दुबई में भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की विजय के बाद देश के कुछ हिस्सों में जश्न मनाने वाले युवकों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज होने के साथ ही एक बार फिर ब्रिटिशकाल का यह दमनात्मक कानून चर्चा में है.
कानून की किताब में शामिल राजद्रोह के प्रावधान के बारे में हम इसके ब्रिटिशकाल का काला कानून होने या लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसके लिए कोई स्थान नहीं होने जैसी टिप्पणियां करते रहें लेकिन इस प्रावधान को हटाना आसान नहीं लग रहा है, मौजूदा दौर में न्यायपालिका अक्सर इस कानूनी प्रावधान पर नये सिरे से विचार करने पर जोर दे रही है तो दूसरी ओर सरकार इसे निरस्त करने के पक्ष में नहीं है. वह इसका दुरुपयोग रोकने के लिए उचित दिशा निर्देश बनाने के पक्ष में है.
इस कानूनी प्रावधान के भविष्य का तो पता नहीं लेकिन इस समय यह कानून लागू है और भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के बाद की घटनाओं के सिलसिले में कुछ व्यक्तियों के खिलाफ इसके तहत मामला भी दर्ज किया गया है.
दूसरी ओर, यह भी सच है कि हाल ही उच्चतम न्यायालय ने केरल के एक मामले में आरोपी को राजद्रोह के आरोप से मुक्त करने के उच्च न्यायालय के एक आदेश को तकनीकी आधार पर निरस्त कर दिया है.
भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की विजय के बाद कुछ युवकों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किये जाने पर शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश दीपक गुप्ता ने इस पर असहमति व्यक्त की है, न्यायमूर्ति गुप्ता का मानना है कि निश्चित रूप से यह राजद्रोह नहीं है और यह अदालत में टिक नहीं पायेगा.
इससे पहले, शीर्ष अदालत के ही एक अन्य न्यायाधीश आर एफ रोहिंग्टन ने भी सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद एक कार्यक्रम में राजद्रोह कानून से असहमति व्यक्त की थी।
न्यायमूर्ति नरीमन ने विश्वनाथ पसायत स्मारक समिति के एक समारोह में भारतीयों और स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ ब्रिटिश हुकूमत द्वारा इस कानून के दुरुपयोग का जिक्र करते हुये शीर्ष अदालत से अनुरोध किया था कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून, 1967 के आपत्तिजनक अंश और राजद्रोह को अपराध की श्रेणी में रखने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए निरस्त किये जाएं.
न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि शीर्ष अदालत को इन आपत्तिजनक प्रावधानों को कानून की किताब से हटाने का मामला सरकार पर नहीं छोड़ना चाहिए बल्कि उसे न्यायिक समीक्षा के अपने अधिकार का इस्तेमाल करके इसे निरस्त कर देना चाहिए ताकि नागरिक ज्यादा खुलकर सांस ले सकें.
न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा था कि राजद्रोह का प्रावधान भारतीय दंड संहिता के मसौदे में था, लेकिन इसे अंतिम संहिता में शामिल नहीं किया गया था. उन्होंने दावा किया कि इसका पता बाद में लगा और इसे फिर से तैयार किया गया. दलील यह दी गयी थी कि यह नजरअंदाज हो गया था. इसके शब्द भी अस्पष्ट थे. धारा 124ए के तहत सजा भी बहुत अधिक थी क्योंकि इसमें आजीवन देश निकाला और तीन साल की कैद का प्रावधान था.
नरीमन ने कानून की किताब में यूएपीए को शामिल किये जाने की परिस्थितियों का भी जिक्र किया और कहा कि चीन और पाकिस्तान के साथ भारत का युद्ध हो चुका था. इसके बाद ही बेहद कठोर प्रावधान वाला गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून लागू किया गया. इसमें अग्रिम जमानत का कोई प्रावधान नहीं था जबकि इसके तहत न्यूनतम सजा पांच साल की थी. यह कानून अभी तक न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं है लेकिन राजद्रोह के कानूनी प्रावधान के साथ ही इस पर भी गौर करने की आवश्यकता है.
इस समय, राजद्रोह के अपराध से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं शीर्ष अदालत में लंबित हैं. इनमें दावा किया गया है कि राजद्रोह के अपराध से संबंधित प्रावधान से संविधान के अनुच्छेद 19 (1)) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होता है और केन्द्र तथा राज्य सरकारें इसका दुरुपयोग कर रही हैं. यह मामला फिलहाल 14 दिसंबर, 2021 के लिए सूचीबद्ध है.
भारतीय दंड संहिता के इस प्रावधान को इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व मुख्य संपादक और भाजपा नेता अरुण शौरी, पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा, कन्हैया लाल शुक्ला, ‘द शिलॉन्ग टाइम्स’ की संपादक पेट्रीसिया मुखिम और ‘कश्मीर टाइम्स’ की मालिक अनुराधा भसीन, एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज और मानवाधिकार कार्यकर्ता मेजर-जनरल (अवकाशप्राप्त) एसजी वोम्बटकेरे आदि ने चुनाती दे रखी है.
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लेकिन, इस बीच, न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना की पीठ ने STATE OF KERALA & ORS. VS ROOPESH प्रकरण 29 अक्टूबर, 2021 को कानूनी विसंगति के आधार पर फिर से विचार के लिए वापस केरल उच्च न्यायालय भेज दिया. राजद्रोह से संबंधित इस मामले में अब उच्च न्यायालय की खंडपीठ को इस पर विचार करना है.
राजद्रोह से संबंधित इस मामले में उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने माओवादियों से कथित तौर पर संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तार एक व्यक्ति को राजद्रोह सहित आतंकवाद रोधी कानून और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून के तहत तीन मामलों में आरोप मुक्त कर दिया था.
इस मामले में न्यायाधीशों ने विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ एकल पीठ का 20 सितंबर, 2019 का फैसला निरस्त करते हुए कहा कि यह एनआईए कानून के प्रावधान और शीर्ष अदालत की व्यवस्था के विपरीत है. शीर्ष अदालत ने State of Andhra Pradesh vs. Mohd. Hussain alias Saleem और Bikramjit Singh vs. State of Punjab मामले में अपनी व्यवस्था में कहा था कि राष्ट्रीय जांच एजेन्सी कानून की धारा 21 के प्रावधान के मद्देनजर विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर उच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ सुनवाई करेगी. विशेष अदालत ने आरोपी को इन आरोपों से आरोप मुक्त करने से इंकार कर दिया था.
पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ भाजपा के एक कार्यकर्ता द्वारा दायर शिकायत के आधार पर दर्ज प्राथमिकी के मामले के साथ ही राजद्रोह के आरोप का मामला नये सिरे से सुर्खियों में आया था. इस मामले में न्यायमूर्ति यू यू ललित और न्यायमूर्ति विनीत सरन की पीठ ने चार जून को अपने फैसले में विनोद दुआ के खिलाफ प्राथमिकी में लगाये गये सभी आरोपों को निराधार पाया था, साथ ही राजद्रोह से संबंधित कानूनी प्रावधान की आलोचना भी की थी.
न्यायाधीशों ने अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि 1962 के केदारनाथ सिंह प्रकरण में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ की व्यवस्था के अनुरूप प्रत्येक पत्रकार संरक्षण का हकदार होगा और भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए और धारा 505 के तहत प्रत्येक मुकदमा इन धाराओं के दायरे के अनुरूप ही होना चाहिए.
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इसके बाद, शीर्ष अदालत में कानून की किताब में राजद्रोह के अपराध को लेकर कई याचिकाएं दायर की गयीं. इन्हीं में से एम मामले की सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने भी ब्रिटिश शासन काल के इस दंडात्मक कानून के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की थी. उनकी स्पष्ट राय थी कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दौर में सत्तारूढ़ दल के लोग अपने विरोधियों को फंसाने के लिए इस कानूनी प्रावधान का सहारा ले सकते हैं.
शीर्ष अदालत का यही मत है कि बात बात पर राजद्रोह की संगीन धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज करने की प्रवृत्त गलत है और इस पर रोक लगनी चाहिए.
धारा 124 ए में प्रदत्त राजद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है जिससे असंतोष पैदा हो तो यह राजद्रोह है, जो एक दंडनीय अपराध है.
लेकिन सवाल यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब हमारा संविधान प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है तो सरकार विरोधी सामग्री लिखने या बोलने अथवा ऐसी किसी सामग्री का समर्थन राजद्रोह कैसे हो जायेगी.
यह विडंबना ही है कि न्यायपालिका द्वारा अनेक व्यवस्थाओं के माध्यम से राजद्रोह के बारे में राय व्यक्त किये जाने के बावजूद आज भी राज्यों में पुलिस प्रशासन विरोधियों के खिलाफ राजद्रोह के मामले दर्ज करने से गुरेज नहीं करता है. यह दीगर बात है कि अदालत में पहुंचने पर आरोपियों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप न्यायिक समीक्षा के दौरान टिक नहीं पाते हैं और अभियोजन को बार बार शर्मसार होना पड़ता है.
उम्मीद है कि शीर्ष अदालत पुलिस द्वारा घड़ी घड़ी आरोपियों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज करने की प्रवृत्ति पर अंकुश के लिए सख्त दिशा निर्देश देगी ताकि राजनीतिक विरोधियों से हिसाब किताब बराबर करने के लिए इस कानून का दुरुपयोग न हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)