देश के कई राज्यों में ऐसी बहसें चल पड़ी हैं कि दूसरे राज्यों के लोग आकर उनके यहां की नौकरियां चुरा ले रहे हैं, इसलिए उनके अपने राज्य के युवा बेरोजगार रह जा रहे हैं. इसे रोकने के लिए राज्य की नौकरियों को अपने ही राज्य के युवाओं के लिए रिजर्व करने या ऐसी मांग करने का चलन बढ़ रहा है.
1970 के दशक में महाराष्ट्र में शिवसेना ने ‘महाराष्ट्र महाराष्ट्रवासियों के लिए’ का नारा बुलंद किया था. महाराष्ट्र की नवगठित महा विकास आघाड़ी सरकार ने अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम यानी सीएमपी में ये लिखा है राज्य की 80 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए रिजर्व की जाएंगी. इस तरह से शिवसेना ने अपने लगभग 50 साल पुराने नारे को साकार कर लिया है. इस सरकार में कांग्रेस और एनसीपी भी शामिल हैं और साझा न्यूनतम कार्यक्रम में वे बराबर की हिस्सेदार हैं.
लोकल यानी स्थानीय लोगों के लिए नौकिरियों को आरक्षित करना या इस बारे में आंदोलन करना सिर्फ महाराष्ट्र की बात नहीं है.
नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों को देखें-
1. झारखंड में इस समय चल रहे विधानसभा चुनाव में स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों को रिजर्व करना एक बड़ा मुद्दा है. वहां एक प्रमुख राजनीतिक दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा, ने अपने घोषणापत्र में कहा है कि अगर उसकी सरकार बनती है, तो राज्य की 75 प्रतिशत प्राइवेट नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए रिजर्व कर दी जाएंगी. मोर्चा ने अपने घोषणा पत्र में ये भी लिखा है कि 25 करोड़ रुपए तक के ठेके झारखंड के स्थानीय लोगों को ही दिए जाएंगे.
2. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने घोषणा की है कि राज्य सरकार ऐसा कानून बनाएगी, जिससे राज्य की सरकारी और निजी क्षेत्र की 75 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय युवाओं को ही मिले.
3. आंध्र प्रदेश सरकार ने इस बारे में कानून पास भी कर दिया है कि राज्य में निजी क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों को 75 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों को ही देनी होंगी.
4. गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने एक ऐसा कानून बनाने का वादा किया है, जिसके पास होने के बाद राज्य के निर्माण और सेवा क्षेत्र की कंपनियों को अपनी 80 प्रतिशत नौकरियां गुजरात के युवाओं को देनी होंगी. ऐसा ही वादा हरियाणा के उप-मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने भी किया है.
राज्यों में पैदा हो रहे रोजगार के अवसरों को अपने राज्य के युवाओं के लिए आरक्षित करने की घोषणाओं की ये अंतिम लिस्ट नहीं है. कई और राज्यों में भी ऐसी बहस चल रही है कि ‘बाहर के लोग’ आकर राज्य की नौकरियां हड़प ले रहे है.
यहां ‘बाहर के लोग’ से आशय किसी और देश जैसे नेपाल या बांग्लादेश के लोगों से नहीं है. इस मामले में राज्य से बाहर के लोगों को ही अलग लोग माना जा रहा है, जिनसे राज्य की नौकरियों को बचाना है.
इस लेख में हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि इस तरह के उपायों, घोषणाओं और कानूनों की क्या वैधानिकता है और इसका राष्ट्र के संघीय ढांचे के लिए क्या मतलब है. इससे अलावा और सबसे महत्वपूर्ण बात कि, इसका देश के विकास और शहरीकरण की प्रक्रिया पर क्या असर पड़ सकता है.
भारत में क्यों ठिकाना बदलते हैं लोग?
भारत की जनगणना (2011) के आंकड़ों को देखें तो पहली नजर में ऐसा लगता है कि भारत के लोग ठिकाना बदलने के लिए काफी ज्यादा आवाजाही करते हैं. भारत में 45 करोड़ लोग यानी लगभग 30 प्रतिशत आबादी अपना ठिकाना बदल चुकी हैं. लेकिन ये आंकड़ा पूरा सच नहीं बताता. दरअसल, भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां लोग अपना ठिकाना सबसे कम बदलते हैं.
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भारत में ज्यादातर लोग शादी की वजह से ठिकाना बदलते हैं, क्योंकि शादी के बाद महिलाएं पति के घर रहने चली जाती हैं. आप्रवास करने वाले 45 करोड़ लोगों में से 30.9 करोड़ महिलाएं हैं. महिलाओं का आप्रवास मुख्य रूप से विवाह के कारण हो रहा है. आप्रवास की दूसरी सबसे बड़ी वजह परिवारों के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना है. खासकर कमाऊ सदस्य के साथ पूरा परिवार शिफ्ट होता है. नौकरी या रोजगार के लिए 15 फीसदी से भी कम लोग ठिकाना बदल रहे हैं.
भारत में लोगों की जड़ें गहरी धंसी हुई हैं
भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां के लोग अपनी जगहों पर सबसे ज्यादा टिकाऊ रहते हैं. 80 देशों के आंकड़ों के अध्ययन के आधार पर बनाई गई और संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में ये बताया गया कि भारत के लोग, अपने देश के अंदर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसने के मामले में, सबसे कम गतिशील हैं.
आप्रवास की स्वाभाविक गति गांव से शहर की ओर और खेती से उद्योग और सेवा क्षेत्र की ओर होती है. ज्यादातर लोग इसी तरह से अपना ठिकाना बदलते हैं. भारत में आप्रवास की कम दर का मतलब शहरीकरण का बाधित होना भी है.
2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में सिर्फ 31 प्रतिशत लोग ही शहरों में रहते हैं. भारत अभी भी ग्राम प्रधान देश है. दुनिया में शहरीकरण के आंकड़ों के हिसाब से भारत 160वें नंबर का देश है. भारत में शहरीकरण की दर जांबिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी कम है.
भारत में जो आप्रवास है, वह ज्यादातर आसपास की जगहों में होता है और फसल चक्र की उसमें भूमिका होती है. ऐसे लोग 1 से 3 महीने के लिए शहरों में काम करने चले जाते हैं और फिर गांव में लौट आते हैं. लेकिन ऐसे मामलों में भी एक ही राज्य के अंदर एक जिले से दूसरे जिले में चले जाने का चलन ज्यादा है. राज्य की सीमा पार करने की बारी आए तो लोग पड़ोसी कस्बे में आप्रवास करने से भी बचते हैं.
भारत के लोग गांव की गठरी लेकर शहर आते हैं
भारत में आप्रवास की दर कम होने की कई आर्थिक और सामाजिक वजहें हैं. ये एक मान्य तथ्य है कि अमीर लोग गरीब लोगों की तुलना में ज्यादा दूर के स्थान में आप्रवास करते हैं. गरीब लोगों के आप्रवास का दायरा आसपास ही होता है.
इसके अलावा भारत का सामुदायिक ढांचा भी ऐसा है कि लोग अपने समुदाय से दूर जाने पर अलगाव और असुरक्षा महसूस करते हैं और पहचान के संकट से भी गुजरते हैं. इसलिए ये देखा गया है कि आप्रवास करके अमेरिका या यूरोप चला गया आदमी भी अपने बच्चे के उपनयन संस्कार या अपनी जाति में शादी के लिए भारत लौटता है.
यहां तक कि दिल्ली-मुंबई जाने वाले लोगों का भी गांव नहीं छूटना. छठ के मौके पर बिहार और क्रिसमस के मौके पर केरल जाने वाली रेलगाड़ियों में भीड़ का मतलब है कि भारत के लोग ठिकाना बदलने के बावजूद अपने गांव को एक गठरी की तरह साथ लेकर चलते हैं. शहरों के कई औद्योगिक श्रमिक फसल कटाई के मौसम में कुछ दिनों के लिए गांव लौटते हैं. इसका कारण हमेशा आर्थिक नहीं होता.
इस मायने में भारत का आंतरिक आप्रवास यूरोप में औद्योगिक क्रांति के दौर में हुए आप्रवास से अलग है, जहां शहर आ गए श्रमिक का फिर पीछे कोई गांव नहीं होता है, जहां वह लौट जाए. वहां शहरीकरण में शामिल होने का मतलब गांव को छोड़ देना है. जबकि, भारत में ज्यादातर शहरी लोग थोड़ा-सा गांव साथ लेकर चलते हैं.
सरकारें और नीतियां हैं आप्रवास में बाधक
पिछली दो जनगणनाओं (2001-2011) के बीच भारत में अंतर राज्यीय आप्रवास 11 फीसदी से बढ़कर 12 फीसदी हो गया है. लेकिन यह अभी भी निराशाजनक निचले स्तर पर है. सबसे चिंताजनक बात ये है कि आप्रवास में एक बड़ी बाधा राज्य सरकारों की नीतियां हैं. राज्य सरकारें लगातार ऐसी नीतियां बना रही हैं ताकि दूसरे राज्यों के श्रमिक और कर्मी उनके यहां न आएं.
भारत में आंतरिक आप्रवास पर विश्व बैंक के एक अध्ययन में कहा गया है कि ‘भारत में अंतर राज्यीय आप्रवास को राज्य स्तरीय कल्याण योजनाओं, राज्यों के स्तर पर लागू जनवितरण प्रणाली और शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के मामले में अपने राज्य के निवासियों को दी जाने वाली सुविधाओं ने बाधित कर दिया है.’
एक आदमी जब अपने राज्य से दूसरे राज्य में जाता है तो उसका बीपीएल कार्ड बेअसर हो जाता है, उसके राशन कार्ड पर उसे सस्ता अनाज नहीं मिल पाता, सरकारी अस्पताल में उसे इलाज कराने में दिक्कत आती है और कई बार उसका जाति प्रमाण पत्र कारगर नहीं रह जाता. अपने राज्य से बाहर उसे नरेगा में रोजगार नहीं मिल सकता. यानी देश का नागरिक होने के बावजूद राज्य से बाहर होने की स्थिति में उसे राज्य ही नहीं, केंद्रीय योजनाओं या केंद्र की वित्त पोषित योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता.
ये स्पष्ट रूप से आप्रवास विरोधी नीतियां है, जिसे सरकारें लागू कर रही हैं. इसके अलावा कई राज्यों में आप्रवासी विरोधी माहौल भी है, जिसे वहां के राजनीतिक दल बढ़ावा देते हैं. गुजरात और महाराष्ट्र में बिहार और यूपी से गए लोगों को कई बार अवांछित बताया जाता है और उनके खिलाफ हिंसा होती है. महाराष्ट्र में एक समय दक्षिण भारतीय लोगों को हटाने की मुहिम चल चुकी है. पूर्वोत्तर के लोगों को कभी दिल्ली तो कभी कर्नाटक में अवांछित बता दिया जाता है और उनके साथ बुरा सलूक होता है. इसे रोकने के लिए सरकार गंभीर नहीं होती है या फिर उनमें इसके लिए नैतिक बल नहीं होता.
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ये तब है जबकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(d) और (e) नागरिकों को ये अधिकार देता है कि वे देश के किसी भी हिस्से में जा सकते हैं और कहीं भी बस सकते हैं. आप्रवास विरोधी नीतियां दरअसल संविधान के संघीय ढांचे का उल्लंघन है और इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए.
विकास के लिए जरूरी है आप्रवास
औद्योगीकरण और विकास के लिए श्रमिकों की अबाध आवाजाही एक जरूरी शर्त है. इससे उद्योगों को वाजिब दर पर स्किल्ड श्रमिक मिल जाते हैं और श्रमिकों को भी काम का उचित दाम मिल जाता है. जिन राज्यों से श्रमिक जाते हैं, उसके लिए ये दोहरे फायदे की बात है. इसकी वजह से राज्य के संसाधनों पर बोझ कम होता है और श्रमिक अपने कमाई और बचत का एक हिस्सा वापस लेकर आते हैं तो इससे राज्य की अर्थव्यवस्था को बल मिलता है.
भारत में जो राज्य विकास के क्रम में सबसे आगे हैं, जैसे केरल और पंजाब, वहां प्रवासी मजदूरों के अनुकूल नीतियां रही हैं. केरल में प्रवासी मजदूरों के लिए कई तरह की विशेष सुविधाएं हैं. उनके लिए अलग पहचान पत्र है और उन्हें स्वास्थ्य और उनके बच्चों के लिए शिक्षा की सुविधाएं दी गई हैं. केरल से लाखों लोग काम करने के लिए राज्य और देश से बाहर जाते हैं और लाखों लोग काम करने के लिए दूसरे राज्यों से केरल आते हैं. इससे केरल को फायदा ही हुआ है.
ये तर्क आधारहीन है कि किसी राज्य में बेरोजगारी इसलिए है कि दूसरे राज्यों के लोग आकर नौकरियां हड़प लेते हैं. रोजगार-हीनता एक अन्य किस्म की समस्या है. इससे निबटने में अक्षम राज्य ही इसका दोष प्रवासी श्रमिकों पर थोप देते हैं.
(लेखक भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय पत्रकारिता और संचार में सहायक प्रोफेसर हैं. वे इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर भी रहे हैं. इन्होंने मीडिया और सोशियोलोजी पर कई किताबें भी लिखी हैं. लेखक के ये विचार निजी हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)