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Thursday, 21 November, 2024
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जयप्रकाश नारायण की ऐतिहासिक भूल की वजह से बढ़ी भाजपा

भाजपा के पुराने अवतार जनसंघ ने समाजवादी होने का क्षद्म रचा और जेपी उनके छलावे में आ गए. इसकी वजह से संघ को जो विश्वसनीयता मिली, उसे वह अब तक भुना रही है.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनीतिक संगठन जनसंघ ने 1984 में अपनी काया छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी का रूप ले लिया. उसके बाद से पार्टी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है. भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 303 सीटें जीत कर केंद्र में पहुंची और देश पर राज कर रही है. उनके फासीवादी तौर-तरीकों से आक्रांत और निराश लोग अब कहने लगे हैं कि यदि जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की निरंकुशता के खिलाफ 1974 में छिड़े आंदोलन में जनसंघ को साथ नहीं लिया होता और आरएसएस को ‘मसल पावर आफ द मूवमेंट’ नहीं बताया होता, तो आज भाजपा इस कदर ताकतवर नहीं हुई होती.

फासिज्म, जनसंघ और जेपी का भाषण

यह बात अब सिर्फ कांग्रेसी, समाजवादी या कम्युनिस्ट खेमा नहीं कह रहा बल्कि 74 आंदोलन का नेतृत्व कर रही छात्र युवा संघर्ष वाहिनी धारा के कई साथियों ने भी हाल में यह बात मुखर शब्दों में कही है कि जनसंघ या आरएसएस को आंदोलन में शामिल कर जेपी ने ऐतिहासिक भूल की थी.

बात यहीं तक आ कर नहीं रुकती है. संघ समर्थन इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि जनसंघ के एक कार्यक्रम में जेपी ने कहा था कि यदि जनसंघ फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं. जेपी के निकटतम सहयोगियों ने जेपी को उस अधिवेशन में न जाने की सलाह दी थी लेकिन जेपी न सिर्फ वहां गए बल्कि उन्होंने एक ऐसा वक्तव्य दे डाला, जिसे संदर्भ से काट कर खूब उछाला गया. भाजपा व आरएसएस के लोग इस बयान को एक सर्टीफिकेट की तरह इस्तेमाल करते हैं.

संघ ने लिया था समाजवादी अवतार

जेपी की पहल पर जनसंघ ने अपना विलय जनता पार्टी में कर लिया था. आंदोलन के प्रभाव और आपात काल के दबाव की वजह से जनसंघ के नेताओं ने रणनीति बदल ली थी. यही वजह थी कि 1977 के निर्वाचन में जनसंघ ने कट्टर हिंदुत्व का प्रचार नहीं किया और न ही अपने झंडे का उपयोग किया. जनसंघ के प्रत्याशियों ने जनता पार्टी की सदस्यता पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें लिखा था – ‘मैं महात्मा गांधी द्वारा देश के समक्ष प्रस्तुत मूल्यों और आदर्शों में आस्था जताता हूं और समाजवादी राज्य की स्थापना के लिए खुद को प्रस्तुत करता हूं.’ (देखें पुस्तक सोशलिस्ट कम्युनिस्ट इंटरेक्शन इन इंडिया, लेखक – मधु लिमये)

संघ के इरादे कुछ और थे

यह भी उल्लेखनीय है कि जेपी आंदोलन के दौरान संसद पर होने वाले प्रदर्शन के पहले जेपी ने जनसंघ के सम्मेलन में स्पष्ट कहा था कि जनसंघ के लोग केसरिया टोपी नहीं लगायेंगे और अपना झंडा साथ ले कर मार्च में शामिल नहीं होंगे. लालकृष्ण आडवाणी ने यह बात मान भी ली थी. लेकिन बाद की राजनीतिक घटनाओं ने इस आशंका को सही साबित किया कि जनसंघ या आरएसएस ने सिर्फ अपने दूरगामी लक्ष्य के लिए इस तरह के ढकोसले किए. उसने अपना लक्ष्य कभी नहीं बदला और उस लक्ष्य तक पहुंचने के तरीकों को वे कभी नहीं भूले.

वैसे, संघ को मंच और महत्व देने के लिए जेपी की आलोचना उनके जीवन काल में भी हुई, जिसकी वजह से आपातकाल में जेल में रहते हुए उन्होंने बिहार की जनता के नाम एक पत्र में कहा- ‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन में उन्हें शामिल कर मैंने उनको (जनसंघ और आरएसएस को) डिकम्युनलाइज करने, यानि, असांप्रदायिक बनाने की कोशिश की है.’


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यह बात सही है कि जेपी के विरोधी जेपी के उस ऐतिहासिक वक्तव्य को संदर्भ से काट कर रखते हैं. हमें उस वक्त की ऐतिहासिक परिस्थितियों पर भी गौर करना चाहिए. बिहार आंदोलन स्कूल के छात्रावासों में व्याप्त कदाचार को लेकर शुरू हुआ और बाद में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में बदल गया. विधानसभा पर एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस फायरिंग हुई और दर्जनों लोग मारे गये.

उसके बाद व्याप्त खौफ को तोड़ने के लिए जेपी ने उस आंदोलन का नेतृत्व इस शर्त पर स्वीकार किया कि आंदोलन की बागडोर पूरी तरह उनके हाथों में रहेगी और आंदोलन शांतिपूर्ण होगा. आंदोलन व्यापक हुआ और पुलिस द्वारा बर्बर लाठी चार्ज के बाद विधानसभा को भंग करने की मांग शुरू हो गई. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कहना था कि एक चुनी हुई सरकार को भंग करने की मांग करने वाला यह आंदोलन फासिस्ट है. आंदोलन में शामिल हो चुके जनसंघ और आरएसएस को खास तौर से फासिस्ट संगठन कह कर आंदोलन पर आक्रमण किया गया.

जेपी का कहना था, ‘बिहार आंदोलन का नेतृत्व वे कर रहे हैं और अन्य राजनीतिक दल अपना झंडा बैनर छोड़ कर इसमें शामिल हुए हैं. एक फासिस्ट सरकार का विरोध कर रहे आंदोलन में जो भी उनकी शर्तों पर शामिल होता है, उन्हें उसका समर्थन स्वीकार्य है. यदि एक फासिस्ट सरकार का विरोध करने वाला जनसंघ फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं.’

जेपी को भ्रम था कि वे संघ को सांप्रदायिकता-मुक्त कर देंगे

इस संदर्भ में कुछ बातें गौरतलब हैं. जेपी ने सत्ता की राजनीति को कभी खास महत्व नहीं दिया. कुछ इतिहाकार तो यहां तक कहते हैं कि नेहरू से प्रतिद्वंदिता करने की उनकी मानसिकता नहीं थी, इसलिए वे बिनोबा के भूदान यज्ञ में शामिल हो गये. जीवन के अंतिम पहर में देश की स्थिति को देखकर पीड़ा का अनुभव करते हुए वे बिहार के छात्र आंदोलन में शामिल हुए. कम्युनिस्ट पार्टी आंदोलन का विरोध कर रही थी और इंदिरा गांधी के साथ थी. गांधीवादी संगठनों की स्थिति दयनीय थी. बिनोबा तो इंदिरा गांधी के साथ हो गये थे. समाजवादी खेमा भी आधे मन से उस आंदोलन में शामिल हुआ. इन्हीं परिस्थितियों में आरएसएस व जनसंघ पर उनकी निर्भरता बढ़ी जो एक कैडर बेस्ड आर्गेनाईजेशन था. उन्हें शायद यह भ्रम भी हुआ कि वे जनसंघ व आरएसएस को डी-कम्युनलाईज करने में सफल हो जायेंगे. इसलिए उन्होंने इमरजंसी में ही एक निर्दलीय युवा संगठन छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन भी किया.


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लेकिन इस बात को तो स्वीकार करना ही होगा कि आरएसएस को पहचानने में जेपी से ऐतिहासिक भूल हो गई. आरएसएस की भूमिका अपने जन्म से एक ही तरह की रही है. हिंदू राज की परिकल्पना को साकार करने के लिए वह हमेशा दो तीन टोटकों का इस्तेमाल करता रहा है. वे टोटके बेहद जाने पहचाने हैं. मस्जिद के सामने लाउडस्पीकर बजाना, धार्मिक जुलूसों को मंदिर के सामने से ले जाना और गौहत्या को लेकर हंगामा करना. इन बातों की चर्चा इतिहासकार शेखर बंदोपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘फ्राम पलासी टू पार्टीशन’ में विस्तार से की है.

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान संघ की भूमिका सब ने देखी थी. संघ ने आजादी के आंदोलन से खुद को दूर ही रखा. महात्मा गांधी की हत्या में उनकी भूमिका को ध्यान में रखते हुए आरएसएस पर प्रतिबंध भी लगाया गया था. बावजूद इसके संयुक्त विधायक दल यानी संविद सरकारों में संघ से संबद्ध जनसंघ को शामिल कर जो गलती 1967 में समाजवादियों ने की, वही गलती जेपी मूवमेंट में हुई. दोनों फैसलों का आधार गैर-कांग्रेसवाद था, जो उस समय का प्रभावी विचार था.

लेकिन इस बात को समझना होगा कि जेपी कभी भी संघ की सांप्रदायिक राजनीति के समर्थक नहीं थे. संघ ने उनके साथ यह कह कर छल किया कि संघ ने समाजवाद को उद्देश्य को तौर पर स्वीकार कर लिया है. जेपी को ऐतिहासिक भूल को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है, यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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