रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी के साथ चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत तथा वायुसेना अध्यक्ष मार्शल आर.के.एस. भदौरिया ने राजस्थान के जालौर जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग 925ए पर आपात लैंडिंग वाली हवाई पट्टी का उद्घाटन करने के लिए परिवहन विमान सी-130जे से मॉक इमरजेंसी लैंडिंग की.
भव्यता के साथ किए गए इस आयोजन का प्रचार भी खूब किया गया. केंद्रीय मंत्रियों ने ‘इमरजेंसी लैंडिंग स्ट्रिप’ (ईएलएफ) पर कई तरह के विमानों की आपात लैंडिंग का प्रदर्शन देखा. गडकरी ने जानकारी दी कि उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में गुजरात और पूरब में असम तक सीमावर्ती इलाकों में नेशनल हाई-वे पर ऐसी 19 और ईएलएफ का निर्माण किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि भविष्य में ईएलएफ का निर्माण डेढ़ साल (वास्तव में 19 महीने) की जगह 15 दिनों में कर दिया जाएगा. राजस्थान के जालौर में 19 महीने लगे थे.
वैसे, तीन मसले ध्यान देने योग्य हैं. पहला यह कि ईएलएफ के रूप में हाई-वे का इस्तेमाल भारतीय वायुसेना को शांति और युद्ध के भी काल में अपने ऑपरेशन्स के लिए ज्यादा अवसर उपलब्ध कराता है. दूसरे, अनजाने में सुरक्षा के मामले में चूक हुई है. तीसरे, यह आयोजन इन्फ्रास्ट्रक्चर और सेना के औद्योगिक आधार के मामले में सिविल-मिलिटरी मेल के महत्व को उजागर करता है.
यह भी पढ़ें: NSS का सर्वे मोदी सरकार के किसानों से किए वादे की मिड-टर्म परीक्षा थी, मार्कशीट में साफ लिखा है ‘फेल’ !
ईएलएफ से वायुसेना के लिए सुविधा बढ़ी
हाई-वे स्ट्रिप/रोड रनवे/ रोड बेस के नामों से मशहूर ईएलएफ का सैन्य विमानों के लिए इस्तेमाल का विचार दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उभरा था. वास्तव में ब्रिटिश भारत ने इस मामले में पहल की थी. उस दौरान रॉयल भारतीय वायुसेना ने कलकत्ता के चौरंगी और मैदान के बीच की रेड रोड का इस्तेमाल किया था, जबकि विमान के पायलट ने वहां स्थित रेस्तरां का इस्तेमाल विश्राम कक्ष के रूप में किया. जर्मनी में पूर्ण विकसित राइखसाउटोबान हाई-वे का लुफ्तवाफ़्फ़ ने हवाई पट्टी के रूप में कई बार इस्तेमाल किया था, जो मित्र राष्ट्रों की बमबारी के कारण कई बार इस्तेमाल के काबिल नहीं रहा था. आज, 2000 के बाद से पाकिस्तान समेत कई देश ईएलएफ का इस्तेमाल कर रहे हैं.
इस व्यवस्था का फिर से इस्तेमाल शुरू करने में भारत पिछड़ गया, जबकि पहल उसी ने की थी. 1990 के दशक में रेगिस्तान सेक्टर में सड़कों के विकास के हिस्से के तौर पर अंतरराष्ट्रीय सीमा से 20-30 किमी की दूरी पर हेलीपैड जीप पर सवार स्पेशल फोर्स और टोही समूहों के लिए बनाए गए थे.
ईएलएफ के निर्माण और उसके तकनीकी पहलुओं का अध्ययन करने के लिए 2016 में सड़क परिवहन एवं हाइवे मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय/ वायुसेना की अंतरमंत्रिमंडलीय कमिटी का गठन किया गया. वायुसेना ने 2015 से 2018 के बीच लखनऊ-आगरा एक्सप्रेसवे और यमुना एक्सप्रेसवे पर परीक्षण उड़ान और लैंडिंग किए ताकि सीमा के पास ईएलएफ के इस्तेमाल की संभावनाओं की जांच की जा सके.
वायुसेना के अभियानों को आसान बनाने के लिए ईएलएफ का कई तरह से उपयोग किया जा सकता है. उनका इस्तेमाल आपात काल में किया जा सकता है, खासकर तब जब दुश्मन की मिसाइल/ हवाई हमले से हमारी हवाई पट्टी इस्तेमाल के लायक न रह गई हो. दुश्मन को चौंकाने या धोखा देने के लिए विमानों को तितर बितर रखने या अभियान चलाने के लिए इनका इस्तेमाल किया जा सकता है. जिन इलाकों में कोई हवाई अड्डा या हवाई पट्टी नहीं है वहां आपदा प्रबंधन के काम में ईएलएफ बहुत काम आ सकते हैं. वे दुश्मन के इलाके में हेलीकॉप्टर से की जाने वाली कार्रवाई को भी मदद पहुंचा सकते हैं.
ईएलएफ के साथ बनाई जाने वाली सुविधाएं उनसे काम लिए जाने के स्वरूप के मुताबिक बनाई जाती हैं. वे सामान्य हवाई पट्टी से लेकर कंट्रोल टावर, विमान ठहराव क्षेत्र, ‘ब्लास्ट पेन’ (विमानों को धमाकों से सुरक्षित रखने वाले स्थान) और ऑपरेशन/रेस्टरूम से लैस मिनी एयरफील्ड तक हो सकते हैं.
यह भी पढ़ें: तालिबान से बातचीत तो ठीक है लेकिन भारत को सबसे बुरी स्थिति के लिए भी तैयार रहना चाहिए
सुरक्षा में चूक
प्रतिरक्षा के स्थिर इन्फ्रास्ट्रक्चर, खासकर एअरफील्ड जैसे बड़े ढांचे छुपाए नहीं जा सकते. प्रतिरक्षा के प्रायः सभी स्थिर इन्फ्रास्ट्रांचर गूगल मैप पर देखे जा सकते हैं. यह उन्हें क्रूज मिसाइलों और हवाई हमलों का आसान निशाना बनाता है. एअरफील्ड्स को सुरक्षित रखने के लिए व्यापक हवाई सुरक्षा संसाधन तैनात करने होंगे.
ईएलएफ स्थिर संपत्ति तो हैं मगर वे हाइवे इन्फ्रास्ट्रक्टर में विलीन हो जाते हैं और उनका पता लगाना मुश्किल होता है. जालौर ईएलएफ के उद्घाटन पर उत्साह और उपलब्धियों का प्रदर्शन करने के लोभ में सभी प्रस्तावित 19 ईएलएफ के स्थानों का खुलासा कर दिया गया.
यह भी पढ़ें: ‘कैश-मुक्त कांग्रेस’: 2014 से नेतृत्व संकट के अलावा और क्या है इस राष्ट्रीय पार्टी की समस्या
सिविल-मिलिटरी मेल
नागरिक तथा सैनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर और तकनीक का मेल राष्ट्रीय सुरक्षा का सार्वभौमिक उपाय है. अधिकतर आधुनिक देशों में यह राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का हिस्सा होता है. विकासशील देशों में सिविल इन्फ्रास्ट्रक्चर और औद्योगिक आधार के कमजोर होने और सेना का सारा ज़ोर सुरक्षा पर होने के कारण यह मेल निम्न स्तर का होता है, जिसके कारण राष्ट्रीय संसाधन का अधूरा उपयोग ही होता है. भारत कोई अपवाद नहीं है. अंतरिक्ष तथा परमाणु क्षेत्र में तो उल्लेखनीय सफलता की कहानियां मौजूद हैं, दूसरे कई क्षेत्रों में भी इस तरह से समानांतर कार्य किया जा रही है.
चीन में मिलिटरी-सिविल मेल बनाया गया था, जिसे बाद में माओ के जमाने से ही इसकी रणनीति के रूप में तैयार किया गया. तिब्बत में इन्फ्रास्ट्रक्चर का पूरा विकास इसी मेल का हिस्सा है. समय आ गया है कि भारत भी सिविल-मिलिटरी मेल को राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का हिस्सा बनाए.
सरकार ने अच्छा किया है कि रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की गैर-भागीदारी के मसले को डिफेंस प्रोक्योरमेंट प्रोसीजर 2020 के तहत निपटाया है. निजी क्षेत्र में आर-एंड-डी और तकनीकी आधार के अभाव के मद्देनजर ‘रणनीतिक साझेदारी’ की शर्त जोड़ी गई है. निजी क्षेत्र दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मूल साजोसामान उत्पादकों (ओईएम) से साझेदारी करके तकनीक संबंधी कमी को दूर कर सकता है.
‘ग्लोबल को खरीदो और भारत में बनाओ’ की नीति विदेशी ओईएम को भारत में अपनी शाखाओं के जरिए उत्पादन या रखरखाव इकाई शुरू करने में मददगार हो सकती है. एफडीआई के नियमों को नरम करने और ‘आत्मनिर्भर भारत’ की नीति अपनाने से निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन मिलेगा. भारतीय आयुध फैक्ट्रियों के कोर्पोरेटिकरण और पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी की इजाजत सही दिशा में अगला कदम साबित होगा. निजी क्षेत्र में आर-एंड-डी के लिए फंड देने की भी जोरदार वकालत की जा रही है.
इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में सिविल-मिलिटरी मेल की संभावना इच्छाशक्ति और कल्पनाशीलता पर निर्भर है. अंतरिक्ष, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, विमानन, पोत निर्माण, सड़क/रेलवे निर्माण, परिवहन, बिजली संयंत्र, भंडारण, पर्यटन, सीमा क्षेत्र विकास आदि में अंतहीन संभावनाएं छिपी हैं. स्टैंडअलोन, अपने आप में स्वतंत्र सैन्य परियोजनाओं का जमाना गया. घटते रक्षा बजट के मद्देनजर सिविल-मिलिटरी मेल विकल्प नहीं बल्कि अनिवार्यता है.
ईएलटी का उद्घाटन खुश होने की उतनी बड़ी वजह नहीं है लेकिन यह याद दिलाता है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर और सैन्य औद्योगिक आधार के मामले में सिविल-मिलिटरी मेल को राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का अभिन्न हिस्सा बनाना अब जरूरी हो गया है.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: सरकार की कश्मीर नीति तय करेगी कि भारत में तालिबानी कट्टरपंथी इस्लाम किस हद तक फैलेगा