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Monday, 4 November, 2024
होममत-विमतउपचुनाव में मिली हार के दर्द को छिपाने में भले ही कामयाब रही हो, पर अंदर से कांप उठी है भाजपा

उपचुनाव में मिली हार के दर्द को छिपाने में भले ही कामयाब रही हो, पर अंदर से कांप उठी है भाजपा

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मुस्लिम-विरोधी हिन्दू एकत्रीकरण की सम्भावना के बावजूद विपक्ष को जीत का इतना भरोसा था कि इसने एक मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया।

ब भाजपा फूलपुर और गोरखपुर में लोकसभा के उपचुनाव हारी थी तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसके लिए अति-आत्मविश्वास को दोष दिया था। पार्टी को जीत का इतना भरोसा था कि इसने प्रचार करने और मतदाताओं को साथ लाने का भरसक प्रयास नहीं किया। सपा-बसपा गठजोड़ अंतिम समय में लिया गया फैसला था अतः भाजपा के पास इसके विरुद्ध रणनीति तैयार करने का समय नहीं था।

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि उपचुनाव स्थानीय कारकों पर लड़े जाते हैं क्योंकि लोगों को पता होता है कि वे कोई सरकार नहीं चुन रहे हैं। एक उपचुनाव मोदी से ताल्लुकात कम रखता है। उन्होंने कहा था कि 2019 में यही मतदाता अधिक राष्ट्रीय रूप से सोचे रहे होंगे। वे स्वयं से पूछेंगे कि क्या वे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में एक बार फिर से देखना चाहते हैं या नहीं।

कैराना लोकसभा के उपचुनाव में बीजेपी की हार ने इन दोनों विचारों को झुठला दिया है।

इस बार भाजपा को पता था कि यह अति-आत्मविश्वास नहीं दिखा सकती क्योंकि इसे ज्ञात था कि वहां इसके खिलाफ विपक्षी दलों का एक बड़ा गठबंधन था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैराना में मतदान होने से एक दिन पहले पास ही के बागपत में एक रैली को संबोधित किया था। अपने भाषण में उन्होंने कैराना के गन्ना किसानों की चिंताओं का भी जिक्र किया।

भाजपा ने 2014 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना जैसी सीटों पर बहुत अधिक अंतर के साथ सूपड़ा साफ़ किया था। लोगों के दिमाग में 2013 के जाट-मुस्लिम सांप्रदायिक हिंसा की यादें ताजा थीं। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पूरा हो गया था।

कैराना के हिन्दू मतदाताओं को याद दिलाने के लिए कि क्यों उन्हें मुस्लिम मतदाताओं की तरह वोट नहीं करना चाहिए, भाजपा ने पास के ही अलीगढ़ में एक विवाद तैयार कर दिया था। कैराना के गन्ना किसानों की समस्याओं के लिए भाजपा का जवाब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मोहम्मद अली जिन्ना नामक एक मृत व्यक्ति का एक चित्र था। राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के जयंत चौधरी ने कहा कि यह जिन्ना बनाम गन्ना का चुनाव था।

उत्तर प्रदेश भाजपा के रणनीतिकार और अमित शाह के करीबी सुनील बंसल कैराना में कई दिनों से डेरा डाले हुए थे। उन्होंने वह सब कुछ किया जिसके लिए उनके बॉस अमित शाह को आधुनिक दिनों का चाणक्य कहा जाता है। आरएसएस काम पर लगा हुआ था, पन्ना प्रमुख सक्रिय रूप से काम पर थे, व्हाट्सऐप ग्रुप घंटियाँ बजा रहे थे।

संख्याएं बोलती हैं

भाजपा की कैराना में हार कितनी विस्मयकारी है यह समझने के लिए यहाँ कुछ संख्याएं हैं। 2014 में भाजपा ने इस सीट से बसपा, सपा और आरएलडी (कांग्रेस आरएलडी के साथ गठबंधन में थी) के समग्र वोटों की तुलना में अधिक वोट प्राप्त किए थे। यदि 2014 वाली मोदी लहर अब भी होती तो निश्चित रूप से विपक्ष यह सीट हार गया होता। यदि हिंदुत्व ध्रुवीकरण ने काम किया होता तो आरएलडी के पास सपा और बसपा के समर्थन के बावजूद जीत की संभावना नहीं होती।

2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने कैराना लोकसभा क्षेत्र में 5 विधानसभा सीटों में से 4 सीटें जीतीं थीं। लेकिन संख्याएं पहले ही कम चुकी थीं। यदि हम इन पांच विधानसभा क्षेत्रों में विपक्ष को 2017 में मिले वोटों को जोड़ते हैं तो यह संख्या दो लाख से ऊपर जाएगी। लेकिन तब विपक्ष विभक्त था।

अब विपक्ष एक साथ आ चुका है। मुस्लिम-विरोधी हिन्दू एकत्रीकरण की सम्भावना के बावजूद इसे जीत का इतना भरोसा था कि इसने एक मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया।

इस सीट पर एक तिहाई मतदाता मुसलमान हैं। बेगम हसन द्वारा इस सीट को जीतने के साथ ही वह वर्तमान लोकसभा में उत्तर प्रदेश से एकमात्र मुस्लिम सांसद बन गयी हैं।

कैराना उपचुनाव इसलिए हुआ क्योंकि मौजूदा सांसद हुकुम सिंह का निधन हो गया था। जब किसी मौजूदा विधायक की मृत्यु हो जाती है और उसका कोई परिजन उस सीट से चुनाव लड़ता है तो आमतौर पर परिजन की ही जीत होती है क्योंकि वहां पर मृत्यु के कारण उत्पन्न हुई सहानुभूति का कारक अस्तित्व में होता है। इसके बावजूद हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह भाजपा के लिए यह सीट नहीं जीत सकीं।

सब कुछ अप्रभावी

उपचुनाव में पराजयों को भाजपा कम महत्व कैसे दे सकती है जबकि इसका निर्दिष्ट लक्ष्य पंचायत से संसद तक के चुनावों को जीतना है?

हाँ उपचुनावों में आमतौर पर मतदाताओं की उपस्थिति कम होती है लेकिन उपचुनावों में सत्तारूढ़ दल को दुबारा चुने जाने की सम्भावना भी कम होती है।

चाहे जो भी हो, सत्तारूढ़ सरकार से काम कराने के लिए उपचुनाव में लोगों को उसे ही वोट देना चाहिए लेकिन ऐसा न होने पर यह सरकार के कार्य प्रदर्शन के विरुद्ध नाराजगी दर्शाता है।

योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश में पहला उपचुनाव कानपुर देहात में सिकंदरा विधानसभा सीट पर हुआ था। जहाँ भाजपा विधायक की मृत्यु हो गयी थी और भाजपा ने उपचुनाव में यह सीट दुबारा जीत ली थी। तब विपक्ष एकजुट नहीं था।

लेकिन मार्च महीने में जब से विपक्ष एकजुट हुआ है, भाजपा को लगता है कि उपचुनावों को जीतना असंभव है। आज इसने नूरपुर विधान सभा सीट भी खो दी। समाजवादी पार्टी ने यह सीट भाजपा से छीन ली।

भाजपा शायद इसे जाहिर न करने में कामयाब हो सकती है लेकिन यह अवश्य संकट में है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी ने वह लोकसभा सीट खोई है जहाँ ये हिंदुत्व के कारण सत्ता में थी।

हिंदुत्व, मोदी की रैलियां, पन्ना प्रमुख, आरएसएस, अमित शाह की रणनीतियां इत्यादि समेत उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता के विरुद्ध कोई भी व्यक्ति, कारक या कार्य भाजपा के लिए प्रभावी होता हुआ प्रतीत नहीं हो रहा है।

यदि उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता की अभूतपूर्व अनुक्रमणिका का सामना करने के लिए भाजपा के पास कोई रणनीति है तो हम भी देखेंगे कि आखिर यह क्या होगी?

Read in English: The BJP may do a good job of not showing it, but it must be in great panic

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