हाल ही में जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए रक्षा समझौते का भारत को स्वागत करना चाहिए, मगर इसको लेकर कुछ चिंताएं होना भी लाज़मी है. एक ओर, यह भारत-प्रशांत क्षेत्र में एकाधिकारवाद के खिलाफ बढ़ती क्षेत्रीय एकजुटता का संकेत है, और इससे भारत को भी फायदा है क्योंकि चीन की ताकत भारत के लिए मुसीबत है और उसके खिलाफ किसी भी तरह की कोशिश का स्वागत होना चाहिए. लेकिन दूसरी ओर, ये कोशिशें भारत के लिए एक चेतावनी भी हैं क्योंकि अन्य देश एक-दूसरे से औपचारिक और संस्थागत सुरक्षा सहयोग कायम कर रहे हैं, जिसमें भारत शामिल नहीं है. कुछ ही महीनों में इस क्षेत्र में दो सुरक्षा संधियां हुई हैं. दूसरी एयूकेयूएस है और कुछ अन्य होने वाली हैं, ऐसे में नई दिल्ली को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या दूसरों से करीबी सुरक्षा सहयोग से दूरी बनाए रखना भारत के ज्यादा हित में हैं.
नई संधि दिखाती है कि चीन के रवैए से क्षेत्रीय ताकतें कितनी चिंतित हैं. जापान ने ऐसी संधि अमेरिका के अलावा किसी दूसरे देश से नहीं की है. हाल तक जापान अपने इलाके की आत्मरक्षा के अलावा अन्य किसी तरह के सैनिक दायित्व को मंजूर करने को तैयार नहीं था. अब यह स्थिति बदल गई है क्योंकि टोक्यो को लगातार यह एहसास हो रहा है कि उसके इलाके के बाहर संभावित क्षेत्रीय घटनाक्रम से निपटने के लिए सुरक्षा सहयोग की ज़रूरत है. पिछले महीने ही जापान और अमेरिका ताइवान में किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए साझा योजना का ‘मसौदा’ तैयार करने पर राजी हुए. जापान-ऑस्ट्रेलिया समझौता दूसरा संकेत है कि टोक्यो का रुझान बदल रहा है.
इसके अलावा जापान शायद ब्रिटेन से अतिरिक्त सुरक्षा सहयोग पर बात बढ़ाने पर विचार कर रहा है और फ्रांस से रिश्ते मजबूत कर रहा है. हालांकि भारत और जापान अपनी सैन्य ताकतों के बीच ‘सप्लाई और सर्विस में आपसी लेनदेन’ के करार पर दस्तख्त कर चुके हैं, लेकिन जापान-ऑस्ट्रेलिया समझौते के मुकाबले उसका दायरा काफी सीमित है. भारत-जापान करार मुख्य तौर पर सैन्य अभ्यास के लिए है, न कि गहरे सैन्य सहयोग का. जापान के रुझान में बदलाव ऑस्ट्रेलिया के रुख में बदलाव को भी बतलाता है, जो कभी चीन को आर्थिक और व्यापार पार्टनर मानता था, लेकिन अब उसे साफ-साफ सुरक्षा खतरा की तरह देखता है. इस तरह कानबेरा क्षेत्रीय और बाहर ताकतों से नए सुरक्षा बंदोबस्त के लिए मजबूर हुआ है.
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चीन के खिलाफ दूसरे एकजुट हो रहे
चीन को लेकर साझा चिंताओं के मद्देनजर क्षेत्रीय एकजुटता भारत के लिए संतोषजनक होनी चाहिए. क्षेत्र के कई दूसरे देशों की तरह भारत भी पहले चीन को लेकर दुविधा में था, लेकिन पिछले कुछ सालों से उसके रुख में काफी बदलाव आया है, खासकर जब चीन का आम तौर पर दुश्मनी भरा और सीमा पर आक्रामक रवैया साफ हो गया है. इसके बावजूद नई दिल्ली अभी भी प्रतिक्रया दे रहा है और लुका-छिपी का खेल खेल रहा है, खासकर कोई बड़ी पहल करने के बदले चीन की चालों का बस जवाब ही दे रहा है.
मसलन, भारत अब क्वाड को लेकर ज्यादा सकारात्मक दिखता है, मगर यह बदलाव भी पिछले साल ही आया है, जो लद्दाख में चीन के रवैए का सीधा नतीजा लगता है. बहरहाल, जैसा कि दूसरे बता चुके हैं, भारत अभी भी इसी दुविधा में फंसा लगता है कि वह क्वाड में कितनी दूर तक आगे बढ़े. साथ ही साथ, रूस और चीन के साथ भारत छुआ-छुई का खेल खेल रहा है, जबकि वे उसी क्षेत्रीय बंदोबस्त को कमतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जो भारत के हित के लिए एशियाई संतुलन कायम करने के खातिर जरूरी है.
चीन के खिलाफ दूसरों को संतुलन कायम करते देखना चाहे जितना सुकून भरा हो, नई दिल्ली को इन कोशिशों को बाहर बैठकर देखने के लालच से बाज आना चाहिए और यह नहीं मान लेना चाहिए कि उसे क्षेत्रीय संतुलन बनाने की अपनी कोशिशें थाम लेनी चाहिए. क्या भारत के लिए संतुलन कायम करने की जरूरत के लिए इतना ही काफी नहीं है कि उसे हिमालय में चीन से टकराना पड़ रहा है? सबसे बढक़र यह कि भारत आज भले एलएसी पर अपने इलाके का बचाव करने के काबिल है, मगर वक्त गुजरने के साथ हालात बदतर ही होने वाले हैं. आज भी यह संभव है कि पाकिस्तान एलएसी पर किसी झड़प का फायदा उठाकर भारत के लिए दो मोर्चों पर गंभीर हालात पैदा कर सकता है. यहां तक कि नई दिल्ली के व्यावहारिक सुरक्षा हुक्मरान चीन-पाकिस्तान के साझा आक्रामक पहल से इनकार नहीं कर सकते.
लेकिन भारत अगर दो मोर्चों जंग झेल भी लेता है, तो उसे अगले कुछ साल में तीन मोर्चों पर समस्या का मुकाबला करना पड़ सकता है. चीन का नौसैनिक विस्तार इतनी रफ्तार से बढ़ रहा है कि जल्दी ही वह भारत के पड़ोस में बड़ी ताकत बन जाएगा. जमीन पर टकराव के उलट भारत चीन की नौसैनिक ताकत से बराबरी नहीं कर सकता, जो ऐसी पूंजीगत संपत्तियों पर आधारित है, जिसकी बराबरी करने के लिए भारत के पास पूंजी नहीं है. यह खासकर इसलिए भी है क्योंकि भारत को हिमालय की सीमा की रक्षा के लिए अपना ज्यादातर सैन्य बजट झोंक देना पड़ता है. और फिर, भारत की रक्षा खरीद प्रक्रिया के गड़बड़झाले के बारे में कुछ न ही कहा जाए तो बेहतर है.
भारत को संधियों के बचने की फितरत छोड़नी होगी
भविष्य में इन सभी शर्तिया मामलों की भरपाई का एक तरीका यह है कि चीन की ताकत के जवाब में अंतरराष्ट्रीय मोर्चेबंदी को मजबूत किया जाए. भारत को भले हिमालय में सहयोगी देशों की मदद की जरूरत न हो, लेकिन नौसैनिक मामलों में उसे मदद की दरकार है. लेकिन वह मदद तभी संभव है, जब भारत दुविधा छोड़कर इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों के साथ मजबूत और गहरे सुरक्षा सहयोग के लिए हाथ आगे बढ़ाए, जो महज सैनिक अभ्यास तक सीमित नहीं होगा.
इसी वजह से नई दिल्ली को जापान-ऑस्ट्रेलिया समझौते जैसे नए सुरक्षा करारों के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. हालांकि ये समझौते भारत के लिए भी मददगार होंगे, लेकिन इनसे यह भी संकेत मिलता है कि इस क्षेत्र में दूसरे भारत के बिना ही गहरे सुरक्षा सहयोग की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. इसकी संभावना तो नहीं दिखती कि ये घटनाक्रम नई दिल्ली की दुविधा की वजह से हो रहे हैं, लेकिन इन समझौतों की गहराई शर्तिया तौर पर क्वाड और खासकर भारत के रुख से तुलना को आमंत्रित करेगी. अगर भारत के सहयोगी देश दूसरे समझौते करना जारी रखते हैं तो उनकी नजर में क्वाड की अहमियत घट सकती है.
इससे भी बड़ी समस्या दूसरा संकेत है कि भारत बाहरी सुरक्षा सहयोग के प्रति अपने पुराने संकोच से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाया है, जबकि उसकी अपनी काबिलियत की सीमाएं एकदम स्पष्ट हैं. नई दिल्ली इसी भ्रम में जी रहा है कि गहरी साझेदारी से ज्यादा साझेदार बेहतर हैं. इससे चीन के खिलाफ क्षेत्रीय संतुलन बनाना और मुश्किल हो जाएगा, और वह भारत के हित में नहीं होगा.
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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