हाल ही में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट से रेफरेंस भेजकर 14 सवाल पूछे हैं. ये सवाल राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत किए गए हैं. मूलत: ये सवाल सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इसी साल 8 अप्रैल को दिए गए फैसले से संबंधित हैं. इसके अलावा कुछ सवालों का संदर्भ एवं दायरा न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की संवैधानिक शक्तियों और कार्यक्षेत्र से संबंधित भी है. राष्ट्रपति के सवाल सटीक और समीचीन हैं. उन्होंने कानून निर्माण के संबंध में राज्यपाल और राष्ट्रपति को संविधानप्रदत्त शक्तियों को न्यायिक आदेश द्वारा सीमित/नियंत्रित किए जाने पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाया है.
निश्चय ही, उन्होंने अपनी मर्यादा का उल्लंघन और सीमा का अतिक्रमण करने वाली न्यायपालिका को प्रश्नांकित करते हुए उसके द्वारा संवैधानिक व्यवस्थाओं और प्रावधानों को बदलने से संबंधित सवाल पूछे हैं. उनके सवाल भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतर्निहित संवाद की स्वस्थ परंपरा का परिचय और प्रमाण हैं.
8 अप्रैल,2025 को शीर्ष अदालत ने राज्यपाल बनाम तमिलनाडु राज्य नामक वाद का फैसला सुनाया था. इस अत्यंत महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाल एवं न्यायमूर्ति आर महादेवन की दो सदस्यीय न्यायपीठ ने की थी. यह मामला तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों से संबंधित था. राज्य सरकार का कहना था कि विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयक लंबे समय से राज्यपाल द्वारा लंबित रखे गए हैं. साथ ही, राज्य सरकार ने राज्यपाल द्वारा एक साथ कई विधेयकों को राष्ट्रपति को विचारार्थ भेजने पर भी सवाल खड़े किए थे. इन विधेयकों में राज्य द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति का पदेन दर्जा मुख्यमंत्री को देने से संबंधित विधेयक भी शामिल है. राज्यपाल द्वारा अनिश्चित अवधि तक विधेयकों को लंबित रखना भी संविधान-सम्मत नहीं है.
संवैधानिक विश्लेषण
अदालत ने अपने उपरोक्त मामले से संबंधित फैसले में कुछ संवैधानिक पहलुओं को नए सिरे से पेश किया है. ऐसा करते हुए कोर्ट ने संविधान के कुछ हिस्सों को व्याख्यायित भी किया है. अगर सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले पर ध्यान दें तो इसके तीन पहलू नज़र आते हैं.
पहला, राज्यपाल एवं राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करने के लिए समय सीमा का निश्चित किया जाना है. यह समय सीमा तीन महीने तय की गई है. दूसरा, अगर समय सीमा के भीतर राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयक पर प्रतिक्रिया नहीं दी जाती है तो राज्य के अनुरोध पर उच्चतम न्यायालय ‘परमादेश रिट’(Writ of Mandamus) के तहत विधेयक को स्वीकृति प्रदान करने की क्षमता रखता है. तीसरा, कोर्ट ने खुद को संविधान के अनुच्छेद 142 द्वारा प्रदत्त शक्ति का उपयोग करते हुए 10 लंबित विधेयकों को कानून का दर्जा दे दिया है.
यह पहला मौका है जब बिना राष्ट्रपति या राज्यपाल की स्वीकृति के विधेयक कानून बन गए हैं. इस फैसले ने ‘पॉकेट वीटो’ को भी खारिज कर दिया है. यह न्यायपालिका द्वारा अपनी संवैधानिक शक्तियों और मर्यादा का अतिक्रमण है. इस फैसले से न्यायपालिका और कार्यपालिका के सम्बन्धों में तनाव और टकराहट बढ़ने की आशंका है.
इस फैसले के पीछे संवैधानिक वस्तुस्थिति को समझना ज़रूरी है. सर्वप्रथम अनुच्छेद 200 की बात आती है. इस अनुच्छेद के तहत राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत विधेयकों के संबंध में उनके पास मौजूद विकल्पों का विवरण है. इसके तहत राज्यपाल या तो विधेयक को स्वीकृति देता है या उसे रोक लेता है या वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए प्रेषित कर देता है. राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयक के लिए एक कसौटी का उल्लेख है. वह यह है कि ‘राज्यपाल की राय में’ यदि वह (विधेयक) कानून बन जाए तो हाई कोर्ट की शक्तियों को इस प्रकार अल्पीकृत करेगा कि वह व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी, जिसे भरने के लिए संविधान द्वारा उस व्यवस्था का निर्माण किया गया है.
ध्यान देने की बात यह है कि यह कसौटी मसौदा अनुच्छेद 175 में संविधान सभा में बहस के पश्चात जोड़ी गई, जो बहस 30 जुलाई, 1 अगस्त और 17 अक्टूबर 1949 को हुई थी. जिसे हम वर्तमान में अनुच्छेद 200 के नाम से जानते हैं. उक्त अनुच्छेद में कसौटी के निर्णयन के लिए जिस पद का इस्तेमाल है वह है ‘राज्यपाल की राय में’. इसके दो मायने हो सकते हैं. पहला: राज्यपाल मंत्री-परिषद् के सहयोग एवं सुझाव से ऐसा करेगा. अब इसमें सवाल यह उठता है कि मंत्री-परिषद जो विधानमंडल का हिस्सा है और विधेयक बनाने में शामिल है. आखिर क्यों पहले अपने सीमा क्षेत्र से बाहर जाकर विधेयक पारित करेगा और फिर राज्यपाल को परामर्श देकर उसे राष्ट्रपति को भिजवाएगा. दूसरा: राज्यपाल अपने “विवेकाधिकार” का प्रयोग करते हुए ऐसा करेगा. बहुत हद तक ऐसा भी संभव है कि ये दोनों अलग-अलग मामलों में लागू किए जा सकते हैं. संविधान सभा में हुई बहसों से गुज़रने से ऐसा लगता है कि वह राज्यपाल के विवेकाधिकार के दायरे को (विधेयक निर्माण के संदर्भ में) अनियंत्रित और असीमित तो नहीं करना चाहती थी, लेकिन एकदम से खारिज भी नहीं करना चाहती थी.
अनुच्छेद 201 दूसरा महत्वपूर्ण अनुच्छेद है, जो इस बहस में सामने आया है. इस अनुच्छेद में राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयक से संबंधित चर्चा है. इसके तहत राष्ट्रपति या तो विधेयक पर स्वीकृति देते हैं या उसे रोक देते हैं. साथ ही, वह अपने सुझावों और निर्देश के साथ विधेयक को राज्यपाल के मार्फत वापस विधानमंडल को भेज सकते हैं. वह दोबारा विधानमंडल से पारित कराकर राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाएगा. इसके आगे राष्ट्रपति उस विधेयक पर क्या फैसला लेते हैं? इस पर संविधान में स्पष्टता नहीं है. गौर करने की बात है कि उक्त अनुच्छेद (मसौदा अनुच्छेद 176, संविधान सभा 1948) बिना किसी बदलाव के संविधान सभा द्वारा स्वीकृत कर लिया गया था.
8 अप्रैल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, राज्यपाल अब पहली प्रस्तुति में तीन महीने एवं दूसरी प्रस्तुति में अधिकतम एक महीने तक ही विधेयक को अपने पास रख सकते हैं. विधेयक निर्माण प्रक्रिया में राज्यपाल के “विवेकाधिकार” को कोर्ट ने अब न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत बताया है. यह पिछले सिस्टम में बहुत बड़ा बदलाव है, जिसमें राज्यपाल के विवेकाधिकार को सीमित किया गया है.
इसके आगे शीर्ष अदालत ने अनुच्छेद 200 एवं 201 के तहत राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रेषित विधेयकों को संवैधानिक एवं वैधानिक त्रुटियों से बचाने के लिए राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट के परामर्श क्षेत्राधिकार के आधार पर सुझाव लेने के लिए भी निर्देशित किया है. कोर्ट का यह मानना है कि ऐसा करने से विधेयक में वैधानिक त्रुटियां भी नहीं रहेंगी एवं कानून बनने के बाद उसकी संवैधानिकता पर उठने वाले प्रश्नों से भी बचा जा सकेगा.
सवाल और बहस
सबसे ज़रूरी सवाल है कि क्या कोर्ट के इस फैसले से न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका के मध्य ‘शक्ति के बंटवारे’ के सिद्धांत का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है? ‘शक्ति के बंटवारे’ का सिद्धांत संविधान की बुनियादी संरचना का हिस्सा है. न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका के कार्य में सरल रेखीय बंटवारा तो नहीं है, लेकिन अगर हम अदालत के फैसले पर ध्यान दें तो राष्ट्रपति को दिए गए निर्देश के मद्देनज़र ऐसा लगता है कि विधेयक के कानून बनने के पूर्व ही न्यायपालिका का हस्तक्षेप हो रहा है. किसी भी विधेयक को प्रस्तुत करने एवं उस पर बहस करने का कार्य जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का ही होता है. विधायिका के इस कार्य में हस्तक्षेप संविधान के बुनियादी ढांचे को चुनौती देता है, जो कि समय-समय पर दिए गए कोर्ट के कई फैसलों में भी दिखता है. यह फैसले अवांछित “न्यायिक सक्रियता” का एक और उदाहरण है.
इस फैसले के बाद एक प्रश्न लगातार चर्चा में है कि क्या संवैधानिक व्याख्या एक संवैधानिक पीठ से इतर किसी अन्य पीठ द्वारा संभव है? संवैधानिक पीठ में न्यूनतम पांच न्यायाधीश होते हैं. वहीं उक्त फैसला मात्र दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा किया गया है.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने प्रश्न संख्या 12 में इस विषय को उठाया है. राज्यपाल एवं राष्ट्रपति न सिर्फ कार्यपालिका के प्रमुख हैं, बल्कि विधायी प्रक्रिया में भी उनका महत्वपूर्ण स्थान और भूमिका है. संविधान में उनकी परिकल्पना एकदम तयरूप में नहीं की गई है. संविधान द्वारा प्रदत्त “विवेकाधिकार” संबंधी शक्ति विशिष्ट कारणों से दी गई है. शक्ति-विहीन राज्यपाल या राष्ट्रपति महज़ सजावटी पद बनकर रह जाएगा. राज्यपाल या राष्ट्रपति सिर्फ कहने के लिए राज्य या संघ का संवैधानिक प्रमुख नहीं होता, बल्कि उसके पास विशेष परिस्थितियों में विशिष्ट शक्तियां होती हैं. इसीलिए संविधान में दलगत राजनीति से निरपेक्ष विवेक-बुद्धि संपन्न व्यक्ति को इन पदों पर नियुक्त करने का प्रस्ताव है. राज्यपाल को भी केंद्र में सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्त्ता के रूप में आचरण नहीं करना चाहिए. पिछले कुछ दशकों में मुख्यधारा की राजनीति से रिटायर्ड राजनेताओं को राज्यपाल के रूप में समायोजित करने की प्रवृत्ति बढ़ी है. जबकि राज्यपाल साहित्य, कला, विज्ञान, शिक्षा, कानून, पत्रकारिता के क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल करने वाले गैर-राजनीतिक और सम्मानित व्यक्तियों को बनाया जाना चाहिए.
स्पष्ट है कि उक्त फैसले से केंद्र एवं राज्य सरकार के रिश्ते बदल गए हैं. संघीय व्यवस्था के कारण कई बार केंद्र एवं राज्य सरकार की शक्तियों को स्वतंत्र एवं समान समझने की गलती की जाती है. जबकि संविधान में ऐसे कई प्रावधान हैं जिनसे केंद्र की वरीय स्थिति सुस्पष्ट है.
बाबासाहेब आंबेडकर ने भी कहा था कि भारत संघीय व्यवस्था के बावजूद केंद्रीय प्रवृत्ति वाला राष्ट्र है. यह व्यवस्था अलगाव और अराजकता को नियंत्रित करते हुए देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित करती है. उपरोक्त फैसले की पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए सवालों के न्यायपालिका द्वारा दिए गए उत्तर से न सिर्फ संघ और राज्य के संबंधों का समीकरण प्रभावित होगा, बल्कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के पारस्परिक संबंध और कार्यक्षेत्र भी पुनर्परिभाषित होगा.
इसलिए, सुप्रीम कोर्ट को संविधान की आधारभूत संरचना और अंतर्निहित भावना का ध्यान रखते हुए बहुत सोच-समझकर और सूझबूझ के साथ जवाब देना होगा.
लेखक रामानुजन कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रिंसिपल हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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