scorecardresearch
Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतपाकिस्तान में जिन्न जनरलों से ज्यादा ताकतवर साबित हुए हैं, जादुई लड़ाई का मैदान तैयार

पाकिस्तान में जिन्न जनरलों से ज्यादा ताकतवर साबित हुए हैं, जादुई लड़ाई का मैदान तैयार

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान बेहद सुरक्षित फौजी दायरे में घुसे थे, लिहाजा टकराव होना तो लाजिमी था.

Text Size:

जिन्नों (जिन्नात) का राजा इब्लिस अल-लाइन बोडलियन लाइब्रेरी के बॉउल्स में गहरे धंसा हुआ है. उसके सिर पर बड़े रम-सींगों का ताज है, और उसके शरीर के निचला हिस्सा गर्म-गुलाबी इजार (स्कर्ट) से ढंका है. शुतुरमुर्ग के पंजे या खच्चर के खुरों जैसा गुल और मुंह के बजाय चोंच चमकती है. अल-मलिक अहमर हाथ में शमशीर (टेढ़ी तलवार) लिये जंग के लिए शेर पर सवार है. शापितों के दरबार में काबस शामिल है, जो हमारे बुरे सपने में घुस आता है, और असहाय पुरुषों के सिलाह को बहकाने वाला उन्हें पागलों की तरह नचवाता है और वह उन्हें अपना निवाला बना लेती है.

2 साल पहले जबसे पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ की नेता उज्मा कारदार की एक फोन कॉल ऑनलाइन लीक हुई है, इमरान के ख्वाबों को आकार देने में जिन्नों और काला जादू के खेल का खुलासा हो गया है. उस लीक टेप से पता चाला कि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की पत्नी बुशरा रियाज ने अपने परिवार की रक्षा के लिए दो मांसभक्षी जिन्न को पाल रखा है और अपने दुश्मनों के राज जुटाए हैं.

बुशरा रियाज ने जिन्नात को बानी गला के अपने विशाल घर में छुपा रखा है. ये बाकी चीजों के अलावा, बगावत भड़का कर सारी व्यवस्था को बिगाड़ सकते हैं, जनरलों के बीच दरार डाल सकते हैं, अल्लाह की मर्जी के पहरेदार हैं. और जिन्नात जीत रहे हैं: पाकिस्तानी फौज के ऊपरी हलके में गहरी दरार के मद्देनजर इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के महानिदेशक फौज की बचाव में परदे से बाहर आने पर मजबूर हुए हैं.

पीढ़ियों से इस्लामिक रिपब्लिक को कायम रखने के लिए जनरलों और उनके पिछलग्गू नेताओं के गठजोड़ ने मजहब, और कभी-कभी डंडे का इस्तेमाल किया है. इमरान और उनके जिन्नात ने उस व्यवस्था को बदल डाला है: एक नया पाकिस्तान पॉप-इस्लाम की यूटोपिया के इर्द-गिर्द बनाया जा रहा है, जो उनके खुद के अलावा किसी भी अथॉरिटी को नहीं पहचानता.


यह भी पढ़ें: पाकिस्तानी सियासत ने ऐतिहासिक करवट ली है, सेना को इमरान खान से शिकस्त खाने का सता रहा डर


पॉप-इस्लाम के पैगंबर

विद्वान स्टेफानो कार्बोनी हमें याद दिलाते हैं कि मध्ययुगीन किताब अल-बुलहान, या चमत्कारों की किताब की हैरतअंगेज सचित्र पांडुलिपि सिर्फ मन की आशंकाओं और आतंक की ही फेहरिस्त नहीं है. उसमें खगोलशास्त्र, दर्शन और ज्योतिष के साथ-साथ दूर-दराज के अभियानों के जरिए धन-समृद्धि की तलाश और आर्थिक उत्पादन में कड़ी मेहनत के महत्व की तस्वीरें और सूत्र भी हैं. किताब इशारा करती लगती है कि राज्य-सत्ता और समाज जादुई और अजूबा शक्तियां भी इस्तेमाल करता है, जो दुनिया में उथल-पुथल मचा सकती है.

इमरान खान एक न एक दिन शायद आत्मकथा लिखने पर विचार करें- शायद अपनी पूर्व पत्नी रेहम खान द्वारा साझा की गई अर्मादित सेक्स संबंधों, कोकीन की नशा और समय-समय पर भ्रष्टाचार की कहानियों का जवाब देने के लिए- लेकिन तब तक किताब अल-बुलहान से कुछ इनसाइट हासिल कर सकते हैं.

क्रिकेट स्टार से नेता बने इमरान पक्के पॉपुलिस्ट हैं. वे किसी खस राजनीतिक या आर्थिक सोच के लिए प्रतिबद्ध नहीं, बल्कि ऐसे इस्लामी कट्टरवादी हैं जो सामाजिक रूढ़ियों और कुछ बनने की आकांक्षा का गजब का शरबत बना सकते हैं.

जनरल और सामंत

पाकिस्तान में चार मिलिट्री शासन के दौरान, फौज ने मजहबी रिपब्लिक बनाने की कोशिश की-हर बार, नेताओं के साथ एक अजीब खिचड़ी पका कर. माना जात था कि बंटवारे की आग से निकले इस्लामी गणराज्य आधुनिक विचारधारात्मक राज्य बनेगा. 1951 से 1957 तक सात प्रधानमंत्रियों के आने-जाने के अराजक दौर के बाद लेफ्टिनेंट-जनरल अयूब खान ने राज्य-सत्ता के निर्माण की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली, वह भी उन्हीं संस्थाओं के जरिए जिसे राजनीतिकों ने बनाया था.
संक्षेप में कहें तो एक प्रेटोरियन वर्ग ने सामंती एलिटों के साथ मिलकर एक अजीबोगरीब सियासी व्यवस्था बनाई, जो तानाशाही और लोकतंत्र के बीच का मामला था.

विद्वान स्टीफन कोहेन के मुताबिक, जनरल अयूब ने खुद को फील्ड मार्शल और फौज का सर्वोच्च कमांडर तो नियुक्त कर लिया, लेकिन सिविल नौकरशाही ही उनका सहारा बनी रही. यह सही है कि कई जनरल मंत्री और गवर्नर तो बने, लेकिन फील्ड-मार्शल सियासी मशविरे के लिए तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे नेताओं के ही आसरे थे.

उस शासन ने कोशिश की कि आधुनिकीकरण किया जाए और 1956 के इस्लामिक रिपब्लिकन के ऐलान में से ‘इस्लामिक’ शब्द को हटा दिया गया था. हालांकि यह थोड़े दिनों के लिए ही संभव हुआ.

राजनीतिक संस्थानों को सौंपने के बदले फौज को पश्चिमी हथियार और खूब सब्सिडी हासिल हुई. फिर जनरलों ने नहीं, बल्कि विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने 1965 के युद्ध में गैर-फौजी ताकतों के इस्तेमाल से कश्मीर पर कब्जा करने की योजना तैयार करते हैं. तब फौज प्रमुख जनरल मोहम्मद मूसा ने इस योजना की बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाए तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया.

पाकिस्तान की फौजी हार के बाद, सियासी लीडरों के तेवर तीखे हो गए. 1967 से, जुल्फिकार ने पंजाब और सिंध के वंचित मजदूर वर्ग के बीच वामपंथी-झुकाव वाले जन आंदोलन की शुरुआत की. उधर, पूरब में अवामी लीग की बंगाली-राष्ट्रवाद की सियासत चमकने लगी.

इन नई ताकतों के तनाव की वजह से सख्त फौजी हुकूमत की जरूरत महसूस हुई. मजबूत सैन्य प्रबंधन की आवश्यकता थी. 1969 में, जनरल याह्या खान ने अयूब का तख्तापलट कर दिया. याह्या ने जुल्फिकार के वामपंथी झुकाव वाले लोकलुभावनवाद और शेख मुजीबुर रहमान के बंगाली राष्ट्रवाद के बीच मध्यस्थ बनने की योजना बनाई. हालांकि अयूब की नई नीतियों ने फौज को जुल्फिकार के पीछे खड़ा कर दिया, जिससे 1971 के युद्ध का मंच तैयार हो गया. फिर, जनरल स्टाफ के मुखिया लेफ्टिनेंट-जनरल गुल हसन खान ने याह्या के साथ वही किया, जो उन्होंने अपने पूर्ववर्ती के साथ किया था.

जुल्फिकार अली भुट्टो को राज करने का मौका मिल गया. उन्होंने मजहब का इस्तेमाल किया, अहमदी समुदाय पर बंदिश लगाई और कश्मीर पर अंतहीन युद्ध की कसम खाई. लेकिन प्रधानमंत्री की ज्यादतियों का नतीजा होना ही था. उन्होंने विदेशी आगंतुकों के सामने फौज प्रमुख जनरल जिया-उल-हक को ‘मेरा बंदर’ कहकर बुलाया. जैसे ही अर्थव्यवस्था चरमराने लगी, जुल्फिकार को उनके ‘बंदर’ ने ही फांसी पर चढ़ा दिया.

तख्तापलट करने वाले चौथे फौज प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जेल में डाल दिया और फिर देश निकाला कर दिया. करगिल युद्ध के सूत्रधार (मुशर्रफ) की जगह शरीफ ने लेफ्टिनेंट-जनरल ख्वाजा जियाउद्दीन को बैठाने की कोशिश की थी. योजना ठीक से नहीं बनाई गई थी. ब्रिगेडियर जावेद मलिक को अपनी वर्दी से एक सितारा फाड़ना पड़ा, ताकि जनरल जियाउद्दीन के पास चार सितारा होने की शर्त पूरी हो सके. जनरल मुशर्रफ को नवाज को हटाने और देश निकाला देने में थोड़ी भी मुश्किल नहीं आई.

जनरल मुशर्रफ के खिलाफ जवाबी तख्तापलट आखिरकार 2007 में हुआ, जब प्रदर्शनकारी वकीलों के आंदोलन से जनरल अशफाक परवेज कयानी को करगिल की लड़ाई हारने वाले को हटाने का मौका मिल गया.

इमरान का मारक जादू-टोना

सिविल प्रशासन और फौज के रिश्तों में संकट के बीच इमरान उभरे. अल-कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन की हत्या ने राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की सरकार की फौज को सियासी फैसले की प्रक्रिया से पूरी तरह अलग कर देने की कोशिशों को हवा दी. बदले में, जनरल कमर जावेद बाजवा रणनीतिक नीति के महत्वपूर्ण सवालों पर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को शह देने को कतई तैयार नहीं थे. इस तरह नागरिक प्रशासन और फौज के रिश्तों में गतिरोध आ गया.
विद्वान क्रिस्टीन फेयर ने बताया है कि फौज ने कैसे इमरान को भरोसेमंद कठपुतली के रूप में तैयार किया. फौज को लगा कि उसने एक करिश्माई, भव्य और विजयी सुल्तान का पुतला तैयार कर लिया. हालांकि, पुतला खुद को असली समझने लगा.

इमरान की तालिबान समर्थक नीतियों ने फौज में बंटवारे के बीज डाल दिए. लेफ्टिनेंट-जनरल फैज हमीद जैसे जिहादी समर्थक कमांडरों के खिलाफ पश्चिम-समर्थक चुस्त-दुरुस्त कमांडर खड़े हो गए. कई बार प्रधानमंत्री की कश्मीर और भारत को लेकर सख्त लहजा फौज की नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने की कोशिशों को बेमानी बना रहा था.

सबसे बढ़कर पूर्व क्रिकेट कप्तान पॉप इस्लाम के जरिए अपनी स्वतंत्र ताकत कायम करने में कामयाब रहे. इमरान के सहानुभूति दिखाने वाली आवाज ने निम्न मध्यम वर्ग को छुआ, जिनकी महत्वाकांक्षाओं पर राजनीति और फौज दोनों पर काबिज एलीट ने पानी फेर दिया था. उन्होंने आदेश दिया कि स्कूल पाठ्यक्रम में इस्लाम को गहरे जोड़ा जाए. पैगंबर मोहम्मद के जन्म के महीने में ‘किसी गाड़ी-ट्रक वगैरह में कोई संगीत/फिल्म या अश्लीलता नहीं देखी या बजाई जाएगी.

इमरान ने खुद को ईशनिंदा के खिलाफ वैश्विक संस्कृति-योद्धा के रूप में पेश किया. पैगंबर के सम्मान की रक्षा के लिए फ्रांस और नॉर्वे जैसे देशों से भिड़ गए. राष्ट्रीय नीति को दिशा देने के लिए नई मौलाना काउंसिल का गठन किया.
इसी तरह बुशरा ने इसके लिए मंच तैयार करने में शायद मदद की. बरेलवी मौलवी नेटवर्क में कोई हैसियत न होने के बावजूद छोटे शहरों के लिए पॉप इस्लाम की दुनिया और नए सामाजिक वर्गों के दरवाजे खोल दिए, जिन पर जादू चल गया.

इमरान ने जब जनरल बाजवा से उलझ रहे थे, तब भी उन्होंने हिंसक ईशनिंदा-विरोधी उग्र आंदोलन के नेता साद हुसैन रिजवी को जेल से रिहा करने पर जोर दिया, तालिबान के साथ शांति समझौते की खुलकर पैरोकारी की और लाल मस्जिद वाले लीडरों को फिर उभरने की इजाजत दी, जो 2007 में सशस्त्र विद्रोह पर उतर आए थे. ये सभी फौज के दायरे की बातें थीं, जिसमें इमरान दखलंदाजी कर रहे थे. ऐसे में टकराव तो लाजिमी हो गया था.

शायद जनरल बाजवा और उनके उत्तराधिकारी उस भस्मासुर को खत्म करना चाहेंगे, जिसे उन्होंने पैदा किया, मगर सिर्फ सख्त लहजे तक सीमित रहकर किसी असली कार्रवाई से परहेज बताती है कि इमरान ने असली समर्थन और असर बना ली है. तालिबान विरोधी युद्ध के हीरो लेफ्टिनेंट-जनरल तारिक खान, और सेवारत लेफ्टिनेंट-जनरल आसिफ गफूर जैसे बड़ी संख्या में वरिष्ठ अधिकारियों ने इमरान के लिए अपनी सहानुभूति को छुपाया नहीं है. फौजी जवानों के परिजन भी उनके समर्थन में सामने आए हैं.

जिन्नात जनरलों के मुकाबले ज्यादा ताकतवर साबित हुए हैं और पाकिस्तान में वर्षों तक एक जादुई लड़ाई की जमीन तैयार कर रहे हैं.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सेक्युरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: सुनक की ताजपोशी पर खुश हो रहे हैं भारतीय, लेकिन वंश परंपरा और वफादारी दोनों में फर्क है


 

share & View comments