वही हुआ जिसका डर था. 194 दिन के अनशन के बाद गंगा आंदोलन वहीं आकर खड़ा हो गया जहां वह प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की मौत के बाद खड़ा था. तमाम मिन्नतें, अपील, विरोध, रैलियां, सरकार को आत्मबोधानंद से बात करने के लिए मना नहीं पाई. सत्ता के घमंड के आगे संत की जिद छोटी पड़ गई. आत्मबोधानंद ने उन्ही आश्वासनों पर अनशन त्याग दिया जो मोदी सरकार 2014 से देती आ रही हैं. इस पूरे घटनाक्रम का एकमात्र सकारात्मक पक्ष यह रहा कि संत आत्मबोधानंद का जीवन बच गया लेकिन क्या गंगा आंदोलन का यही एकमात्र उद्देश्य था?
अपने अंतिम दिनों में प्रोफेसर जीडी अग्रवाल ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि मेरे चारों और कांपिटेंट (सक्षम) लोग है लेकिन उनमें कमिटमेंट (प्रतिबद्धता) नहीं है. मातृ सदन और उनसे जुड़े संतों के जीवन, सक्षमता और प्रतिबद्धता पर कोई सवाल नहीं है. मेरा कद भी नहीं कि उन पर सवाल उठाऊं लेकिन यह विचार उन्हे करना ही होगा कि जीडी अग्रवाल ने अपने जीवन में जितने भी अनशन किए वे अपनी मांग पूरी होने के बाद ही पीछे हटे. 2012 के लोहारी नागपाला के आंदोलन के दौरान मनमोहन सिंह ने जीडी अग्रवाल से कहा था कि लोकतंत्र की यही खुबसूरती है यदि सरकार कुछ गलत कर रही है तो उसे चेताईए. सब जानते है लोहारी नागपाला में गंगा पर बन रहा बांध रद्द हो गया.
यह भी पढ़ें: प्रस्तावित गंगा एक्ट में बांध निर्माण और खनन पर रोक की कोई बात नहीं है
गंगा सफाई पर सिर्फ बातें
अग्रवाल के अपने आखिरी अनशन में जब यह साफ हो गया कि सरकार गंगा सफाई पर सिर्फ बातें ही कर रही है उन्होने जल त्याग दिया. वे जानते थे कि अनशन की सफलता सत्ता की संवेदनाओं पर निर्भर करती है. उन्हे पहले ही आगाह किया गया था कि यह दौर अलग है यहां संवेदनाओं के सरोकार राजनीतिक प्रतिबद्धता देख कर तय किए जाते हैं. महात्मा गांधी के अनशनों की सफलता में जितना हाथ उनके जिद्दीपन का है उतना ही हाथ उस सरकार का भी था जो उनसे बात करती थी.
अंग्रेजों की क्रूरता के बाद भी सफल रहे थे अनशन
अंग्रेजों की क्रूरता से इतिहास भरा पड़ा है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि 1916 का मदन मोहन मालवीय का आंदोलन अंग्रेजों से बातचीत के बाद ही सफल हो पाया था. उस बातचीत में यह तय किया गया था कि सरकार अब गंगा पर कोई बांध नहीं बनाएगी और गंगा की धारा से संबंधित कोई भी निर्णय हिंदू समाज से पूछकर ही किया जाएगा. उसके बाद से अंग्रेजों ने कभी गंगा को नहीं छेड़ा. गंगा पर सारा कहर आजाद भारत की सरकारों ने बरपाया है.
लेकिन 2019 की ताकतवर सरकार ने अनशन को दबाने में अंग्रेजों को भी पीछे छोड़ दिया. उन्होंने पहले आत्मबोधानंद से बात करने से इंकार कर दिया. वे जानते है इस राष्ट्रभक्ति के दौर में यदि दो-चार आत्मबोधानंद समाप्त भी हो जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
साफ है चौड़े सीने की सरकार के आगे 26 साल का मासूम संत कमजोर पड़ गया.लेकिन एक सवाल उन पर भी है जो इसे आंदोलन की सफलता कह रहे हैं. 194 दिन की कठिन तपस्या का जश्न क्या यह कहकर मनाया जाना चाहिए कि नमामि गंगे के मुखिया ने एक पत्र दे दिया जिसमें लिखा है कि सरकार गंगा की चिंता करती है. इस भाषा में तो सरकार पिछले कई दशकों से चिंतन कर रही है. फर्क इतना है कि 2014 के बाद से चिंतन नारों में तब्दील हो गया.
यह भी पढ़ें: प्रियंका गांधी ने गंगा यात्रा तो की, लेकिन पीएम मोदी को घेरने का मौका गंवा बैठीं
वास्तव में आत्मबोधानंद अपने फैसले पर अडिग थे. लेकिन उनके चारों ओर फैले आंदोलनकारियों ने उन पर दबाव बनाया. उन चेहरों की भी पहचान की जानी चाहिए जो लगातार सरकार के संपर्क में थे. और उन्होंने ही नमामि गंगे के मुखिया राजीव रंजन मिश्रा के लिखे पत्र को यूं प्रस्तुत किया मानों कोई बड़ी लड़ाई फतह कर ली गई है.
मातृ सदन एंबुलेंस और पुलिस की गांड़ियां लेकर पहुंचे सरकारी अधिकारी
26 अप्रैल को राजीव रंजन मातृ सदन गए थे और उसी दिन तय हो गया था कि आत्मबोधानंद अनशन तोड़ेंगे. उन्हें मानसिक तौर पर यह कहकर तैयार किया गया कि स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को तो सरकार ने कुछ भी लिखकर नहीं दिया लेकिन आपको तो लिखकर दे रहे है.
4 मई को जब मिश्र का पत्र मातृ सदन पहुंचा तब तक वहां अनशन तोड़ने की पूरी तैयारी की जा चुकी थी. प्रशासन भी पूरी मुस्तैदी से वहां मौजूद था यानी यदि आत्मबोधानंद अपने ही साथियों के दबाव में नहीं आए तो जबरदस्ती उनका अनशन तुड़वाने की तैयारी थी. मातृ सदन के आगे पुलिस की गाड़िया और ऐंबुलेंस का पहुंचना इसी बात का सबूत है.
स्वामी शिवानंद ने कई मंचों अपनी व अपने शिष्यों की हत्या की आशंका जताई है. यदि कोई धमकी मिली थी तो उसे भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए. और इस सच्चाई को स्वीकार किया जाना चाहिए कि सरकार ने प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की उठाई चार में से एक भी मांग को नहीं माना है. और गंगा आंदोलन के सबसे बड़े गढ़ ने अपने कदम पीछे हटाए हैं.
(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं.)