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Thursday, 2 May, 2024
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कांग्रेस की तुलना में BJP के लिए आसान है जाति जनगणना करना, कारण है सावरकर का हिंदुत्व

अगर हिंदू धर्म का एक हिस्सा यानी ओबीसी जाति जनगणना की मांग करेगा तो विराट हिंदू एकता के हित में बीजेपी ये ज़हर पी जाएगी. जहर इसलिए क्योंकि उसे मालूम है कि इससे हिंदुओं में जाति की दीवारें और मजबूत हो जा सकती हैं.

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कांग्रेस ने 2024 लोकसभा चुनाव के लिए अपना घोषणापत्र जारी कर दिया है. इसमें तमाम और बातों के अलावा ये वादा भी है कि अगर कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आती है तो सरकार जाति जनगणना कराएगी और इसके बाद एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से बढ़ा दी जाएगी.

सरल तरीके से देखने पर कोई ये सोच सकता है कि ये तो जीत की गारंटी वाला रास्ता है. किसी को लग सकता है कि एससी, एसटी, ओबीसी मिलाकर देश की 80 से 85 प्रतिशत आबादी हैं और जब कोई पार्टी उनके लिए इतना बड़ा वादा करे तो उसे इन समुदायों के काफी वोट मिल सकते हैं. कम से कम सिद्धांत रूप में तो ये होता नज़र आ सकता है.   

लेकिन राजनीति की गलियां बड़ी पेचीदा होती हैं. इस आलेख में मैं ये बताने की कोशिश करूंगा कि जाति जनगणना को लेकर कांग्रेस और बीजेपी का राजनीतिक व्यवहार क्या रहा है और इसकी वजहें क्या हैं. मैं ये बताने की कोशिश करूंगा कि पिछले दशकों में बीजेपी ने जाति जनगणना का कभी समर्थन किया है तो कभी विरोध, पर जो भी किया है वह पूरी पार्टी ने किया है. नेताओं की मतभिन्नता इस मामले में कभी सामने नहीं आई है. वहीं कांग्रेस इस मुद्दे पर बेहद विभाजित नज़र आई है. अभी हाल में कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने जाति जनगणना का विरोध कर दिया तो गौरव वल्लभ ने कांग्रेस छोड़ने के कारणों में जाति गणना को भी शामिल किया.


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कांग्रेस का सामाजिक न्याय

2014 के बाद राज्यों और केंद्र में चुनावी हारों के सिलसिले और बीजेपी के किले में कोई दरार न पड़ने के बाद, कांग्रेस ने अपनी वापसी के लिए सामाजिक, आर्थिक और लैंगिंक न्याय को अपना मुख्य नारा बनाया है. इसी क्रम में पार्टी ओबीसी और अन्य वंचित जातियों को लुभाने की कोशिश कर रही है. ये पार्टी के लिए एक रणनीतिक मामला है और इसके पीछे कोई उदारता या अन्य नैतिक, वैचारिक कारण नहीं है.

2023 की फरवरी में रायपुर सम्मेलन में कांग्रेस ने तय किया कि उसे सामाजिक न्याय पर जोर देना है और इसके लिए ओबीसी और एससी-एसटी के मुद्दे जोर शोर से उठाने हैं. इन वर्गों को पार्टी संगठन में भी ज्यादा हिस्सेदारी देने का फैसला इस सम्मेलन में किया गया. इसी के तहत कर्नाटक से आने वाले कद्दावर नेता मल्लिकार्जुन खरगे पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए. पार्टी ने यहीं से जिसकी जितनी संख्या भारी की बात छेड़ी और जाति जनगणना को अपने एजेंडे में ले लिया.

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लेकिन इस बदलाव के बाद हुए पहले विधानसभा चुनावों में पार्टी को उत्तर भारत में इसका कोई भी राजनीतिक लाभ नहीं मिला. पार्टी छत्तीसगढ़ और राजस्थान हार गई, जहां कांग्रेस के मुख्यमंत्री भी ओबीसी थे. कांग्रेस मध्य प्रदेश में अपना पिछला प्रदर्शन नहीं दोहरा पाई और ये राज्य बीजेपी के पास बना रहा.

मैंने इन चुनावों से पहले ही चेतावनी दी थी कि कांग्रेस आधे अधूरे तरीके से इन चुनावों में जाति जनगणना का सवाल उठा रही है और अगर वह हार गई तो ये माना जाएगा कि जाति जनगणना की बात करके चुनाव नहीं जीता जा सकता. ठीक यही हुआ. कांग्रेस की हार के बाद विश्लेषकों ने यही लिखा कि जाति जनगणना की बात करने के कारण कांग्रेस हार गई, या इसका कांग्रेस को कोई लाभ नहीं मिला.

इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि जाति जनगणना का मुद्दा पीछे चला गया और केंद्र सरकार पर जाति जनगणना के लिए जो दबाव बना हुआ था, वो भी हल्का हो गया.

अब लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने घोषणापत्र में जाति जनगणना को महत्वपूर्ण तरीके से उठाया है और ये पार्टी के प्रचार और नेताओं के भाषणों का भी हिस्सा है.


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जाति जनगणना और बीजेपी

दिलचस्प है कि केंद्र सरकार एक ओर जाति जनगणना नहीं करा रही है, वहीं ये भी कह रही है कि जाति जनगणना के सिलसिले को जवाहर लाल नेहरू ने बंद किया था, जो तथ्य भी है. बीजेपी जाति जनगणना को लेकर मिले जुले संकेत दे रही है जिसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि उसने 2021 में होने वाली जनगणना को 2024 में भी नहीं कराया है. जनगणना तीन साल टल चुकी है और अगली फरवरी से पहले इसका होना संभव भी नहीं है.

यानी बीजेपी जाति जनगणना नहीं करा रही है और साथ ही बिना जाति गिने जनगणना भी नहीं करा रही है. उसने विकल्प खुले रखे हैं. इस मामले में उसका व्यवहार कांग्रेस से अलग है जिसने 2011 की जनगणना जाति का सवाल पूछे बिना करा दी थी और जाति के सवाल को बीपीएल गणना में जोड़कर एक रस्म अदायगी कर दी, जिसके आकड़े कभी नहीं आए.

बीजेपी की कभी हां, कभी ना

बीजेपी जाति जनगणना को लेकर अपनी नीति बदलती रही है. अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में 2001 में जनगणना हुई. इससे पहले देवेगौड़ा की सरकार के समय कैबिनेट ने फैसला लिया था कि अगली जनगणना में जाति का सवाल पूछा जाएगा. पर वाजपेयी सरकार ने इसे नहीं माना और बिना जाति का सवाल पूछे 2001 की जनगणना करा दी.

लेकिन 2011 की जनगणना के लिए पार्टी ने अपनी रणनीति बदल ली और पूरे दमखम के साथ जाति जनगणना के समर्थन में जुट गई. पार्टी की प्रमुख नेता सुषमा स्वराज ने जाति जनगणना पर पार्टी का रुख स्पष्ट करते हुए कहा कि बीजेपी जाति जनगणना के पक्ष में है. बीजेपी ने जाति जनगणना पर लोकसभा में हुई बहस में अपने दो प्रमुख ओबीसी नेताओं गोपीनाथ मुंडे और हुक्मदेव नारायण यादव को खड़ा किया जिन्होंने जाति जनगणना का न सिर्फ जोरदार समर्थन किया बल्कि जाति जनगणना पर टालमटोल करने के लिए कांग्रेस की आलोचना भी की. इस दौर में पार्टी का एक भी नेता जाति जनगणना का विरोध करता नहीं नजर आया. बीजेपी ने इस मामले में अपने को बनिया-ब्राह्मण पार्टी की छवि से मुक्त कर लिया था.

हाल ही में, 2019 लोकसभा चुनाव से पहले, तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ये घोषणा की थी कि 2021 की जनगणना में ओबीसी भी गिने जाएंगे. लेकिन जब जनगणना का समय आया तब तक कोविड महामारी आ चुकी थी और इस बहाने से सरकार ने जनगणना को ही टाल दिया. फिलहाल सरकार जनगणना नहीं करा रही है, पर उसकी राय है कि जाति जनगणना नहीं होगी. हालांकि एक और मोड़ लेते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले साल घोषणा कर दी कि जाति जनगणना से बीजेपी को न कोई दिक्कत थी, न है.

मेरा अपना आकलन है कि बीजेपी की जाति जनगणना कराने में कोई दिलचस्पी नहीं है. लेकिन राजनीतिक कारण से कभी जाति जनगणना कराने की नौबत आई तो वह विरोध भी नहीं करेगी. सबसे बड़ी बात, वह जो भी करेगी, पार्टी में कोई असंतोष नहीं होगा और पूरी पार्टी एकजुट रहेगी. बिहार में जब नीतीश सरकार ने जाति गणना कराने का फैसला किया तो बीजेपी ने न सिर्फ स्वागत किया बल्कि इस प्रस्ताव का विधानसभा में समर्थन भी किया.

सवाल है कि बीजेपी ऐसा क्यों कर पा रही है. मेरा मानना है कि बीजेपी की मूल विचारधारा सावरकरवादी हिंदुत्व है, जिसमें विराट हिंदू एकता सर्वोपरि है. अगर हिंदू धर्म का एक हिस्सा यानी ओबीसी जाति जनगणना की मांग करेगा तो विराट हिंदू एकता के हित में बीजेपी ये ज़हर पी जाएगी. जहर इसलिए क्योंकि उसे मालूम है कि इससे हिंदुओं में जाति की दीवारें और मजबूत हो जा सकती हैं.

वहीं कांग्रेस की अलग ही गति है. कांग्रेस ने 1951 में जाति जनगणना के सिलसिले को बंद किया. 2010 में जाति जनगणना पर संसद में सभी दलों की आम सहमति बन गई थी पर कांग्रेस में प्रणव मुखर्जी और चिदंबरम जैसे लोगों ने इस सहमति को खंडित कर दिया और जाति का सवाल जनगणना से निकालकर बीपीएल गिनती के साथ जोड़ दिया. इस वजह से देश का लगभग पांच करोड़ रुपया खर्च हो गया, पर जाति के आंकड़े नहीं आए.

जाति जनगणना कांग्रेस के लिए असहज करने वाली चीज है. कोई भी ऐसा कारण नहीं है कि कांग्रेस के सवर्ण नेता जाति जनगणना का समर्थन करें, खासकर तब जबकि संख्या की राजनीति हावी होने से सबसे ज्यादा नुकसान उनको है.

इसलिए मेरा आकलन है कि जाति जनगणना अगर कभी हुई तो वह बीजेपी करा सकती है, कांग्रेस नहीं.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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