जब भी भारत को नया मुख्य न्यायाधीश मिलता है, उसके न्यायिक ढांचे को लेकर चर्चा छिड़ जाती है. जस्टिस एस.एच. कापड़िया पहले न्यायाधीश थे, जिन्होंने 2010 में मौजूदा ढांचे की हालत की जांच के लिए और जिलास्तरीय न्याय व्यवस्था की भावी जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्थित योजना बनाई थी. इसके बाद से, हर बार जब नये मुख्य न्यायाधीश पदभार संभालते हैं तब न्यायिक ढांचे पर वक्ती तौर पर चर्चा होने लगती है.
मजिस्ट्रेट लोग जिन खराब स्थितियों में काम करते हैं उसकी सार्वजनिक आलोचना जस्टिस टी.एस. ठाकुर कर चुके हैं. इसके बाद जस्टिस रंजन गोगोई ने जिला न्यायालयों में खाली पदों पर नियुक्तयों का सिलसिला शुरू किया था. जस्टिस एन.वी. रमन्ना ने राष्ट्राय न्यायिक सेवा इन्फ्रास्ट्रक्चर ऑथरिटी के गठन पर चर्चा शुरू की थी. इसे खारिज किया जा चुका है. और अब जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने जिला न्यायालयों को मजबूत बनाने का मसला उठाया है. सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में जस्टिस चंद्रचूड़ ने जिला अदालतों की बदहाली का मसला उठाया, जिनमें से अधिकतर अदालतों में दिनभर काम करने वाली महिला जजों के लिए शौचालय तक की व्यवस्था नहीं है.
केंद्र सरकार फंड का आवंटन करके जिला स्तर पर इन्फ्रास्ट्रक्चर को सुधारने की निरंतर कोशिश कर रही है. 1993-94 से, केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित स्कीम (सीएसएस) के तहत न्यायिक इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने की कोशिश की जा रही है. इसके तहत प्रस्तावित फंड में केंद्र सरकार 60 फीसदी का और राज्य सरकारें 40 फीसदी का योगदान दे रही हैं. पूर्वोत्तर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह अनुपात 90:10 फीसदी का है. शुरू की गई परियोजनाओं की प्रगति पर नज़र भी रखी जाती है. हालांकि, यह स्कीम विधि एवं न्याय मंत्रालय चला रहा है लेकिन हमारी जिला अदालतों में अब तक कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखा है, तभी एक के बाद एक सभी मुख्य न्यायाधीश को उनकी बदहाली पर टिप्पणी करनी पड़ी है.
यह भी पढ़ें: बजट 2023 में सब्सिडी और मुफ्त सुविधाओं को खत्म करके घाटे को 6% से नीचे लाना होगा
इसकी वजह जान पाना बहुत मुश्किल नहीं है. इस स्कीम के लिए आवंटित कोष का इस्तेमाल नहीं होता क्योंकि राज्य सरकारें अपना हिस्सा नहीं दे रही हैं. नतीजन, वार्षिक बजट में आवंटित राशि का उपयोग न होने के कारण वह निरस्त हो जाती है. उदाहरण देखिए— 2019-20 में कुल 981.98 करोड़ रुपये मंजूर किए गए लेकिन 84.9 करोड़ ही खर्च हुए यानी 91.36 फीसदी कोष का इस्तेमाल नहीं हुआ. 2020-21 में 594.36 करोड़ मंजूर किए गए. इसका 41.28 करोड़ इस्तेमाल करके राजस्थान सबसे आगे रहा. लेकिन कोष का बड़ा हिस्सा बिना इस्तेमाल के निरस्त हो गया.
सीएसएस 2021 में खत्म हो गई, लेकिन केंद्र सरकार ने इसे पांच साल के लिए बढ़ा दिया और इसके लिए बजट में 9,000 करोड़ रु. आवंटित किए, जिसमें केंद्र का हिस्सा 5,307 करोड़ था. पिछले वर्षों के मुक़ाबले यह बड़ी वृद्धि थी जब सीएसएस के लिए कुल 8,758.11 करोड़ आवंटित किए गए.
इस स्कीम की धीमी प्रगति के दो कारण हैं. एक तो यह कि इसका कोई एक मालिक नहीं है. समन्वय एजेंसी न होने से इसका सफल क्रियान्वयन नहीं हो रहा है. वर्तमान स्वरूप में सीएसएस के तहत राज्य और केंद्र के स्तर पर अलग-अलग निगरानी कमिटियां हैं. दूसरा कारण यह है कि केंद्रीय कमिटी में न्यायपालिका को एक संस्था के रूप में प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है. यानी, इस स्कीम का असली उपभोक्ता ही पूरी प्रक्रिया से गायब है.
काम करने वाली एक एजेंसी
एक एजेंसी की कमी के कारण इसके अल्पकालिक और दीर्घकालिक लक्ष्य भी हासिल नहीं हो रहे हैं. अल्पकालिक लक्ष्य हैं जजों की मंजूरशुदा संख्या के विपरीत उनकी मौजूदा संख्या के लिए कोर्ट रूमों, रेकॉर्ड रूमों, कंप्यूटर रूमों आदि का निर्माण शामिल है. यह काम एक एजेंसी के अभाव के कारण पिछड़ रहा है क्योंकि योजना के अनुसार काम कराने और दावेदारों को काम के लिए टोकने वाली व्यवस्था नहीं है. अल्पकालिक लक्ष्यों को तय करना भी बहस का मुद्दा है क्योंकि हरेक राजी की अपनी अलग जरूरतें हो सकती हैं जो न्यायपालिका के राष्ट्रीय लक्ष्यों के लिए बाधा भी बन सकती हैं.
मसलन, भारत में 27 फीसदी कोर्ट रूम में कंप्यूटर जज की मेज पर होता है ताकि वे वीडियो कान्फ्रेंसिंग कर सकें. यह सुप्रीम कोर्ट की ई-कमिटी के लक्ष्यों से कितना मेल खाता है, जो जिला अदालतों के डिजिटाइजेशन का काम करा रही है? इन्हें अल्पकालिक लक्ष्य कहेंगे या दीर्घकालिक? क्या कर्मचारियों और संसाधन का दोगुनी संख्या में इस्तेमाल हो रहा है और सूचना एवं दूरसंचार तकनीक (आईसीटी) इन्फ्रास्ट्रक्चर को न्यायिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के रूप में पेश किया जा रहा है?
भविष्य के लिए योजना की कमी भी अपनी तरह से नुकसान पहुंचाती है. फिलहाल, केंद्रीय स्कीम में भविष्य की जरूरतों का ख्याल नहीं रखा गया है. इसलिए अगले 10-20 साल में जिला अदालतों पर काम का बोझ कितना बढ़ेगा इस पर कोई विचार नहीं किया जा रहा है. भारत सबसे बड़ी आबादी वाला देश बनने जा रहा है. इसका अर्थ यह है कि इसके अधिकतर महत्वाकांक्षी नागरिकों के लिए न्याय पहुंच से दूर हो जाएगी और समाज पर इसका असर कई रूपों में सामने आएगा.
2016 में हुए एक अध्ययन में पाया गया था कि मुकदमों के निपटारे में देरी भारत की जीडीपी में सालाना 0.5 फीसदी की कमी लाती है. दीर्घकालिक योजना भी कुप्रभावित होती है क्योंकि एक संस्था के नजरिए से विचार, नियोजन और क्रियान्वयन में निरंतरता नहीं रहती.
जस्टिस रमन्ना ने एक स्थायी संस्था बनाने का जो सुझाव दिया था उससे सिंथेटिक नजरिया अपनाया जाएगा और तब राज्य न्यायिक ढांचे में सुधार या निर्माण की कोई कार्य योजना पेश करेंगे तो उसके साथ कोष का अपना हिस्सा भी अथॉरिटी को जमा करेंगे. वास्तविक काम राज्यों की साझीदारी से होगा, और एक एजेंसी लक्ष्य तय करेगी और उसे हासिल करने की कोशिश भी करेगी. अगर भारत 2026 तक 5 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनना चाहता है तो यह लक्ष्य शक्तिशाली और स्थायी न्यायिक इन्फ्रास्ट्रक्चर स्थापित करके ही हासिल किया जा सकता है, और यह इन्फ्रास्ट्रक्चर न्यायपालिका की साझेदारी से ही स्थापित हो सकता है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
यह भी पढ़ें: इंदिरा गांधी ने शुरू किया, अब मोदी और केजरीवाल अपने प्रचार के लिए करदाताओं का पैसा लुटा रहे