हाल के दशकों में प्रगतिशील छात्र आंदोलनों के लंबे अकाल को सीएए-एनआरसी विरोधी आदर्शवाद ने तोड़ दिया था जिसने भारत के दूर-दराज तक के इलाकों के छात्रों और युवाओं को आंदोलित कर दिया लेकिन विश्वविद्यालयों में इस तरह के जोशीले विरोध प्रदर्शन को दबाने की कोशिशों के तहत युवा प्रदर्शनकारियों के खिलाफ व्यापक कार्रवाई की गई, हाल ही में उमर खालिद की गिरफ्तारी हुई है.
देखने वाली बात यह है कि लोगों को कैसे निशाना बनाया गया- अब तक जेल भेज गए लोगों को दिल्ली दंगों में कथित भूमिका के लिए यूएपीए के तहत साजिश के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. इनमें से अधिकांश युवा छात्र और स्कॉलर हैं. जेल जाने वालों में पांच महिलाएं भी शामिल हैं, जिनकी उम्र 31 साल से कम है. उनमें से तीन नताशा नरवाल, देवांगना कलीता और सफूरा जरगर छात्राएं हैं, इशरत जहां एक वकील हैं और गुलफिशा फातिमा एमबीए स्नातक और एक टीचर हैं. जेल भेजे गए अधिकांश पुरुष भी युवा स्कॉलर हैं, उमर खालिद को झारखंड में आदिवासियों पर अध्ययन के लिए पीएचडी डिग्री प्रदान की गई थी.
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नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन में छात्रों ने नैतिक रूप से एकजुटता के आदर्शों और समान नागरिकता के सिद्धांतों की रक्षा के लिए आवाज उठाई, जो संविधान का आधार बिंदु भी है. युवा लोगों और कामकाजी वर्ग की मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में यह आंदोलन सही मायने में अधिकार, जो राष्ट्र का प्रतीक है, के जरिये खड़ा किया गया. राष्ट्रीय ध्वज धार्मिक मान्यताओं से परे राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गया, राष्ट्रगान विरोध और प्रतिरोध में उठने वाली एक धुन बन गया, और संविधान को धर्मनिरपेक्षता, समानता और भाईचारे की प्रतिज्ञाओं की रक्षा करने का आधार बनाया गया.
भारत के युवा और कामकाजी लोगों का 100 दिन का आंदोलन हर उस बात का सशक्त और करिश्माई प्रतिरोध था जिसकी वकालत सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके वैचारिक गुरु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की तरफ से की जाती है. शुरुआती तौर पर यह सोचना शायद नासमझी था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार चुपचाप खड़े होकर सब देखती रहेगी, जबकि बहुसंख्यक हिंदू राष्ट्र को लेकर उसकी वैचारिक जंग बड़ी शिद्दत से ट्रैक पर रुकी हुई थी. दिल्ली के प्रचार अभियान के साथ इसने निर्णायक वापसी की, शुरुआत इसके दो सबसे वरिष्ठ और आक्रामक नेताओं कपिल मिश्रा और अनुराग ठाकुर के एकदम जहरीले उत्तेजक भाषणों के जरिये हुई, फिर सीएए-एनआरसी प्रदर्शनकारियों को दंडित करने के लिए सांप्रदायिक दंगों की रूपरेखा बनी, और अंत में राजनीति प्रेरित जांच हुई जिसने प्रदर्शनकारियों को खतरनाक घुसपैठियों के तौर पर चित्रित किया.
जांच का ढोंग
दिल्ली पुलिस ने फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंदुओं को निशाना बनाकर हिंसा फैलाने, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सरकारी यात्रा के दौरान धरना-प्रदर्शन के जरिये सार्वजनिक जीवन बाधित करने और अंततः विधिवत निर्वाचित केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने की कुटिल साजिश का आरोप लगाया. प्राथमिकी 59 में साजिश के आरोप दर्ज किए गए हैं, और इसके तहत हो रही गिरफ्तारियों के लिए न केवल भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं बल्कि एक सख्त यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम, 1967) कानून के तहत भी गंभीर अपराध के आरोप लगाए गए हैं, जिसमें सरकार को भारतीय राज्य की अखंडता और संप्रभुता के खिलाफ अपराधों के आरोपी व्यक्तियों की कई नागरिक स्वतंत्रताएं खत्म करने की अनुमति होती है.
स्पेशल सेल, जिसे आमतौर पर आतंकवाद से जुड़े अपराधों की जांच का जिम्मा सौंपा जाता है, ने एफआईआर 59 की जांच के दौरान 60 से अधिक लोगों से पूछताछ की है. फिर, जिनसे पूछताछ हुई उनमें से अधिकांश काफी युवा थे, और ये सब वो लोग थे जो सीएए विरोधी प्रदर्शन में शामिल हुए थे. उनमें से कई ने मेरे और अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के समक्ष पूरे भरोसे के साथ अपने कटु अनुभव साझा करते हुए बताया कि बार-बार पूछताछ के लिए दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के इंटरोगेशन चैंबर में बुलाया गया, घंटों वहां रोके रखा गया, और सालों जेल की हवा खिलाने की धमकियां तक दी गईं.
इन तमाम पूछताछ के केंद्र में व्हाट्सएप ग्रुप थे, जो सीएए विरोधी प्रदर्शनों के कोऑर्डिनेशन में इस्तेमाल हुए थे. शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों को गंभीर अपराध माना गया. लेकिन, पुलिस ने इस बात को नहीं देखा है कि सैकड़ों सदस्यों वाले व्हाट्सएप समूह अनियंत्रित और बिना किसी योजनाबद्ध तरीके से खुले. कई युवाओं ने यह माना कि पुलिस ने उनसे युवा और वरिष्ठ आंदोलनकारियों दोनों पर उन्हें उकसाने और हिंसा फैलाने का प्रशिक्षण देने के आरोप लगाने वाले इकबालिया बयानों पर हस्ताक्षर करने को कहा. उन्हें आश्वस्त किया गया था कि यदि इन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हैं, तो उन्हें बचाया जाएगा अन्यथा जेल की सजा तय है. कुछ ने विरोध किया, जबकि बाकी ने कथित तौर पर (इसे समझा जा सकता है) हस्ताक्षर कर दिए. स्पेशल सेल ने कई वरिष्ठ बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और फिल्म निर्माताओं से भी पूछताछ की.
जबरन इकबालिया बयान
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने दिल्ली पुलिस आयुक्त एसएन श्रीवास्तव को भेजे एक खुले पत्र में दावा किया है कि कम से कम पांच लोगों को इकबालिया बयान के लिए मजबूर किया गया, और वास्तव में यह संख्या अधिक हो सकती है. दिल्ली हिंसा से संबंधित अन्य आपराधिक मामलों में भी पुलिस पूछताछ के दौरान लोगों पर इसी तरह का दबाव डाले जाने की जानकारी मिली है.
इन ‘कबूलनामों’ को हासिल करने की कवायद में पुलिस यह भूल गई कि वह कहां पर चूक कर रही है. हमने पाया कि अंकित शर्मा की चार्जशीट (एफआईआर 65/20) में यह हड़बड़ाहट साफ दिखती है जिसमें चार एक जैसे इकबालिया बयान दर्ज थे. इसी तरह रतन लाल (एफआईआर 60/20) की चार्जशीट में कोई भी देख सकता है कि सात बयान एक जैसे हैं. एफआईआर 50/20 से जुड़े आरोप पत्र में 10 बयान समान हैं. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक एफआईआर नंबर 39/20 की चार्जशीट में 12 में से 9 इकबालिया बयान लगभग एक जैसे थे.
उमर खालिद को नताशा नरवाल और देवांगना कलीता के समान बयान पर आधारित एफआईआर 50/2020 में भी आरोपी बनाया गया था जिसके बारे में खुद पुलिस रिकॉर्ड में कहा गया है कि उन्होंने हस्ताक्षर से इनकार कर दिया था, और इसमें गुलफिशा फातिमा की कथित गवाही भी शामिल थी. दिल्ली पुलिस आयुक्त को भेजे एक अन्य खुले पत्र में उमर खालिद ने पहले भी आरोप लगाया था कि पुलिस ने उनके एक परिचित को इकबालिया बयान पर हस्ताक्षर के लिए मजबूर करने की कोशिश की थी, जो उन्हें हिंसा की साजिश में फंसाने के लिए है.
अब निष्क्रिय हो चुके आतंकवाद रोधी कानूनों टाडा (आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम) और पोटा (आतंकवाद निरोधक अधिनियम, 2002) के तहत पुलिस अधिकारियों के समक्ष दिए गए बयान अदालत में साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य होते थे. लेकिन यूएपीए के मामले में ऐसा नहीं है जो वैसे तो पूर्ववर्ती आतंकवाद रोधी कानूनों में शामिल नागरिक स्वतंत्रता के हनन संबंधी तमाम प्रावधानों को बरकरार रखता है. पुलिस के समक्ष दिए ‘इकबालिया’ बयान आज किसी भी अदालत में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं हैं, माना जाता है कि ये यातना या धमकी देकर लिए गए हो सकते हैं. बावजूद इसके, और पुलिस को ये बयान मीडिया में लीक न करने के दिल्ली हाईकोर्ट के स्पष्ट निर्देश के बाद भी तथाकथित स्वीकारोक्ति और इकबालिया बयानों को दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा से जुड़े अपराधों की साजिश में आरोपित लोगों के खिलाफ व्यापक मीडिया अभियान के लिए जान-बूझकर पुलिस की तरफ से लीक किया गया. मीडिया चैनलों की तरफ से इन चुनिंदा लीक का इस्तेमाल असंगठित युवाओं उमर खालिद, आसिफ इकबाल तन्हा, मीरान हैदर, ताहिर हुसैन, गुलफिशा फातिमा, नताशा नरवाल, देवांगना कलीता, खालिद सैफी, शरजील इमाम के साथ-साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद जैसे वरिष्ठ बुद्धिजीवियों के खिलाफ भावनाएं भड़काने के लिए किया जा रहा है.
धर्मनिरपेक्षता और शांति की करिश्माई युवा आवाज उमर खालिद की गिरफ्तारी ने भारतीय गणराज्य में असहमति के भविष्य को लेकर मेरी बेचैनी को और गहरा कर दिया है. असहमति, शांतिपूर्ण प्रदर्शन और अंतरात्मा की आजादी एक जीवंत लोकतंत्र की जीवनरेखा हैं. सत्तारूढ़ दल और आरएसएस के वैचारिक और राजनीतिक मूल सिद्धांतों के प्रति वचनबद्ध लोगों को छोड़कर बाकी सब साफ देख सकते हैं कि दिल्ली पुलिस, संभवत: केंद्रीय गृह मंत्रालय के निर्देशों के तहत, ऐसे तरीके अपना रही है जो निश्चित तौर पर पक्षपातपूर्ण है. आधिकारिक मंशा निर्लज्ज और द्वेषपूर्ण है- भाजपा-आरएसएस की वैचारिक कल्पनाओं के प्रतिरोध में उठने वाली सभी आवाजों को सोच-समझकर निशाना बनाया जाए और निर्णायक तरीके से कुचल दिया जाए.
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(हर्ष मंदर @harsh_mander एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और पूर्व आईएएस अधिकारी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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Sabse pahli bat yahi he ki ye sabhi atankwadi he.. Inki soch vahi he jo 712 me mohammad kasim ki.. Gajanavi… Ghulam.. Khilji.. Tugalak.. Saiyyad lodi mughal ki thi… Nara e tadbir Allah hu akbar wali.. Attachar hinduo pr ho rha he.. Or unhe dabaya ja rha he.. Or dange karanevaale wale bhi yahi jnu aligarh jamiya miliya wale he..