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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतजहांगीरपुरी हो या खारगोन, देश ऐसी पुलिस का तो हकदार नहीं—जो दूसरी तरफ नज़र फेर ले

जहांगीरपुरी हो या खारगोन, देश ऐसी पुलिस का तो हकदार नहीं—जो दूसरी तरफ नज़र फेर ले

मुझे पता नहीं है कि कानून-व्यवस्था सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए है, जबकि बहुसंख्यक लगभग कुछ भी करके बच जा सकते हैं.

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एक औरत होने के नाते दिल्ली की सड़कों पर देर रात गाड़ी चलाते वक्त किसी पुलिस पेट्रोल कार को देख लगता है कि मैं सुरक्षित हूं लेकिन समस्या यह है कि मेरी पहचान सिर्फ औरत ही नहीं है. मैं मुसलमान भी हूं और आज भारत में एक मुसलमान औरत होने के नाते, जैसे ही मेरा मजहब जाहिर होता है, मुझे अपनी सुरक्षा की फिक्र होने लगती है.

हनुमान जयंती के मौके पर नई दिल्ली के जहांगीरपुरी में सांप्रदायिक झड़पों के बाद अभी तक 21 गिरफ्तारियां हुई हैं, जिनमें ज्यादातर मुसलमान (16) हैं. पुलिस वीएचपी और बजरंग दल को भी तलाश रही है और यह भी जाहिर किया है कि उन्होंने जुलूस के लिए कोई इजाजत नहीं ली थी. उत्तर-पश्चिम की डीसीपी उषा रंगनानी ने कहा कि पुलिस को मुख्य अभियुक्त अंसार और असलम के पास से तीन बंदूक और पांच तलवारें मिलीं.

इस वारदात और पुलिसिया कार्रवाई के बीच मेरा एक सवाल है. भारत में क्या किसी धार्मिक जुलूस में शॉटगन, पिस्तौल, तलवारें और बेसबॉल बैट लहराते चलने की इजाजत है? ऐसा नहीं है तो जुलूस में हिस्सा लेने वालों के खिलाफ फौरन कार्रवाई क्यों नहीं हुई?


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ऐसा ही कुछ कर्नाटक में भी देखा गया.

राज्य में पुलिस अफसरों ने अनौपचारिक तौर पर यह बताया कि हिंदुत्व संगठन जानबूझकर कलबुर्गी और रायचुर में मस्जिदों की ओर मुड़ गए और लाउडस्पीकर पर भड़काऊ गीत बजाने लगे और तलवारें लहराने लगे.

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लेकिन पुलिस ने भावनाएं भड़कान वाले हाल के इन सभी मामलों में कार्रवाई करने में कमोबेश सुस्ती दिखाई. इससे एक खास समुदाय की भावनाएं आहत होनी ही थीं.

यह लेख पुलिसिया बर्बरता पर नहीं है. अलबत्ता हो भी सकता था लेकिन आज के भारत में मुसलमानों का अपना हक मांगना कुछ ज्यादा ही अखरने लगा है, इसलिए मैं इसे सिर्फ पुलिस की अनदेखी पर ही सीमित रखूंगी. यानी कानून के रखवालों के साथ मुसलमानों के अनुभव पर.

अगर जहांगीरपुरी जैसा जुलूस मुसलमान निकालते, मंदिरों के सामने भड़काऊ गीत बजाते और उस ‘पार्टी’ में शामिल नौजवान तलवारें और पिस्तौल लहराते तो क्या होता? क्या पुलिस चुपचाप किनारे खड़े होकर देखती? बतौर नागरिक मैं गिरफ्तारियों की उम्मीद करती लेकिन इन सभी अन्याय की घटनाओं में साफ-साफ पलड़ा एक ओर झुका हुआ है.
अगर आप इन सब से बेखबर हैं या इस्लामोफोबिया से ग्रस्त हैं तो मैं जो कह रही हूं उससे अनजान बने रहने और न जानने का बहाना बनाएंगे. मैं अपनी बात को साबित करने के लिए मिसालें भी दे सकती हूं.

शोभा यात्रा के नाम पर एक धार्मिक जुलूस उत्तरी दिल्ली के जहांगीरपुरी से गुजरता है, जिसमें नौजवान और कुछ किशोर पिस्तौल, शॉटगन, तलवारें और बेसबॉल बैट लहराते चलते हैं. पुलिस एक कोने में खड़े होकर जुलूस को गुजरने देती है. पत्थरबाजी होने लगती है. 21 लोग गिरफ्तार किए जाते हैं, जिसमें 16 मुसलमान हैं.

बीजेपी के मंदिर प्रकोष्ठ के प्रमुख करनैल सिंह ने ठीक मस्जिद के सामने नारा लगाया ‘जिसको इस देश में रहना होगा, जय श्री राम कहना होगा.’ यहीं से महज एक दिन पहले हिंसा भड़की थी. पुलिस उसे चुपचाप वहां से ले गई, जबकि उसकी हरकतें सांप्रदायिक तनाव पैदा करने वाली थीं.

दूसरी मिसाल देखिए. मध्य प्रदेश के खारगोन में ‘सख्त’ पुलिस निगरानी में एक रामनवमी का जुलूस गुजरता है. मौके पर मौजूद सूत्रों के मुताबिक, दंगा भड़कने के पहले खारगोन के मुसलमान बहुल इलाके तालाब चौक में पुलिसवालों और जुलूस में शामिल एक व्यक्ति के बीच कहा-सुनी होने लगी लेकिन पुलिस ने उस व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया. फिर अफवाह फैल गई कि पुलिस मुसलमान बहुल इलाके से जुलूस नहीं ले जाने दे रही है. उसके बाद झड़पें शुरू हो गईं. अफवाह रामनवमी जुलूस में शामिल लोगों के बीच फैली लेकिन किसी को पकड़ा नहीं गया या जवाबदेह नहीं बनाया गया. क्यों?

बाद में मुसलमानों के घर, दुकानें, ढाबे-होटल और इमारतें बुलडोजर से ढहा दी गईं, ताकि तथाकथित ‘दंगाइयों’ को सबक सिखाया जा सके, जिन्होंने रामनवमी के जुलूस पर पत्थर बरसाए थे. अलबत्ता कुछ हिंदुओं की जायदाद भी ढहाई गई लेकिन सरकार के कहर का शिकार ज्यादातर मुसलमान ही हुए. मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने खारगोन की झड़पों के फौरन बाद कहा, ‘जिस घर से पत्थर आए हैं, उस घर को ही पत्थरों का ढेर बनाएंगे.’

सोशल मीडिया पर खारगोन की कहानी के दोनों पक्षों को दिखाने वाले वीडियो की भरमार है. बिना यह कहे कि कौन सही है, कौन गलत, दिमाग पर थोड़ा जोर देने से ही यह समझ में आ जाता है कि एक ही पक्ष गलत नहीं हो सकता. अगर एक पक्ष भड़क उठा तो दूसरा भड़काने वाला है लेकिन कानूनी कार्रवाई एक ही पक्ष के खिलाफ होती दिखती है?

क्या हम अब ऐसे हालात में नहीं पहुंच गए हैं कि सारी ताकतें उनमें चली गई हैं जिन्हें राजनैतिक नेता कहा जाता है और पुलिस बस किनारे खड़ी उनका आदेश भर मानती है? मुझे पता नहीं है कि कानून-व्यवस्था सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए है, जबकि बहुसंख्यक लगभग कुछ भी करके बच जा सकते हैं.

लेखिका राजनैतिक टिप्पणीकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @zainabsikander. विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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