कोविड-19 वायरस से संक्रमण के 10 हज़ार से ज्यादा मामले जिन सात देशों में पाए गए हैं उनमें से चार देश- इटली, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन- यूरोप महादेश की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं. इस सूची में वायरस के स्रोत चीन के अलावा एशिया का केवल एक देश ईरान शामिल है. इसके 10 हज़ार से ज्यादा मामलों वाले देशों की सूची में सातवां देश है अमेरिका. 1000 से लेकर 10,000 तक के मामले वाले नौ देशों में से एक को छोड़ बाकी सब यूरोप के ही हैं. इस दूसरी सूची में एशिया का एकमात्र देश है दक्षिण कोरिया. बड़ी आबादी वाले दूसरे एशियाई देशों (भारत, इंडोनेशिया, जापान) में इसके कम ही मामले पाए गए हैं. भारत में सबसे कम, करीब 250 मामले पाए गए हैं. इजरायल में, जो नाम का एशिया में है और जिसकी करीब 90 लाख आबादी में से करीब आधी आबादी यूरोपीय/रूसी मूल की है, भारत में मिले मामलों से तीन गुना ज्यादा मामले हैं.
अगर भारत आबादी के अनुपात के हिसाब से यूरोप के ढर्रे पर होता तो यहां करीब 2 लाख लोग संक्रमित होते और इस संकट को संभाल पाना मुश्किल होता. चीन तो 80 हज़ार मामलों के साथ सबसे ज्यादा प्रभावित है. जहां तक दूसरे महादेशों की बात है, अफ्रीका में (जिसकी आबादी भारत से थोड़ी ही कम है) अब तक भारत के मामलों से चार-पांच गुना ज्यादा मामले पाए गए हैं. भारत की आबादी से आधी आबादी वाले लातीन अमेरिका में भारत में मिले मामलों से 10 गुना ज्यादा मामले पाए गए हैं.
वायरस से हुई पिछली महामारियां उसी देश या महादेश के लोगों को चपेट में लेती थीं, जहां उनका स्रोत होता था मगर इस बार मामला एकदम अलग है. 2014 में इबोला की शुरुआत पश्चिम अफ्रीका में हुई थी और उसने ज़्यादातर उसी महादेश के लोगों को शिकार बनाया था. इसी तरह 2003 में फैली ‘सार्स’ महामारी ने जिन 800 लोगों को चपेट में लिया था उनमें 90 प्रतिशत लोग इसके स्रोत चीन और हांगकांग के थे. यूरोप और उत्तरी अमेरिका में इससे केवल कुछ सौ लोग प्रभावित हुए थे और एचआइवी-एड्स भी अफ्रीका में उभरा और उसने वहां के ही लोगों को भारी संख्या में शिकार बनाया. इस प्रवृत्ति के हिसाब से देखें तो कोविड-19 एकदम अलग नज़र आता है.
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यह हैरान करने वाली बात है. उड्डयन के गहन नेटवर्क वाले पूर्वी एशियाई क्षेत्र को इसके सीमित मेडिकल संसाधन, भीड़भाड़ वाली बस्तियों, स्वास्थ्य संबंधी निम्न स्तरीय मानदंडों के कारण ज्यादा असुरक्षित माना जा सकता है. ये कारण भी अपना असर दिखा सकते हैं. दक्षिण कोरिया ने व्यापक जांच अभियान चलाकर एक तरीका अपनाया है. इस वजह से वहां ज्यादा मामले पाए गए हैं और प्रारम्भिक अवस्था में मामले पकड़े जाने से उन्हें काबू करने में मदद मिली है. इसके विपरीत, कहा जाता है कि अमेरिका की तरह भारत और जापान में रोगियों की कम पहचान की गई है. सो, जांच में तेजी लाई जाएगी तब मामलों की संख्या में विस्फोटक वृद्धि हो सकती है. दरअसल, भारत में मामलों की संख्या में दूसरी जगहों की तरह ही वृद्धि देखी जा रही है.
इसलिए यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपने संबोधन में सावधान किया कि भारत इस संकट को हल्के से लेकर बच नहीं सकता और उन्होंने इस लड़ाई को सरकार के प्रयासों से आगे ले जाकर नागरिकों को भी अपनी कुशलता की जिम्मेदारी लेने की अपील की. सारा खेल रोकथाम पर निर्भर है, क्योंकि रोग अगर महामारी की तरह फैल गया तो अपने अपर्याप्त मेडिकल संसाधन के चलते उससे निपटना बेहद मुश्किल हो जाएगा. अगर प्रधानमंत्री का संदेश कारगर होता है तो यह दूसरी बार होगा जब वे समाज को सक्रिय करने में सफल होंगे.
उन्होंने पहला ऐसा प्रयास समर्थ उपभोक्ताओं को सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलिंडर को स्वेच्छा से त्यागने की अपील करके किया था.
सब्सिडी वाली व्यवस्था से बड़े पैमाने पर और तेजी से तभी बाहर निकला जा सकता है जब सरकार सीधी पहल करे. लेकिन मोदी ने लोगों से ही स्वेच्छा से पहल करने की अपील की और इसके साथ यह भी कहा कि इससे बचे पैसे को अच्छे काम में लगाया जाएगा. लोगों से जनता कर्फ़्यू लगाने की अपील भी ऐसी ही कोशिश है और यह आगे अधिक महत्वाकांक्षी कदमों की पूर्व तैयारी साबित हो सकती है, हालांकि लोगों से अपने दरवाजे पर खड़े होकर ताली बजाने को कहना अजीबोगरीब बात ही है. किसी संभावित महामारी की रोकथाम में लगे लोगों की तारीफ करने के और भी सार्थक तरीके हो सकते हैं.
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इस तरह के प्रयोग केवल वही नेता कर सकता है जो मतदाताओं पर पर्याप्त नैतिक प्रभाव रखता है. कुछ हद तक यह आज़ादी के आंदोलन में अपनाए गए तरीकों की याद दिलाता है. इसका दूसरा रूप माओ के चीन में दिखा था जिसमें समाज को सक्रिय करने की मुहिम में ज़ोर-जबर्दस्ती का तत्व भी शामिल था. यह इस बात को रेखांकित करता है कि इस तरह की कोशिश दोधारी तलवार भी साबित हो सकती है.
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