम दें तो बेंगलुरु को ‘फील गुड सिटी’ नाम दिया जा सकता है.

इसलिए, कर्नाटक और उसकी राजधानी में जो विभाजनकारी कोशिश हो रही है वह उसकी हवा को खराब करने वाली बात है. एक समय, भाषा के नाम पर बांटने की राजनीति और उग्र मजदूर आंदोलन ने बॉम्बे के जादू को लगभग नष्ट कर दिया था. अब बेंगलुरु में ऐसा हो, यह भारत कतई नहीं चाहेगा. देश की अग्रणी बायोटेक उद्यमी किरण मजूमदार शॉ को यही चिंता सता रही है और इसीलिए उन्होंने ट्वीट करके मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई से अपील की कि वे हस्तक्षेप करें और समझदारी बहाल करें. इससे पहले सांप्रदायिक विभाजन के कई कदमों के बाद हाल में जब कि मुस्लिम व्यापारियों को हिंदू मंदिरों और हिंदू धार्मिक आयोजनों में दुकान आदि लगाने पर रोक लगाने का कदम उठाया गया तब जाकर यह अपील की गई.

उपरोक्त कदम से मानो प्रेरणा लेकर ही हलाल मीट आदि के बहिष्कार की मांग उठाई जाने लगी. कर्नाटक का आम मुसलमान इसे एक तरह का आर्थिक भेदभाव ही मानेगा. व्यापक अर्थ में इसे शुद्ध राजनीतिक मकसद से सामाजिक समरसता को जबरदस्त खतरा पहुंचनी की कोशिश के रूप में ही देखा जाएगा और इस तरह से देखा भी जाना चाहिए. राज्य में करीब एक साल के बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.

भाजपा ने यहां दलबदल करवा के कांग्रेस-जद(एस) से सत्ता छीन ली थी. उसने अपने मुख्यमंत्रियों को बदला लेकिन अभी भी वह आंतरिक असंतोष का सामना कर रही है. वर्तमान मुख्यमंत्री को कमजोर, ‘सौदे का मुख्यमंत्री’ माना जाता है और उनका कामकाज भी लस्तपस्त रहा है. कर्नाटक उन राज्यों में नहीं है जहां भाजपा विपक्ष और खासकर कांग्रेस को हल्के से ले सके. इसलिए ध्रुवीकरण के चालू फॉर्मूले की जरूरत पड़ी. सोचा गया कि गुजरात और उत्तर प्रदेश में जो फार्मूला काम कर गया वह कर्नाटक में भी काम करना चाहिए.


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शायद काम कर भी जाए. राजनीति में तो जो चुनाव जितवा दे वही सबसे उम्दा फार्मूला है, भले ही समाज और नैतिकता के लिहाज से उसका जो भी नतीजा निकले. करीब एक दशक से भाजपा की रणनीति तीव्र हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पर केंद्रित रही है ताकि मुस्लिम वोट ‘सेकुलर’ पार्टियों के लिए बेमानी हो जाएं. अधिकतर राज्यों में वह 50 फीसदी हिंदू वोट हासिल करके चुनाव जीत सकती है, चाहे मुस्लिम वोट जिसके पक्ष में पड़े.

वैसे, भाजपा को यह भी पता है कि यह फार्मूला 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पूरी तरह कारगर नहीं साबित हुआ था. तब उसका पलड़ा भारी भी था क्योंकि उसका मुक़ाबला ऐसे शासक दल से था जो खेमे बदलने के लिए बदनाम रहा है, और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां 21 चुनावी रैलियां की थीं. इसके बावजूद भाजपा पूरे आंकड़े जुटाने में चूक गई थी. बेशक, एक साल बाद उसने दलबदल करवा के आंकड़े जुटा लिये थे. अब वह एक बेहद कमजोर मुख्यमंत्री की सरकार का बोझ ढो रही है. उधर उसके पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा खामोश असंतुष्ट हैं और लिंगायत वोटों के ज्यादा मजबूत दावेदार हैं, जिन वोटों के बिना भाजपा एक सिफर ही है. येदियुरप्पा की तरह बोम्मई भी लिंगायत हैं लेकिन उनके समर्थकों की संख्या येदियुरप्पा के समर्थकों की संख्या से काफी कम ही है.

जो भी हो, भाजपा हर चुनाव को जीवन-मरण का संघर्ष ही मानती है, चाहे वह नगरपालिका का चुनाव ही क्यों न हो. यह हम तेलंगाना में हाल के स्थानीय निकायों के चुनाव में देख चुके हैं. कर्नाटक दक्षिण में भाजपा का एकमात्र गढ़ है, और अगर वह मजबूत हो, तो अधिक विभाजनकारी राजनीति 2023 में बेड़ा पार लगा दे तो बुरा क्या है.

लेकिन यह राजनीति सामाजिक समरसता को भंग कर रही है, और यह अपने दिमाग में अरबों डॉलर के सूत्रों के साथ बेंगलुरु में आकर जमे प्रतिभाशाली युवाओं को असंतुलित कर सकती है. मैं यहां भाजपा के उभरते सितारे, बेंगलुरु (दक्षिण) से लोकसभा सांसद तेजस्वी का ही वह बयान उदधृत कर सकता हूं जिन्होंने स्टार्ट-अप्स के पिछले नेशनल डे पर कहा था कि उनका शहर देश की 40 फीसदी ‘यूनिकॉर्न’ और ‘सूनीकॉर्न’ कंपनियों का घर है. ventureintelligence.com का ताजा डाटा बताता है कि भारत की 95 में से 37 ‘यूनिकॉर्न’ कंपनियां बेंगलुरु में स्थित हैं. मुंबई में इनकी संख्या 17, गुरुग्राम में 13, दिल्ली और नोएडा में 4-4 है.

बेंगलुरु में आकर आपको आशावाद की महक और चमक महसूस होगी. इसके व्यापारिक भवनों से लेकर आइटी पार्कों और रेस्तराओं, बारों, पबों और हवाई अड्डे के वेटिंग एरिया तक में आपको लैपटॉप के पर्दे पर आंखे गड़ाए युवा कोई प्रोडक्ट डिजाइन करते या कोई करार करते, नये सपने बुनते नजर आएंगे. कोई युवा ‘रील’ देखते हुए समय बरबाद करता नहीं नजर आएगा, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस शुक्रवार को बोर्ड परीक्षा की तैयारी कर रहे बच्चों से बातचीत में नसीहत दी.

ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा को खराब करने वाली बात कहना क्या अतिशयोक्ति है? हाल की घटनाओं पर ध्यान दीजिए. हिजाब को लेकर विवाद उठाया गया; अब मंदिरों के आसपास दुकान लगाने में भेदभावपूर्ण रोक लगाई गई. हालांकि कहीं भी व्यापार करने की स्वतंत्रता मौलिक अधिकार है; मवेशियों को लेकर नये कानून बनाए गए; हलाल मीट का बहिष्कार किया गया. ये सब एक ही चिंताजनक कदमों के उदाहरण हैं. हाल में इस राज्य में ‘लव जिहाद’ के मामले भी सामने आए हैं. ‘दिप्रिंट’ की संवाददाता अनुषा रवि ने इस खबर की पड़ताल की और पता लगाया कि बेलगावी के पास रेल पटरी पर जिस मुस्लिम युवक का शव पाया गया था उसकी हत्या की गई थी क्योंकि वह किसी हिंदू लड़की से प्यार करता था. लड़की के परिवारवालों को बाद में गिरफ्तार किया गया.

क्या कोई यह कह सकता है कि उद्यमशीलता के विकास और निवेशों को फलने-फूलने के लिए सामाजिक एकता का माहौल जरूरी नहीं है? हम विभिन्न देशों के हश्र पर नजर डाल सकते हैं. आज पाकिस्तान में या म्यांमार में कौन निवेश करने या उपक्रम आदि शुरू करने जा रहा है? श्रीलंका में राजपक्ष के नेतृत्व में सिंहलियों के वर्चस्ववाद के उभार के बाद उसकी कितनी बुरी हालत है? यूएई में इस्लामी बादशाहत है, फिर भी वह और खासकर दुबई इस उपमहादेश के उद्यमियों के लिए चुंबक जैसा क्यों बना हुआ है?

यह आज का रचनाशील, युवा उद्यमी ही है जो अरबों के स्टार्ट-अप बनाता है और देश की आर्थिक वृद्धि को गति देता है, खासकर भारत जैसे देश की जिसके पास प्राकृतिक संसाधनों की कमी है. सामाजिक एकता, समरसता, सबको साथ लेकर चलने वाली संस्कृति ही उस सकारात्मक माहौल के लिए जरूरी है. अगर कर्नाटक की राजनीति बेंगलुरु से यह माहौल छीन रही है तो निश्चित ही यह माहौल खराब करने वाली हवा है. इससे भी दुखद बात यह है कि यह सब उस मुख्यमंत्री के होते हुए हो रहा है जिसे अपना राजनीतिक कद अपने दिवंगत पिता और पूर्व मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई से विरासत में मिला है, जो एम.एन. राय के शिष्य थे और धुर मानवतावादी थे. वे लोग किसी ‘रिलिजन’ में विश्वास नहीं करते थे और मानवता को सभी ईश्वरों से ऊपर मानते थे.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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