लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तान के सबसे जहरीले निर्यात हैं. ये भारत, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और शायद दूसरे देशों में भी सबसे खतरनाक और कारगर आतंकी गुट बने हुए हैं. इन भारी हिंसक गुटों के पीछे कौन है, यह सबसे बड़ा बौद्धिक और पॉलिसी विशेषण का सवाल बना हुआ है. इस गुट को किस मामले में पाकिस्तानियों को समर्थन मिलता है, इस पर रोशनी डालने के लिए मैंने अपने साथी कार्ल काल्टेनठेलर के साथ पाकिस्तान के राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखकर उसके चार सूबों पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तुनख्वा में 7,656 लोगों से बातचीत करके एक अनूठा सर्वेक्षण किया. हमारे नतीजों से आप चौंक जा सकते हैं.
विचारधारा की अहमियत
लश्कर-ए-तैयबा (और दूसरे कई नाम-धाम जो इस्तेमाल करता रहा है या करता है) इस क्षेत्र में सक्रिय दूसरे कई इस्लामी आतंकी गुटों से एकदम अलग है, जो देवबंदी मजहबी परंपरा से जुड़े हैं. लश्कर-ए-तैयबा अहल-ए-हदीस परंपरा का अनुयायी है. दरअसल, यह गुट देवबंदी गुटों से बड़े पैमाने पर काफी टकराव रखता है, क्योंकि ज्यादातर देवबंदी गुट तकफीर या पाकिस्तानियों को गैर-मुसलमान कहने से जुड़े हैं, जो इस तरह भारी खून-खच्चर में शुमार हो जाते हैं. पाकिस्तान में इस्लामिक स्टेट देवबंदी उग्रपंथी गुटों से ही अपना समर्थन जुटाता है क्योंकि देवबंदी मदरसे और आतंकी गुट पिछले दशक में गैर-मुसलमानों, शिया, अहमदी और बरेलवी संप्रदायों को निशाना बनाने के समृद्ध इतिहास के साथ कट्टर सांप्रदायिक हैं.
पाकिस्तान का खुफिया तंत्र दूसरी बातों के अलावा लश्कर-ए-तैयबा को ऐन इसलिए भी तवज्जो देता है क्योंकि वह देश में अहिंसा का हिमायती है. जैसा कि मैंने कहीं और कहा है, यह गुट अहमदियों की मौत की सार्वजनिक हिमायत नहीं करता, जिससे यह पाकिस्तान के देवबंदी और बरेलवियों के एकदम खिलाफ ठहरता है. देवबंदी और बरेलवी अहमदियों को शिर्क (धर्मत्याग) के सबसे बुरे कसूरवार मानते हैं. लश्कर का मानना है कि वह पाकिस्तान में इस्लामिक स्टेट का इकलौता वैचारिक प्रतिद्वंद्वी है.
हालांकि लश्कर के अहल-ए-हदीस के दावे के बावजूद पाकिस्तान के ज्यादातर अहल-ए-हदीस उलेमा और संस्थाएं उसके इस मूल दावे को खारिज करते हैं कि फौजी जेहाद सभी मुसलमानों की पक्की जिम्मेदारी है और जेहाद नॉन-स्टेट एक्टर भी छेड़ सकते हैं. इसके बदले, ज्यादातर अहल-ए-हदीस उलेमा का मानना है कि सिर्फ इस्लामी रियासत ही जेहाद छेड़ सकती है. लश्कर-ए-तैयबा उन सभी के साथ अहिंसक बर्ताव की वकालत करता है, जो अल्लाह की सर्वोच्चता में यकीन करते हैं. उसके पाकिस्तान में लगभग सभी मुस्लिम संप्रदायों के साथ वैचारिक मतभेद हैं.
वह बरेलवियों (जिनकी पाकिस्तान में शायद सबसे ज्यादा हिस्सेदारी है) पर पैगंबर की उपासना के लिए मूर्तिपूजा का आरोप लगाता है, जो इस्लाम के मुताबिक महज एक मनुष्य थे. बरेलवी न सिर्फ पैगंबर के गुणगान में वह सब कहते हैं, जो सिर्फ अल्लाह के लिए शोभा देता है, बल्कि वे ताबीज पहनते हैं, पीर की पूजा करते हैं, कब्रों को सजाते-संवारते हैं. ऐसी तमाम प्रथाओं को लश्कर मजहब के खिलाफ मानता है.
लश्कर देवबंदी कट्टर गुटों की तरह शियाओं से भी टकराते हैं, क्योंकि वे पैगंबर की विरासत को खारिज करते हैं. हालांकि देवबंदी शिया को वाजिब-उल कातिल (कत्ल के काबिल) मानते हैं लेकिन इसके उलट, लश्कर मानते हैं कि उन्हें शिक्षित करना चाहिए और धर्म-परिवर्तन कराया जाना चाहिए.
पाकिस्तान में अहल-ए-हदीस की मुख्यधारा की संस्थाओं से खास वैचारिक मतभेद के बावजूद, हमारे अध्ययन के मुताबिक लश्कर-ए-तैयबा को अहल-ए-हदीस अनुयायियों में समर्थन है. खासकर, हमने पाया कि बरेलवी, शिया और देवबंदी इस गुट के खिलाफ हैं, जो लश्कर-ए-तैयबा की ऐसे लोगों की लश्कर की अहल-ए-हदीस की परंपरा की समझ में धर्म-परिवर्तन की कोशिशों (दावा और तबलीग) के मद्देनजर वाजिब भी है.
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मगर स्थानीयता की अहमियत ज्यादा
लश्कर का लंबे समय से दावा है कि वह कश्मीरी तंजीम है, जिसमें कश्मीरी कश्मीरियों के लिए लड़ रहे हैं और कश्मीर में मर रहे हैं. लेकिन इसे हमेशा शक की नजर से देखा गया और हाल के डेटा से पता चलता है कि सिर्फ आखिरी दावा ही सही है (देखें तालिका 1). करीब 90 फीसदी की मौत भारत में होती है और उसके तकरीबन 90 फीसदी काडर बस पाकिस्तान के दस जिलों से आते हैं. महज 1 फीसदी पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से हैं. ‘कश्मीरी’ संगठन होने के लश्कर-ए-तैयबा के दावे के बावजूद, वह हर मायने में पंजाबी गुट है.
इससे एक दिलचस्प सवाल खड़ा होता है: पाकिस्तानी इस गुट का समर्थन उसके मजहबी या स्थानीय पहचान की वजह से करते हैं? पता चला कि विचारधारा तो मायने रखती है, लेकिन स्थानीयता ही समर्थन का सबसे मजबूत आधार है. वह विचारधारा से कहीं ज्यादा अहमियत रखती है. हालांकि बलूच लोग बाकियों से ज्यादा लश्कर-ए-तैयबा के खिलाफ हैं, जबकि सिंधी लोग अपने जवाब में कुछ कमजोर दिखते हैं. इसकी तस्दीक हकीकत से भी होती है: पाकिस्तान का खुफिया तंत्र ने कई वजहों से बलूचिस्तान में लश्कर का इस्तेमाल किया है.
एक तो, उम्मीद यह की गई कि लश्कर बलूच लोगों को इसके लिए मना सकता है कि वे अपनी स्थानीय आकांक्षाओं को छोडक़र लश्कर प्रेरित राज्य-प्रायोजित इस्लामी राष्ट्र को अपना लें. इस एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए पाकिस्तान बलूचिस्तान में प्राकृतिक आपदाओं के वक्त, जो अक्सर आती रहती हैं, उन्हीं ‘मानवीय’ संगठनों को राहत-कार्य की इजाजत देता है, जो लश्कर से जुड़े हैं. इतना ही महत्व का यह भी है कि लश्कर पूरी तरह चीन समर्थक है और चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर (सीपीईसी) के पुरजोर हक में है. यह भी तथ्य है कि पाकिस्तान संसाधान से भरेपूरे प्रांत के दोहन के लिए चीन की मदद के खातिर आखिरी बलूच से लडऩे तक को तैयार है, इसलिए बलूच लोग सही ही लश्कर को पंजाबी दबदबे का ही बहाना मानेत हैं, जो पंजाबी दबदबे वाली फौज के साथ मिलकर काम कर रहा है. बहुत सारे बलूच लोगों का मानना है कि पंजाबी बलूचिस्तान को अपने प्रांत में शामिल करना चाहते हैं.
पाकिस्तान में फौज की अगुआई वाली यथास्थिति का समर्थन
लश्कर परदेस में हिंसक उथल-पुथल मचाने की अहमियत रखता है, मगर अपने देश पाकिस्तान में वह यथास्थिति कायम रखने की ताकत ही है. लश्कर भारत में तो काफिरों के कत्ल की वकालता करता है, लेकिन पाकिस्तान में वह समाज सेवा, मानवीय राहत और पाक मुसलमानों की जिंदगी की मिसालों से उनके धर्मांतरण का हिमायती है. लश्कर की सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ सख्त रुख ने उसे इस्लामी स्टेट और शिया विरोधी लश्कर-ए- जांगवी (एलईजे जो सिपह-ए-सहाबा-ए-पाकिस्तान और अहले सुन्नत वाल जमात नाम से भी सक्रिय है) या तरीक-ए-तालीबान (टीटीपी या पाकिस्तानी तालीबान) जैसे देवबंदी कट्टर गुटों के खिलाफ खड़ा किया है. टीटीपी के कई कमांडर और काडर एलईजे से जुड़े हैं.
सबसे बढकर लश्कर राज्य सत्ता के खिलाफ किसी तरह की हिंसक वारदात के खिलाफ है, चाहे नेतृत्व में कोई भी हो. वह पाकिस्तान की मौजूदा धरेलू, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था का पैरोकार है और चीन से पाकिस्तान की गैर-वाजिब दोस्ती का भी हिमायती है. लश्कर के समर्थन की तीसरी वजह शायद उसका यथास्तिथि से संतुष्ट रहना है. हमारे अध्ययन के नतीजे तो बताते हैं कि लश्कर किसी तरह का क्रांतिकारी संगठन मानने का विचार छोड़ देना चाहिए.
क्रूर आतंकियों की मांएं
यह समझने के लिए काफी कम काम हुआ है कि क्यों औरतें इस्लामी आतंकवाद का समर्थन करती हैं, मगर पाकिस्तान में मर्दों के मुकाबले औरतें ही ज्यादा लश्कर की हिमायत करती हैं. जैसा कि मैंने कहीं और बताया है, लश्कर अपने लक्ष्य को साधने के लिए औरतों की भर्ती में काफी संसाधन खर्च करता है, ताकि वे अपने बेटों और परिवार के दूसरे मर्दों को उसमें आतंकी या मददगार की तरह शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करें.
लश्कर औरतों को अपने संगठन के प्रचार में मदद करने के लिए शह देता है. उन्हें वह ताकत देता है और बिना रोकटोक घूमने-फिरने की आजादी देता है. मांएं संगठन से बेरुख न हो जाएं, इसके लिए लश्कर-ए-तैयबा हर फिदायीन मिशन में जाने वाले लडक़ों को मां का अशीर्वाद होना जरूरी बनाता है. संगठन बेटे की मौत पर अपने वरिष्ठ पदाधिाकरियों को मां-बाप के पास भेजता है और शव की गैर-मौजूदगी में गायब-ए-जनाजा का आयोजन करता है.
इसमें एक भी अच्छी खबर नहीं
तो, इस जानकारी से कोई क्या समझे? ये नतीजे बताते हैं कि लश्कर-ए-तैयबा से निपटने की शायद कोई धीमी रणनीति कारगर हो. संगठन को सरकारी तंत्र की भारी शह और पाकिस्तान में फौज और खुफिया एजेंसियों के पुख्ता कंट्रोल के मद्देनजर सूचना संबंधी अभियान से मात देने की गुंजाइश शायद सबसे कम है, जो उसके समर्थन आधार को कम कर दे.
इकलौता विकल्प यही है कि छद्म और खुली सैन्य कार्रवाई से पाकिस्तान पर भारत का दबदबा बनाया जाए, ताकि लश्कर की ताकत पर अंकुश लगे. जैसा कि मैंने कहीं और बताया है कि पाकिस्तान में पिरामिड नुमा खुले नेतृत्व की शैली से नेतृत्व को प्रभावित करना मुश्किल नहीं है. वाकई यह विकल्प तो चुनौती भरा और मुश्किल है, लेकिन दूसरा कोई विकल्प नजर नहीं आता.
सी. क्रिस्टीन फेयर जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के सेक्यूरिटी स्टडीज प्रोग्राम में एडमंड ए. वाल्स ऑफ फॉरेन सर्विस के तहत जुड़ी हुई हैं. वे इन देयर ओन वर्ड्स: अंडरस्टैंडिंग द लश्कर-ए-तैयबा और फाइटिंग टु द एंड: द पाकिस्तान आर्मीज वे ऑफ वॉर की लेखिका हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @cchristinefair . यहां व्यक्त विचार निजी हैं.
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