माथाभंज और लबन चोरे गांवों को फूंक कर खुलना लॉन्च डॉक से वे आराम से रूपसा नदी में तैर कर निकल गए, लहरें अपने साथ मृतकों के शव बहा ले गईं. महेंद्र ढाली ने जांचकर्ताओं को बताया होगा, 1964 में समूचे बांग्लादेश में फैले दर्दनाक हिंदू विरोधी कत्लेआम के शिकारों के खून से नदी लाल हो गई थी. उन्होंने गवाही दी, ‘बाद के कई दिनों तक नदी के हर बांध और मोड़ पर दूर तक लाशें ही लाशें दिख रही थीं.’
पिछले हफ्ते एक लड़के ने फेसबुक पर इस्लाम की आलोचना का पोस्ट डाला, तो भीड़ ने नारैल के साहापाड़ा में हिंदुओं के घर-कारोबार को फूंक डाला और एक मंदिर को तोड़ दिया. हाल के महीनों में ऐसी वारदातें होती रही हैं, जिसका सिलसिला पिछले साल दुर्गा पूजा के मौके से शुरू हुआ.
एक स्वतंत्र संस्था आईन औ सालिश केंद्र का अनुमान है कि 2013 से हिंदुओं पर 3,600 से ज्यादा हमले हुए. उस साल बांग्लादेश के सबसे बड़े इस्लामी समूह जमात-ए-इस्लामी ने अपने नेता दिलवर हुसैन सईदी की 1971 के मुक्ति युद्ध में किए युद्ध अपराधों के लिए हुई सजा के खिलाफ बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा का तांडव शुरू कर दिया.
अलबत्ता प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी सरकार ने हिंसा को पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की है, मगर इस्लामवादी बांग्लादेश के राजनैतिक नक्शे में पैर जमाए हुए हैं. कुछ हद तक जिहादियों को खत्म करने की कोशिशों की वजह से सरकार की कठोर नीतियों ने उसकी वैधता कुछ घटा दी है, जिसकी वजह से उसे मजबूरी में प्रतिस्पर्धी इस्लामी गुटों से समझौते करने पड़े हैं.
अकाल और खून-खच्चर वाले अतीत की वजह से बांग्लादेश खुद को इस क्षेत्र में सबसे तेज विकास वाली अर्थव्यवस्था में तब्दील करने में कामयाब हुआ है. हालांकि, कट्टरतावादी ताकतवर बने हुए हैं और इस मेहनत से कमाई खुशहाली को बर्बाद कर देने का खतरा पैदा कर रहे हैं.
सांप्रदायिकता की लहर
आजादी के समय से ही पूर्वी बंगाल के हिंदुओं को कत्लेआम झेलना पड़ा है. 1950 में करीब 15 लाख शरणार्थी भारत आए, फिर 1951-52 में 6,00,000 से ज्यादा आए और 1953 से 1956 के बीच और 16 लाख आए. भूमिहीन मुसलमान भी पूरब से निकले, लेकिन ऐसी संपत्तियां नहीं छोड़ आए, जिनका पुनर्वास के लिए इस्तेमाल हो पाता. पल्लवी राघवन ने लिखा कि भारत ने खुलना और जेस्सोर के इलाके पर कब्जे के लिए युद्ध पर विचार किया, मगर यह एहसास किया गया कि युद्ध का मतलब होगा कि और शरणार्थी आएंगे.
आखिर 1950 के दशक के मध्य से हिंसा धीरे-धीरे घटने लगी, लेकिन नेताओं ने समझ लिया था कि सांप्रदायिकता का इस्तेमाल चुनावी और व्यक्तिगत फायदों के लिए किया जा सकता है.
राजशाही जिले में 1962 में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की वजह से पश्चिम बंगाल और असम में 35,000 शरणार्थी आए. उनकी जमीनों पर अमूमन स्थानीय नेता कब्जा कर लेते और वफादारी का पुरस्कार देने में इस्तेमाल किया करते थे.
उसके बाद 1963 की सर्दियों में हजरतबल से एक धार्मिक चिन्ह गायब पाया गया तो कश्मीर में हिंसा भड़क उठी. प्रशासन बिखर गया, एक समकालीन पर्यवेक्षक के मुताबिक, प्रदर्शनकारियों ने ‘गैर-वैधानिक समानांतर प्रशासन खड़ा कर लिया, ट्रैफिक कंट्रोल करने लगे, व्यापार और कीमतें तय करने लगे.’ पाकिस्तान की मीडिया ने बिना पुख्ता आधार के दावा किया कि कश्मीर से कोलकाता तक मुसलमानों का कत्लेआम हो रहा है.
भारतीय न्यायविदों के आयोग ने उस रिपोर्ट को दर्ज किया कि ढाका के अखबार आजाद ने लिखा, ‘हिंदुओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता. वे अपने मां-बाप को मार सकते हैं. जब भी मौका मिलेगा, वे मुसलमानों का दम घोंटकर मार डालेंगे.’
ऐसी बातों पर 1964 में हिंसा करने वाली भीड़ की अगुआई पाकिस्तान के संचार मंत्री अब्दुल सबुर खान ने की थी. आयोग को बताया गया कि उनके समर्थकों ने पर्चे बांटे कि हिंदू पूर्वी पाकिस्तान छोड़ दें. चश्मदीदों की गवाहियों से साफ है कि वे अमूमन भागते लोगों की जमीन पर कब्जा कर लेते थे.
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हत्यारी मशीन
1970 में बढ़ते विरोध को देखते हुए पाकिस्तानी अधिकारियों ने उन सांप्रदायिक नेताओं की तलाश की, जो बांग्लादेशी राष्ट्रवाद के खिलाफ संस्थागत हत्यारा दस्ता तैयार कर सकें. पाकिस्तान फौज के पूर्व ब्रिगेडियर सिद्दीक सलीक ने लिखा, ‘आगे सिर्फ दक्षिणपंथी लोग ही आए. उन्होंने लिखा, सबुर जैसों ने दो हत्यारे दस्ता अल-बद्र और अल-शम्स के लिए वालंटियरों की भर्ती की. अफसर ने लिखा, ‘इस्लाम और पाकिस्तान के नाम पर’ ये वालंटियर ‘सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थे.’
जमात-ए-इस्लामी के नेता मतिउर रहमान निजामी की अगुआई में अल-बद्र ने राष्ट्रवादियों की हत्याएं कीं और हिंदुओं को देश छोड़कर भगाने के लिए हिंसाएं कीं.
इस्लामी विद्वान अबुल अला मौदूदी ने जमात-ए-इस्लामी की स्थापना 1953 में पाकिस्तान को शरीया आधारित राज्य बनाने के लिए किया था. राजनीति विज्ञानी सैयद वली नस्र ने लिखा है, संगठन को चुनावी कामयाबी मामूली ही मिली थी, लेकिन संविधान को बनाने और इस्लामी रिपब्लिक के कायदे लादने में उन्होंने अपने कद से बड़ा असर पैदा कर लिया.
पाकिस्तान की ही तरह पूर्वी पाकिस्तान में भी 1971 में जमात का सफाया हो गया था, लेकिन मेजर जनरल जिया-उर-रहमान के राज में फिर उसका उदय हुआ. उनके उत्तराधिकारी जनरल एच.एम. इरशाद ने तो 1971 के दो युद्ध अपराधियों अब्दुल मन्नान और सलाहुद्दीन कादर चौधरी को कैबिनेट मंत्री भी बनाया. खान को 1972 में माफी दे दी गई और उसके बाद भारी चुनावी जीत दर्ज की.
जमात 2001 से 2006 के बीच बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के साथ गठबंधन बना लिया: यह दक्षिणपंथी गठबंधन ने सरकार बनाई. जमात ने समाज कल्याण मंत्रालय पर अपने नियंत्रण और निजी क्षेत्र के इस्लामी बैंक का इस्तेमाल किया और अच्छा-खासा नेटवर्क कायम कर लिया.
2008 के चुनावों में बीएनपी-जमात गठजोड़ हार गया क्योंकि युवा युद्ध अपराधियों को छोड़े जाने की जवाबदेही मांग रहे थे. हालांकि इस्लामाबाद फिर भी चुपचाप बना रहा.
जिहादी लहर
विद्वान अली रियाज के अध्ययन से पता चलता है कि बांग्लादेश में फौजी तानाशाही में दो एक-दूसरे से जुड़ी जिहादी लहर को बढ़ावा दिया गया. पहली लहर उन वालंटियरों की थी, जो सोवियत संघ से लड़ने अफगानिस्तान गए और स्वदेश लौटकर बांग्लादेश में हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी का गठन किया. उसका फोकस भारत और म्यांमार से लड़ना था. 1998 में दूसरी पीढ़ी ने जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश बनाई, जिसका मकसद बांग्लादेश को इस्लामी राज्य में बदलने की लड़ाई लड़ना था.
हालांकि जमात-उल-मुजाहिदीन को बुरी तरह कुचल दिया गया, मगर नई प्रवृतियां उभर आईं. ब्रिटेन में बांग्लादेशी आप्रवासियों के कुछ तत्वों की अगुआई में हिज्ब-उत-तहरीर ने देश की आभिजात्य बिरादरी में वैश्विक खिलाफत का विचार रखा. अल कायदा से जुड़े अंसरुल्लाह बांग्ला टीम ने प्रगतिशील कार्यकर्ताओं की हत्या शुरू की. इस्लामी स्टेट से प्रभावित गुटों ने 2015 में जिहाद की पांचवी लहर पैदा की.
आंकड़ों से पता चलता है कि बांग्लादेश ने अपनी पहचान बनाए रखने में कामयाबी पाई है. 2014 के बाद से आतंकवाद से जुड़ी जनहानि में काफी गिरावट आई है, लेकिन इस जीत के लिए कीमत अदा करनी पड़ी है.
जेहादी तत्वों और जमात-ए-इस्लामी के हमलों से बचने के लिए प्रधानमंत्री हसीना की सरकार ने देश के मदरसों के छात्रों और मौलवियों के आंदोलन हेफजात-ए-इस्लामी से गठबंधन किया. हेफजात ऐसी मांगों के लिए मंच बना गया, जिससे जमात-ए-इस्लामी की पकड़ कमजोर होती है. मसलन, संविधान में इस्लामी मर्यादाएं शामिल की जाएं, सार्वजनिक स्थानों पर मर्द-औरत की जगह अलग हो, ईश-निंदा के लिए फांसी हो.
शुरू में प्रधानमंत्री हसीना ने हेफजात की कई मांगें मान लीं. मसलन, सुप्रीम कोर्ट से साड़ी पहने न्याय की देवी की मूर्ति हटाई जाए, जो उसके दावे के मुताबिक काफिराना है. सरकार ने मदरसों के सर्टिफिकेट को यूनिवर्सिटी की डिग्री के बराबर मान लिया और स्कूली पाठ्यक्रम में संशोधन किए.
अवामी लीग ने अपने पदों से धर्म विरोधी नेताओं को हटा दिया. चार बार के सांसद अब्दुल लतीफ सिद्दीकी को सत्तारूढ़ पार्टी से यह कहने के लिए निकाल दिया गया कि हज यात्रा पर जाना ‘वक्त बर्बाद’ करना है.
हालांकि 2020 से सरकार से टकराव शुरू हो गया. हेफजात के मौलवियों ने दावा करना शुरू किया कि बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान की मूर्तियां गिराई जाएं. दलील यह थी कि यह बुतपरस्ती है. उसके बाद अगले साल हेफजात के नेताओं ने दौरे पर आए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन की अगुवाई की.
हेफजात के कट्टर विचारों पर काबू पाना मुश्किल साबित हुआ है. विद्वान मुबाशर हसन और ज्योफ्रे मैकडोनालड ने लिखा है कि महामारी ने इसमें इजाफा किया है. इस्लामवादियों ने डिजिटल मीडिया पर यह प्रचार चलाया कि महामारी सरकार की इस्लाम विरोधी नीतियों के लिए अल्लाह का दंड था और इसलिए शरीया आधारित कानून की मांग की.
भारत में मुसलमान विरोधी सियासत और हिंसा को भी हिंदुओं और बांग्लादेश के सेक्युलर विचारों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है.
उस देश का अनुभव भारत के लिए आईना है. वह बताता है कि सांप्रदायिकता से मुकाबला करने में नाकाम राजनीति का क्या हश्र होता है.
(लेखक दिप्रिंट के नेशल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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