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Tuesday, 19 November, 2024
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बिहार चुनाव में सीधे जीतना भाजपा के लिए मुश्किल, लेकिन हारने के बाद जीतना आसान है

किसान विरोधी बिल, मजदूर विरोधी बिल, सीएए-एनआरसी, गिरती जीडीपी, बिहार में बाढ़ की बदहाली, रोजगार के अभाव जैसी परिस्थितियों में बिहार में भाजपा-एनडीए बहुमत पाना भले ही मुश्किल हो, लेकिन चुनाव बाद अन्य दलों के विधायकों को अपनी तरफ खींचना उसके लिए काफी आसान हो सकता है.

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वैसे तो हमेशा हर दल यही चाहता है कि किसी भी चुनाव में उसे पूरा बहुमत मिल जाए और वह अपने दम पर सरकार बना ले, लेकिन मौजूदा राजनीति में बहुमत न मिलने पर चुनाव बाद की चालबाजियां भी बहुत अहम हो गई हैं, खासतौर पर भाजपा ने बहुमत न मिलने पर भी अपनी सरकार बनाने में काफी महारत हासिल कर ली है. बहुत संभव है कि इस बार बिहार विधानसभा चुनावों के बाद भी वह फिर से यही रणनीति अपनाए.

बिहार में मुश्किल में है भाजपा-जेडीयू

किसान विरोधी बिल, मजदूर विरोधी बिल, सीएए-एनआरसी, गिरती जीडीपी, बिहार में बाढ़ की बदहाली, रोजगार के अभाव जैसी परिस्थितियों में बिहार में भाजपा-एनडीए बहुमत पाना भले ही मुश्किल हो, लेकिन चुनाव बाद अन्य दलों के विधायकों को अपनी तरफ खींचना उसके लिए काफी आसान हो सकता है.

वास्तव में देखा जाए, तो बिहार में सीधे जीतना भाजपा के लिए मुश्किल है तो हारने के बाद जीतना उसके लिए काफी आसान दिख रहा है. चुनावों में उसकी कोशिश किसी न किसी तरह से आरजेडी को अपने दम पर बहुमत पाने से रोकने की है और इतने से भी उसका काम चल जाएगा.

महागठबंधन में चुनाव बाद टूट की आशंका प्रबल

आरजेडी अगर कांग्रेस या अन्य दलों से गठबंधन करके, सभी के सहयोग से बहुमत जुटा भी लेती है, तो भी भाजपा या तो उसकी सरकार बनने नहीं देगी और बन भी जाएगी तो जल्द ही उसे गिराकर, अपने गठबंधन की सरकार बना लेगी जैसा कि उसने पिछली बार महागठबंधन से जेडीयू को अलग करके किया था.

हालांकि, पिछली बार जेडीयू महागठबंधन में बराबर या यूं कहें कि ज्यादा ताकतवर स्थिति में थी, लेकिन तब भी भाजपा को उसे अपने पाले में खींचने में कोई दिक्कत नहीं हुई. इस बार तो उसके लिए स्थितियां और ज्यादा आसान दिख रही हैं.

आसानी से टूट जाएंगे कांग्रेस और छोटे दलों के विधायक

इस बार माना जा रहा है कि भाजपा को हराने के नाम पर आरजेडी फिर से कांग्रेस, रालोसपा, वीआईपी, सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई-माले जैसे दलों से गठबंधन करके लड़ेगी, और एनडीए-नीतीश-भाजपा की गिरती लोकप्रियता के कारण बहुमत पा भी सकती है, लेकिन ऐसी सरकार से रालोसपा, वीआईपी, और कांग्रेस के विधायकों को लालच या दबाव देकर तोड़कर एनडीए की तरफ लाने में भाजपा को कोई दिक्कत नहीं होगी.

वैसे भी कांग्रेस, रालोसपा, वीआईपी और वामदल आरजेडी पर ज्यादा से ज्यादा सीटें छोड़ने का दबाव बनाने में जुट गए हैं, जिसका सीधा-सा मतलब यही है कि आरजेडी को इतनी सीटें लड़ने के लिए नहीं मिलेंगी कि वह अपने दम पर 243 के सदन में 123 सीटें पाकर अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में आ जाए.


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ऐसी स्थिति में ही भाजपा के हारकर जीतने के चांस ज्यादा बनेंगे. उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और मुकेश साहनी की वीआईपी की तो राजनीतिक प्रतिबद्धता भी संदिग्ध है, जिस कारण ये तो आसानी से भाजपा के दबाव में एनडीए में चले जा सकते हैं.

कांग्रेस का भी अपने विधायकों पर नियंत्रण नहीं रहा, सवाल कांग्रेस का तो कांग्रेस नेतृत्व तो आरजेडी और तेजस्वी का साथ नहीं छोड़ेगा, लेकिन कांग्रेस के विधायक ही अपनी पार्टी के निर्देशों की अनदेखी करके, सत्तासुख और धन के लालच में एनडीए की तरफ जाने लगे तो नेतृत्व उन्हें रोक नहीं पाएगा.

कांग्रेस की स्थिति तो ये है कि मध्यप्रदेश में उसके 25 से ज्यादा विधायक भाजपा में शामिल हो चुके हैं और उपचुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं. राजस्थान में भी किसी तरह से कांग्रेस सरकार बचाने में सफल हो गई वरना वहां भी भाजपा ने खेल कर ही दिया था. ऐसे में बिहार में तो कांग्रेस वैसे भी काफी कमजोर स्थिति में पिछले कई दशकों से है, तो वहां के कांग्रेसी विधायकों को तो भाजपा जब चाहे अपनी तरफ खींच लेगी.

विपक्षी एकता का दबाव आरजेडी के लिए हो सकता है घातक

ऐसे में इन दलों के साथ गठबंधन करना और फिर बड़प्पन दिखाते हुए ज्यादा से ज्यादा सीटें उनके लिए छोड़ना, आरजेडी के लिए नुकसानदायक तो हो सकता है, लेकिन इस जाल से उनके बचने की संभावना कम दिख रही है.

विपक्षी एकता और भाजपा हटाओ के नाम पर जो दबाव बनता दिख रहा है, उसमें आरजेडी के लिए बहुत मुश्किल है कि वह पूरी तरह से स्वतंत्र जनाधार खो चुकी कांग्रेस और, कभी भी खुद की ताकत साबित न कर सकने वाली रालोसपा और वीआईपी को किनारे करके, खुद को जेडीयू-भाजपा के विकल्प के रूप में पेश करे और इसी में भाजपा की फिर से वापसी की किरण दिखती है.

गठबंधन अब नहीं होते कामयाब

गठबंधन करना कभी बड़े दलों को हराने के लिए कामयाब फॉर्मूला रहा होगा, लेकिन बदली परिस्थितियों में अब ये भाजपा के लिए ही फायदेमंद होता है, लेकिन गठबंधन के असर पर राजनीति के जानकारों ने कोई स्वतंत्र और नया विश्लेषण नहीं किया है, और अब भी यही माना जाता है कि गठबंधन करने पर सहयोगी घटकों के बीच वोट ट्रांसफर हो जाता है.

वोट ट्रांसफर होने की बात कर्नाटक, यूपी और खुद बिहार में भी गलत साबित हो चुकी है, देखा यह गया है कि अब मतदाता या तो अपनी पसंदीदा पार्टी को वोट देते हैं और पसंदीदा पार्टी का प्रत्याशी न होने पर सीधे भाजपा को ही वोट देने लगे हैं. ऐसे में आरजेडी अगर कांग्रेस से भी गठबंधन करती है, तो भी फायदा भाजपा-जेडीयू को ही होने वाला है.


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खास बात ये भी कि अगर आरजेडी-कांग्रेस को ही इस गठबंधन से फायदा हो तब भी चुनाव बाद कांग्रेस के विधायकों को खरीदने का विकल्प धन-धान्य से बेहद संपन्न हो चुकी भाजपा के सामने आसानी से उपलब्ध रहेगा ही.

तेजस्वी के सामने क्या है विकल्प

एक सवाल यह भी है कि मौजूदा हालात में तेजस्वी यादव को क्या करना चाहिए कि उनकी सरकार बन भी जाए और आगे कोई उसे गिरा भी न पाए. इसका विकल्प मौजूद है, लेकिन उसके लिए आत्मविश्वास और साहस का प्रदर्शन करना होगा.

भाजपा और जेडीयू के खिलाफ जिस तरह से लोगों में गुस्सा है, उसको भुनाने के लिए आरजेडी आक्रामक तरीके से सामने आए, मुजफ्फरपुर शेल्टर होम का बलात्कार कांड, सृजन घोटाले जैसे मुद्दों को उठाए, कुछ खास जातियों के वोटों के नाम पर बने दलों के बजाय, उन जातियों के प्रत्याशियों को ज्यादा टिकट दे, लालू प्रसाद यादव को जेल में रखने की भाजपा-कांग्रेस की साजिशों को मुद्दा बनाए, तो बड़ी आसानी से वह भाजपा-जेडीयू को हरा सकती है. पिछली बार बनी-बनाई सरकार को भाजपा ने जिस तरह से छीना था, उससे भी आरजेडी के प्रति सहानुभूति की कुछ लहर अब भी बाकी है ही.

चुनावी माहौल बदल देगा अकेले लड़ने का ऐलान

अकेले लड़ने से जनता के मन में उसकी छवि भी मजबूर दल की नहीं, मजबूत दल की बनेगी. गठबंधन करने से जहां चुनाव मोदी बनाम अन्य हो जाता है, वहीं आरजेडी के अलग से सभी सीटों पर लड़ने से चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होगा, जिसमें नीतीश कुमार की पिछले तकरीबन 15 साल की नाकामियां उभरकर आएंगी.


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तेजस्वी यादव को भी पहली बार अपने दम पर चुनावी नैया पार कराने की चुनौती मिली है और इसमें दृढ़ता दिखाकर ही वे मजबूत नेता के रूप में स्थापित हो सकते हैं, यही वो स्थिति है जिससे भाजपा ही नहीं, खुद आरजेडी के संभावित सहयोगी भयभीत होते हैं क्योंकि आरजेडी के अलग लड़ने से, कांग्रेस समेत बाकी सभी छोटे दल चुनावी रेस से एकदम बाहर ही हो जाएंगे.

स्वाभाविक है कि भाजपा विरोधी वोट बंटने की आशंकाएं भी खामख्याली हैं. आकलन को इस बात का होना चाहिए कि तमाम दलों के अलग-अलग लड़ने से भाजपा के ही वोटों का बंटवारा हो सकता है.

कमजोर दलों की भूमिका घटेगी कोरोना-काल में

बिहार के चुनावों में अब ज्यादा समय नहीं है. कोरोना के कारण चुनाव प्रचार में कई तरह के प्रतिबंध भी रहेंगे ही. ऐसे में केवल चुनाव के समय दिखने वाले दलों का कोई भविष्य नहीं दिखता. केवल वही दल कोरोना-काल में टिक पाएंगे जिनका मजबूत संगठन मौजूद है. जनता भी केवल एक मजबूत दल को ही चुनेगी. यही बात आरजेडी और तेजस्वी यादव के पक्ष में जाती है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. व्यक्त विचार निजी है)

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2 टिप्पणी

  1. Bihar Election 2020 में RJD के लिए बेशक एकला चलो की निति काफी मुश्किल होगी! लेकिन घटक दलों के दवाब में आने से बेहतर अकेले चुनाव में जाना ही है. कांग्रेस-भाजपा की चाल हमेशा से ही क्षेत्रीय दलों को कमजोर करने की रही है. ऐसे में अधिक सीटें छोड़ने की जगह Tejashwi Yadav को अकेले बिहार चुनाव लड़ने का विकल्प चुनना चाहिए. वैसे भी, 50 फीसदी से अधिक जनता तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार के विकल्प के रूप में देख रही है. वहीं, कांग्रेस के पास CM Candidate का अभाव है. भाजपा भी राज्य में अभी तक मजबूत नहीं हो पाई है. कोरोना काल की त्रासदी ने राजद को काफी मजबूत किया है. इसका फायदा राजद को जरूर उठाना चाहिए.

  2. कई ओपिनियन पोल एकतरफा भाजपा जदयू की जीत बता रहे हैं।

    मुझे लगता है लेखक यादव को अब स्वयं राजद के चुनाव प्रचार की कमान संभाल लेनी चाहिए।

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