परदे पर बिल्कुल शुरुआती दृश्य के साथ ही लगभग समूचा सिनेमा हॉल तेज शोर और सीटियों से गूंजने लगे तो उसका अकेला मायने यही है कि वह दृश्य हॉल में मौजूद ज्यादातर लोगों की हसरतों की नुमाइंदगी कर रहा है! दृश्य है कि ‘कबीर सिंह’ एक लड़की से जबरन देह की भूख शांत करने की कोशिश कर रहा है, देह के दम से, फिर चाकू के दम से भी. लेकिन किसी वजह से नाकाम रहता है और फिर अपने पैंट के अगले हिस्से में बर्फ डाल कर अपने भीतर सेक्स की धधकती आग को बुझाता है.
फिल्म ‘असली मर्द की पहचान’ वाले ऐसे तमाम दृश्यों को अपने साथ लिए चलती है और उन दृश्यों को हॉल में मौजूद दर्शकों का वैसा ही भरा-पूरा ‘शोरदार उन्मादी प्यार’ मिलता है! महंगे मल्टीप्लेक्सों में बैठे दर्शकों को चूंकि मजबूरी में सभ्य होने का पर्दा टांगना पड़ता है, इसलिए साधारण सिनेमा हॉलों में मौजूद दर्शकों के बेपर्दा चेहरे ही इस समाज के असली चेहरों की हकीकत बयान कर पाते हैं.
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राष्ट्रवाद के उन्माद का अगला पड़ाव
पिछले कुछ सालों के दौरान परदे पर पाकिस्तान को सबक सिखाने वाली फिल्मों के जरिए देशभक्ति का उन्माद बेचने का सफर यहां आना ही था. दरअसल, कुंठा किसी भी तरह की हो, वह जब दिमाग फोड़ कर निकलना शुरू करती है तो उसका सबसे तकलीफदेह खमियाजा देह और दिमाग के सबसे नाजुक हिस्से और समाज के कमजोर तबकों जैसे औरतों को ही उठाना पड़ता है. हमारा समाज फिलहाल जिस सिमटे हुए ढांचे में गुजारा कर रहा है, उसमें एहसासों की दुनिया में इश्क या मोहब्बत सबसे मुश्किल और नाजुक ख़याल हैं. लेकिन अगर उसमें डूबने वाला अपने हरेक बर्ताव में किसी बेलगाम मालिक या फिर कमतरी के एहसासों में घुले गुलाम की हैसियत का मुजाहिरा करता है, तो उसे न तो कहीं से इश्क या मोहब्बत माना जाना चाहिए और न ही इंसानी जज्बातों का कोई पड़ाव, जहां से किसी बेहतर दुनिया की उम्मीद शुरू होती है.
देह या साफ लफ़्जों में कहें कि सेक्स की आग में जलते कबीर सिंह नाम के शख्स को फिल्म में एक लड़की के मोहब्बत में गिरफ्तार दीवाने की शक्ल में दिखाया गया है. कहानी के मुताबिक डॉक्टरी के सीनियर स्टूडेंट कबीर सिंह को नया दाखिला लेने वाली एक दबी-ढकी, छुई-मुई और थोड़ा खुल के कहें तो पहली नज़र में ही दब्बू दिखने वाली लड़की ‘अपनी बंदी’ नजर आ जाती है. वह चलते हुए क्लास में जाकर पूरे ठसके के साथ सार्वजनिक घोषणा करता है कि वह ‘अपनी बंदी’ है. कोई भी लड़का उस पर नज़र न डाले.
यह उस लड़की से कोई भी बात किए बिना उस पर अपने मालिकाने की मुनादी थी. थोड़े ही दिनों बाद कॉलेज में गुंडागर्दी की हर हरकत करते हुए सबसे ‘बचाने’ और ‘खयाल रखने’ वाले हीरो को दबी-ढकी-बंधी-सी हीरोइन का प्यार मिल जाता है और इसके बाद बॉयज हॉस्टल में दो बार तो तीन बार तो चार बार जैसी सैकड़ों की गिनती के साथ सेक्स करने की गिनती होती है. कालेज में बाकी स्टूडेंट्स के लिए नियम हैं, कायदे हैं, हीरो-हीरोइन के लिए नहीं है.
कौन है ये ‘शेर’ और आया कहां से है?
बहरहाल, कालेज भर में कभी इसको पीट कर तो कभी उसको धमका कर, हर वक्त सामंती धौंस परोस कर भी हीरो बाबू पढ़ाई में सबसे तेज़ है. वक्त शायद हीरो के लिए हर पल ठहरा रहता है. जब हीरो चलता है, तभी वक्त चलता है और हीरो सबसे अव्वल आता रहता है. ज़ाहिर है, हीरोइन तहेदिल से खुश होती है. हर पल यह जानते हुए भी कि उसे जिस शख्स से मोहब्बत हो गई है, वह जितना उसका आशिक है. उससे ज्यादा उसका रखवाला मालिक, जो हर वक्त उस पर अपने कब्जे का एहसास कराता रहता है. हर पल अपने सामंती और मर्दाना बर्ताव के साथ!
फिल्म में ऐसी कोई त्रासद पृष्ठभूमि नहीं है, जिसकी वजह से किसी शख्स के भीतर ऐसा बेलगाम गुस्सा पैदा हो! तब ज़रा कल्पना कीजिएगा कि इस बर्ताव की ताकत समाज के किस तबके और खुल कर कहें तो किन जातियों और वर्गों के ‘शेरों’ की खासियत होती है. और वह कहां से आती है!
भूख- प्रेम की या किसी भी कीमत पर देह को हासिल करने की?
इसी सामंती धौंस के बीच सबकी अक्ल ठिकाने लगाते हुए एक फर्जी हिम्मत के साथ हीरो अपनी हीरोइन के मम्मी-पापा की इजाज़त से अपनी मोहब्बत को शादी में तब्दील करना चाहता है और एक ‘संस्थान’ की शक्ल में मम्मी-पापा अपना धर्म निबाहते हैं. हीरोइन की शादी कहीं और तय हो जाती है, उसके बाद हीरो कभी दारू तो कभी किसी और नशे में डूब कर एक ‘देवदास टाइप प्रेम का आदर्श’ पेश करता है. लेकिन इस बीच अपनी देह की, यानी सेक्स की ‘मशाल’ को जलाए रखता है. कभी किसी लड़की से ज़बर्दस्ती की कोशिश करके तो कभी फिल्मों में काम करने वाली एक हीरोइन से सीधे ‘फिजिकल’ होने की मांग करके.
दिलचस्प अफसाना है कि अपनी माशूका की मोहब्बत में बेतरह गिरफ्तार आशिक दूसरी तमाम लड़कियों को शायद सिर्फ सेक्स का खिलौना समझता है. फिल्मों में काम करने वाली हीरोइन उससे मोहब्बत का इज़हार करती है और देह की आग बुझाने का ‘काम’ बीच में छोड़ कर वह अपनी माशूका को याद करता विक्षिप्त-सा चला जाता है.
बहरहाल, आखिर उसे अपनी प्रेमिका मिलती है, नौ महीने का गर्भ साथ लिए, लेकिन पूरी तरह ‘पवित्र’! शादी के तुरंत बाद वह अपने पति के घर से निकल गई थी और उसके गर्भ में अपने प्रेमी यानी कबीर सिंह का ही बच्चा था. हिंदी के कुंठित मर्दों के दिल में इससे बड़ी मुराद क्या होगी कि उसके भीतर जब भी सेक्स की आग भड़के, जहां चाहे, वहां बुझा ले, लेकिन किसी और से शादी हो जाने के बावजूद प्रेमिका वापस मिले तो पूरी तरह ‘पवित्र’ जिसे किसी दूसरे मर्द ने छुआ भी नहीं! ‘अग्नि-परीक्षा’ के अमूर्तन से लैस यौन-शुचिता का क्या शानदार मर्दवादी पाठ है यह फिल्म!
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कुंठाओं का कारोबार भर है यह फिल्म
हालांकि, इस फिल्म की सबसे बड़ी हकीकत तो यही है कि हीरोइन जितनी उसकी माशूका है, उससे ज्यादा उसकी ‘अपनी बंदी’ जिस पर उसका मालिकाना चलता है और जो उसकी मर्जी के बगैर छींक भी नहीं सकती. दरअसल, ‘कबीर सिंह’ कोई प्रेम कहानी नहीं है, यह समाज में चारों तरफ पसरी सामंती मर्द यौन कुंठाओं का शोषण और उसकी बिक्री है! पता नहीं, स्त्रीवाद या स्त्री के अधिकारों के लिए उठने वाली आवाजों के बरक्स एहसासात के लिहाज से यह किस तरह की मोहब्बत है, जिसमें एक तरफ मर्द-मालिकाना है तो दूसरी तरफ औरत की गुलामी! मालिक और गुलाम का रिश्ता कैसे मोहब्बत के खांचे में फिट हो सकता है, यह दिखाने की हिम्मत ‘कबीर सिंह’ के फिल्मकार ने दिखाई है और हम देख रहे हैं कि इसे देखने वाले ज़्यादातर लोग कबीर सिंह में खुद को देख रहे हैं! राष्ट्रवाद के उन्मादी सफर का रास्ता ऐसे ही सामंती ‘मर्दाना ताकत’ की आज़माइश की ज़मीन तैयार करता है..!
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)